मैं गद्दार तो नहीं हूं!

(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)

अश़फाक चला गया था। उसने उठ कर खिड़की से बाहर की ओर झांका था। बेशक बाहर पहले जैसा ही माहौल दिख रहा था, मगर बाहर सड़क पर से गुज़री दो-चार गाड़ियों को देख कर उसे कुछ अजीब-सा भी, महसूस हुआ था। उसकी आंखें हर गाड़ी में से कुछ नये यानि कुछ अलग की तलाश कर रही थीं। बेशक उसका ़खत सही हाथों में गया हो सकता है, फिर भी उसका क्या हश्र हुआ होगा, और अब अगली कार्रवाई क्या होगी, इसे लेकर उसके भीतर भारी कशमकश चल रही थी। अपनी होनी/अनहोनी को लेकर उसने बहुत कुछ सोच लिया था। एक घड़ी के लिए ऊपर वाली छत से नीचे गहराई वाली खड्ड में कूद जाने का मन भी हुआ था, परन्तु यह सोच कर उसने इस इरादे को तरक कर दिया कि मरने के बाद उसकी अपनी मिट्टी ही ख़्वार होगी...इस खानदान को तो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। 
तभी घर की नौकरानी रेशमा आई थी। घर की बड़ी राज़दार थी। तीसरी पीढ़ी से इसी घर में मौजूद रहा है इनका परिवार। बड़ी सजी-धजी थी। ़फहीम यार खां को यह एहसास भी देना था न, कि बाकायदा निकाह की रस्म होनी है। मौलवी की भूमिका एक बार फिर अश़फाक के चचाजान अशऱफ-उद-दीन के छोटे भाई स़ैफदीन ने अदा करनी थी। ऐसे मौकों पर शक्ल-ओ-सूरत से वह सचमुच मौलवी जैसे लगने लगते हैं।
रेशमा ने उसे जनानखाने में जाकर तैयार होने के लिए कहा था। वहां घर की कई ख़्वातीन मौजूद थीं। बाकायदा उसे दुल्हिन की मानिंद सजाया/संवारा गया। सऊदी से मंगाया लहंगा पहनाया गया। बाहों में ढेर सारी चूड़ियां पहनाई गईं। सोने के बड़े-बड़े कंगन, माथे का बड़ा-सा टिक्का, और नौबंदा हार पहनाये गये। ये गहने शायद ़फहीम यार खां अपने साथ लाया होगा। हलाल किये जाने वाले मेमने की तरह, खूब सजा-संवार लेने के बाद उसे मेहमानखाने की ओर ले जाया जाना था। जनानखाना से मेहमानखाने तक का रास्ता बेशक एक-दो मिनट का था, परन्तु इस दौरान ही उसने अपने भीतर आकाश-पाताल के कुलाबे मिला लिये थे। कैसा बर्ताव करेगा ़फहीम यार खां उससे इस बार? कितने दिन तक का रहेगा यह मेहमान? 
 सब सोचते-सोचते पता ही नहीं चला कि कब जनानखाना आ गया। उसे सजी-धजी चिक के इस ओर कालीन पर रखे मूड़े पर बिठा दिया गया। आस-पास घर-परिवार की कई औरतें बैठी थीं। उसने नज़रें उठा कर चिक के पार देखना चाहा था—दूल्हे जैसा सजा-धजा एक शख्स बैठा था... शायद  ़फहीम यार खां रहा होगा। अश़फाक भी वहीं बैठा था। ‘थू है तुम पर अश़फाक!’ उसने मन ही मन में कहा था। उसे अपने आप पर भी घिन आई थी। 
अपने मुल्क और अपनी कौम के खिल़ाफ इस पोशीदा जंग में इस घर का हर शख्स पूरी तरह से शऱीक रहा है। वह खुद भी तो आज तक इस गुनाह में जाने-अनजाने शुमार रही है हालांकि इस सबके लिए उसने कई बार शर्म-ओ-हया महसूस की है। कई बार उसके मन में आया भी, कि छत पर खड़े होकर वह चीख-चीख कर दुनिया को बताये, कि इस घर की ऊंची-ऊंची दीवारों के भीतर कितने नीच और ब़ेगैरत इन्सान बसते हैं, किन्तु उसकी चीख की पहली आवाज़ तो इस घर के लोगों में ही सुनी जाएगी...और फिर उसके बाद उसके साथ, और घर की दीगर खातून के साथ कैसा-कैसा जुल्म होगा, इसे ब्यां करने के लिए लफ़्ज़ भी तो नये-नये तलाश करने पड़ेंगे। इस एक मरहले पर इस घर की हर औरत मजबूर, बेबस और कमज़ोर है। इस घर की औरतों को सख्त पर्दादारी में रहना पड़ता है। घर से बाहर निकलने पर साथ गये मर्द की रज़ामंदी के बिना कोई औरत एक कदम भी किसी जानिब अकेले बढ़ा नहीं सकती। 
तभी चिक के दोनों और से मुबारिकों की आवाज़ों के साथ वह फिर अपने होश-ओ-हवास में लौट आई थी। मौलवी साहिब ने कब हमारी ‘हां’ कबूल करा ली, यह पता ही नहीं चला। बस, यही लफ़्ज़ कानों में पड़े थे— मुबारिक हो ़फहीम यार खां साहिब, निकाह मुबारिक हो। ...आपको भी मुबारिक हो यह निकाह आयशा बीबी।...भई, मिहर की रकम अदा कर दी जाए।


 (क्रमश:)