कर्नाटक चुनाव- सामाजिक समीकरण बनाने में सफल रही कांग्रेस

 

देवराज अर्स ने किसी ज़माने में लिंगायतों और वोक्कलिगाओं की जकड़ से कर्नाटक की चुनावी राजनीति को निकालने के लिए ‘अहिंदा’ यानी पिछड़ों, दलितों-आदिवासियों और मुसलमानों के गठजोड़ की रणनीति बनाई थी। कांग्रेस इस समीकरण के साथ थोड़े-बहुत वोक्कलिगा वोटों को भी जोड़ लेती थी। इस तरह उसने कर्नाटक में अपना दबदबा क़ाफी समय तक कायम रखा। 2018 के पिछले चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने इसी अहिंदा के साथ लिंगायतों को जोड़ने की कोशिश की थी, पर उनका मंसूबा पूरा नहीं हुआ। अहिंदा-लिंगा का समीकरण नहीं बना। लेकिन इस चुनाव में न केवल अहिंदा-लिंगा का समीकरण बना, बल्कि उसमें बड़े स्तर पर वोक्का भी जुड़ गए। इस तरह कांग्रेस को पूरे कन्नड़ समाज ने वोट देकर असाधारण जीत दिलवाई। इसका सबसे बड़ा कारण किसे समझा जाना चाहिए? मेरा ख्याल है कि इसे कामयाब करने के पीछे बसवराज बोम्मई की भाजपा सरकार के निकम्मेपन और भ्रष्टाचार की प्रमुख भूमिका है। जनता मन बना चुकी थी कि इस सरकार से छुटकारा पाना है। ‘पे-सी.एम.’ के नाम से बदनाम बसवराज बोम्मई को अगर समय रहते हटा दिया जाता, और कम से कम सात-आठ महीने पहले नया मुख्यमंत्री बना दिया जाता तो शायद भाजपा आला कमान इस खोई हुई बाज़ी को एक हद तक बचा सकता था। लेकिन वह जनता का मन पढ़ने में नाकाम रहा। इससे एक बार फिर यह तय होता है कि भाजपा हर चुनाव प्रधानमंत्री के भाषणों और अमित शाह के प्रबंधन के दम पर नहीं जीत सकती। सबसे बड़ा नुकसान तो यह हुआ है कि इस हार ने नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व की राष्ट्रीय सीमाओं की पोल खोल दी है। दक्षिण भारत उनकी बात नहीं सुनता। वे केवल उत्तर, मध्य, पश्चिम और  पूर्वी भारत में ही लोकप्रिय हैं। इंदिरा गांधी जैसी अखिल भारतीय लोकप्रियता प्राप्त करने में उन्हें अभी तक सफलता नहीं मिली है। 
कर्नाटक चुनाव के नतीजे आने से पहले राजनीति के ज्यादातर पंडित यह मान कर चल रहे थे कि बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने का वायदा करके कांग्रेस ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है। आई.पी.एल. लीग की भाषा में कहा जा रहा था कि अब कांग्रेस की इस ‘लूज़ बॉल’ (कमजोर गेंद) पर प्रधानमंत्री छक्के पर छक्के लगाएंगे, चुनाव पलट देंगे और कांग्रेस की जीती-जिताई बाज़ी सांसत में पड़ जाएगी। इस समीक्षा का मतलब यह था कि बजरंग दल और बजरंग बली में समानता स्थापित करके नरेंद्र मोदी कर्नाटक के वोटरों को हिंदू-ध्रुवीकरण की तरफ धकेल देंगे। इसी तर्क को आगे बढ़ाते हुए कहा जा रहा था कि इस तरह के धर्म-आधारित ध्रुवीकरण के लिए लव जिहाद और हिजाब जैसे मुद्दों का इस्तेमाल करके पहले से ही ज़मीन बन रही थी। यह भी कहा जा रहा था कि कांग्रेस को सतर्क हो कर कदम बढ़ाना चाहिए था, पर उसने चूक कर दी। 
इसमें कोई शक नहीं कि कांग्रेस पुराने मैसूर के उन मुसलमान मतदाताओं को अपनी ओर खींचने के लिए बजरंग दल पर प्रतिबंध के आश्वासन का इस्तेमाल करना चाहती थी, जो आम तौर पर उसके और जनता दल (सेकुलर) के बीच बंट जाते थे और हुआ भी यही। ये मुसलमान मतदाता पहले से ही देवेगौड़ा की पार्टी द्वारा भाजपा के साथ चुनाव-उपरांत गठजोड़ करने के अंदेशे को समझ रहे थे। कांग्रेस के इस वायदे ने ‘ट्रिगर पाइंट’ का काम किया और उनका तकरीबन 75 प्रतिशत हिस्सा ‘हाथ’ पर बटन दबाने के लिए तैयार हो गया। प्रश्न यह है कि इसकी प्रतिक्रिया में कोई हिंदू-ध्रुवीकरण क्यों नहीं हुआ? जिसे ‘लूज़ बॉल’ माना जा रहा था, वह ‘मास्टर स्ट्रोक’ क्यों साबित हुआ?
