‘आपा-धापी का नया शब्दकोष’

हमें ़खबर मिली है कि देश में सांस्कृतिक पुनरुत्थान और अपनी खोई हुई गरिमा की तलाश कर उसे लौटा लाने के महान अभियान में नई पीढ़ी को मिलने वाली पाठ्य पुस्तकों में डॉरविन महोदय के विकासवाद के सिद्धांत को निकाल दिया गया है। इस सिद्धांत में हमें होश सम्भालते ही पढ़ाया जाता रहा है, कि इन्सान के पूर्वज कभी हज़ारों साल पहले बन्दर हुआ करते थे। ज्यों-ज्यों प्राणीवाद ने तरक्की की इन्सान चौपाये से दोपाया हुआ। उसमें शिक्षा, नैतिकता, ईमानदारी और आदर्शवादी हो जाने के गुण आने लगे, और वह बन्दर से तरक्की करता हुआ इन्सान बन गया।
लेकिन नई पुस्तकें अब शायद यही कहेंगी कि इन्सान कभी बन्दर था ही नहीं। अहंकार से ऊंचा हमारा यह भाल, स्वीकार क्यों करे कि हम कभी जानवर थे। हम तो रहे थे सदा ही असाधारण, देवताओं की सन्तान, सर्वगुणों से सम्पन्न, महलों गाड़ियों और आयातित गाड़ियों और बड़े प्रासादों के मालिक, और आप हमारे अतीत को जानवरों से विकसित हुआ बता रहे हैं? अरे, हम तो इस देश की उस तीन-चौथाई जनता में भी अपने आपको खड़ा नहीं करना चाहते, कि जिनकी रोटी-रोज़ी का कोई ठिकाना नहीं। रहने पहनने का कोई प्रबन्ध नहीं है। हमेशा वे उन रियायती दुकानों का ठिकाना तलाश करती है, कि जहां मोहब्बत की नहीं मुफ्तखोरी की दुकान चलती है, और हर सबह वोटों के मौसम में चन्द, महामानव यह फरमा रहे हैं, कि देखो हमने ऐसा देश बनाया है, जहां अस्सी करोड़ ठलुआ निट्ठल्ले रहते हैं। इनमें जीने के लिए कौड़ियों के भाव अनाज बंटता है। इनकी कतारें आजकल नौकरी दिलाने वाली संस्थानों के बाहर नहीं, नित्य नई अनुकम्पा बांटने वाले या प्रसारित करने वाले संस्थानों के बाहर लगती हैं। अब इन लोगों को बन्दर तो नहीं, कोई भी दीन हीन जीव-जन्तु मान लो, हमें इससे इन्कार नहीं। एतराज़ नहीं।
हमने अपने देश में उनके लिए एक दूसरा देश बना दिया है। इसमें वे जीते हैं या मरते हैं, इसकी ़खबर लेने की ज़रूरत हमें केवल स्थानीय से लेकर महाचुनावों के मौसम में होती है। इसके अतिरिक्त हमने इन्हें किसी को भी भूखा न मरने देने की गारंटी देकर निबटा दिया है। समय-समय पर इनके लिए धीरज बंधाने वाले आंकड़ों का भोजन भी परोस दिया जाता है, कि लो इस देश में कोई भूख से नहीं मरता। मरता है तो महामारी से मरता है। मनोवैज्ञानिक बीमारियों से मरता है।  इस देश में हमारा यह छोटा-सा देश जो इन वंचित प्रवंचितों के देश पर शासन करने के लिए पैदा हुआ है, उसे भला आप बन्दरों के वंशज कैसे कह सकते हैं? वे तो दैवी गुणों से आभूषित महामानव हैं। ये शासन करने और उत्तम जीवन जीने के लिए पैदा हुए थे, वे उसे जीते हैं, और अपना अलविदा का समय आ जाने के बाद उसे ही अपने वंशजों के लिए सुरक्षित कर जाते हैं, सैद्धांतिक रूप से वंशवाद को गाली देते हुए। अब ऐसे माहौल में हमारी जड़ों को बन्दरों से जोड़ देना कितनी बड़ी गुस्ताखी है। हां, अपने अतिरिक्त इस बाकी बचे देश को, जिन्हें हम अनुकम्पाओं और रियायतों से पटाते रहते हैं, उन्हें बन्दर कहिये या श्वान जाति का, इससे हमें भला क्या एतराज़।
लेकिन कभी-कभी जब इस समस्या पर गहन चिन्तन होता है, तो लगता है कोई भी निष्कर्ष जल्दबाज़ी में नहीं निकाल लेना चाहिये, कि हम तो देव-मानव हैं, और शेष सब बन्दर। बल्कि हमें तो लगता है कि डॉरविन महोदय के विकासवाद सिद्धांत का अगला अध्याय भी आजकल में ही लिख देना चाहिये। बन्दरों में एक विशेषता होती है कि वह दूसरे की टोपी छीन कर, उसे स्वयं पहन कर अपने आपको इस टोपी नुचे जनता जनार्दन से कहीं दूर स्थापित करके दांत किटकिटा कर हंसते हैं। क्या यहां अमृत महोत्सव मनाने के बाद भी टोपी नुची जनता की सर्वग्रासी अन्धेरे में भटकन, और दूर अवस्थित दांत निपोर कर हंसते बंदर गुणों से आभूषित महामानवों की किटकिटाहट आपको नज़र नहीं आती? ये अपने वंशजों, या अपने गिरोह या झुण्ड के हितों का संरक्षण करते हुए उन्हें सर्वहारा से दूर आरक्षित करने में लगे रहते हैं।
फिर सवाल उभरता है, आपने अपने अतीत के बन्दर सिद्धांत को तो नकार दिया, लेकिन उससे उभरते गुलाटीवाद को क्यों अपना लिया। आज कोई कहां खड़ा है, कुछ पता नहीं चलता। सिद्धांतों और प्रतिबद्धता की होली जला दल बदलने, सिद्धांतहीनता को अपना एक नया मुखौटा ओढ़ लेने में कोई परहेज़ नहीं करता। बल्कि यह गुलाटीवाद तो आज के जीवन का नया युगबोध बन गया, और सफलता का नया प्रतिमान। कोई जीवन में जितनी अधिक गुलाटी मार कर, ‘आज यहां कल वहां’ के नये यथार्थ को अपना जन्म सिद्ध अधिकार बताये, वही सफल है बन्धु। सफल भी ऐसा कि हथेली पर सरसों जमीं दिखा दे। हर पुराने मुहाविरे को गलत सिद्ध कर अपना आपा-धापी का एक नया शब्दकोष गढ़ दे। जिसमें वह स्वयं ही आप है, स्वयं ही सिद्ध। वे इसमें स्वयं ही अपनी पूजा-अर्चना और अपना प्रशस्ति गायन करते हैं, और नैतिकता, आदर्शों और मानव मूल्यों की पैरवी करने वालों को बूढ़े बन्दर कह कर नकार देते हैं।  लगता है कि डॉरविन महोदय के प्राणी विकासवाद को तो हमने नकार दिया, लेकिन बन्दरों के गुलाटीवाद को  हमने अपना लिया। इस बदलते हुये युग में आपाधापी का नया शब्दकोष शायद इसी सर्वमन्य होते शब्द से शुरू होता है, क्यों बन्धु?