इसका जवाब कन्नड़ समाज की सामाजिक संरचना और कर्नाटक के तटीय इलाकों में हुए हिंदुत्ववादी विचारधारा के प्रसार में देखा जाना चाहिए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रयासों से तटवर्ती कर्नाटक भगवाप्रस्त ज़रूर हो गया, लेकिन उसकी राजनीतिक अभिव्यक्तियां कभी गुजरात या उत्तर प्रदेश जैसे कट्टरपंथी हिंदुत्व में नहीं हुईं। वाई.एस. येदुयरप्पा लिंगायत समाज के अभी तक के सबसे बड़े जननेता माने जाते हैं, पर वे भाजपा के अंदर सक्रिय कट्टरपंथी लॉबी से कभी सहमत नहीं रहे। इस चुनाव के शुरुआती दौर में भी अ़खबारों को एक इंटरव्यू देकर उन्होंने हिजाब और जेहाद जैसी मुहिमों के प्रति अपनी नापसंदगी जाहिर की थी। भाजपा छोड़ कर गये जगदीश शेट्टार भी इसी तरह के लिंगायत नेता रहे हैं। कट्टरपंथी लॉबी बी.एल. संतोष कुमार और टी.एस. रवि (जो अपना चुनाव बुरी तरह से हार गए) के नेतृत्व में इन लिंगायत नेताओं को हमेशा परेशान करती रही। लिंगायतों के बीच हिंदुत्ववादी विचारधारा का असर कितना कमज़ोर था, इसका पता इस बात से लगाया जा सकता है कि जैसे भाजपा आलाकमान ने किसी लिंगायत को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाने से इन्कार किया, वैसे ही उन्होंने अपनी मतदान-प्राथमिकताओं पर पुन: विचार करना शुरू कर दिया। उन्होंने देखा कि कांग्रेस ने भी चालीस से ज्यादा लिंगायत उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है। इस पूरे सिलसिले का परिणाम यह निकला कि लिंगायत मतदाताओं के वोट अच्छी-़खासी संख्या में कांग्रेस के खाते में चले गए। इसने भाजपा के मुख्य जनाधार को तोड़ दिया।
संघ ने कर्नाटक के विश्वविद्यालयों के छात्रसंघों में अपना दबदबा कायम करके हिंदुत्व की राजनीतिक सफलता की शुरुआत की थी। लेकिन, अगर आज इन्हीं विश्वविद्यालय के परिसरों में जाकर भाजपा समर्थक छात्राओं से पूछा जाए कि वे हिजाब पर प्रतिबंध की समर्थक हैं या नहीं, तो उनका जवाब होगा कि मुसलमान छात्राओं को भी शिक्षा प्राप्त करने का ह़क है, और अगर वे हिजाब पहन कर पढ़ने आना चाहती हैं तो इसमें कोई बुरी बात नहीं है। भाजपा ने ओल्ड मैसूर के इलाके में यह प्रचार करने की पूरी कोशिश की कि टीपू सुल्तान की मृत्यु किसी अंग्रेज़ की तलवार से नहीं बल्कि एक वोक्कालिगा की तलवार से हुई थी। इस तरह वह चाहती थी कि वोक्कालिगाओं के बीच मुसलमान विरोधी भावनाएं भड़काई जाएं। लेकिन उसकी एक न चली। वोक्कलिगा मतदाताओं और मुसलमान मतदाताओं की बीच के सामाजिक संबंध खराब नहीं हुआ। दरअसल, वे जानते थे कि अंग्रेज़ों ने जो नरसंहार किया था, उसमें मुसलमानों के साथ-साथ वोक्कलिगाओं की खून भी बहाया गया था। 
कर्नाटक के हिंदू मुसलमान विरोधी ध्रुवीकरण के लिए तैयार नहीं हो सकते थे। उल्टे भाजपा के रणनीतिकारों को डर था कि कहीं हिंदू समुदायों में लिंगायत विरोधी ध्रुवीकरण न हो जाए। इसी डर से अमित शाह ने कहा था कि अगर भाजपा न किसी लिंगायत को मुख्यमंत्री के चेहरा घोषित कर दिया तो उसके खिलाफ गैर-लिंगायत एकजुट हो जाएंगे। प्रधानमंत्री ने मंच से जय बजरंगबाली के नारे खूब लगाए। भाजपा नेता आखिरी दिन तक हनुमान चालीसा का पाठ करके हिंदू गोलबंदी की कोशिश करते रहे। पर जिन मुद्दों पर कर्नाटक में चुनाव लड़ा गया— वे महंगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार और कुशासन के मुद्दे थे। दरअसल, कर्नाटक के चुनाव ने बता दिया है कि ये मुद्दे महज़ क्षेत्रीय या स्थानीय नहीं हैं। इन्हीं मुद्दों पर भाजपा हिमाचल प्रदेश और दिल्ली की महानगरपालिका में हार चुकी है। विपक्ष के रणनीतिकार चाहें तो देख सकते हैं कि इन मुद्दों की एक राष्ट्रीय अपील भी है। इन पर ज़ोर देने से एंटीइनकम्बेंसी (सरकार विरोधी भावना) को तीखा किया जा सकता है।


लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।