दुनिया की महान् सांस्कृतिक धरोहर है पुरी जगन्नाथ रथ यात्रा

जगन्नाथ से आशय जगत के नाथ या स्वामी श्रीकृष्ण से है। भारत के पूर्व में पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर हिंदुओं के चार मुख्य धामों में से एक है। अपने जीवनकाल में हर धार्मिक हिंदू कम से कम एक बार इस धाम की यात्रा करना चाहता है। पुरी का मशहूर जगन्नाथ मंदिर, वैष्णव सम्प्रदाय का मंदिर है, जो भगवान विष्णु के प्रमुख अवतारों में से एक भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित है। इस जगन्नाथ धाम में हर साल आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को भव्य भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा निकाली जाती है। तीन किलोमीटर लंबे जनसैलाब वाली इस रथ यात्रा में यहां पहुंचने वाला हर जगन्नाथ भक्त अपने हाथों से न सिर्फ यात्रा के इन रथों को छूना चाहता है बल्कि तीन किलोमीटर लंबी इस यात्रा में हर कोई कुछ दूर तक रथ भी खींचना चाहता है। 
इस रथ यात्रा में तीन रथ शामिल होते हैं। एक रथ भगवान जगन्नाथ का होता है, इस बार का यह रथ 45 फीट ऊंचा है और इसमें 16 पहिये लगे हुए हैं। इस रथ का नाम नंदीघोष है। दूसरा भगवान बलभद्र का रथ है, जो 45.6 फीट ऊंचा है और इसका नाम तालध्वज है। तीसरा देवी  सुभद्रा का रथ है, जिसे देवदलन कहा जाता है, इसमें 12 पहिए हैं और यह 44.6 फीट ऊंचा होता है। इन तीन रथों में सबसे आगे दाऊ बलभद्र का रथ होता है, बीच में देवी सुभद्रा और सबसे पीछे भगवान जगन्नाथ का रथ होता है। मूल जगन्नाथ रथ यात्रा तो पुरी में निकलती है, लेकिन ठीक इन्हीं तिथियों को देशभर में बहुत सी जगहों पर जगन्नाथ रथ यात्रा का आयोजन किया जाता है। लेकिन पुरी की जगन्नाथ रथ यात्रा की भव्यता कुछ और ही होती है। इसमें शामिल होने के लिए पूरी दुनिया से कृष्ण भक्त पुरी पहुंचते हैं और हर किसी की तमन्ना होती है कि वह रथ को अपने हाथों से खींचे, क्योंकि मान्यता है कि जगन्नाथ रथ यात्रा में शामिल होने और रथ को अपने हाथों से खींचने वाले को 100 यज्ञों के बराबर का पुण्य मिलता है। 
इस रथ यात्रा की परंपरा के पीछे कई कहानियां हैं। एक के मुताबिक राजा इंद्रद्युम ने भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा की मूर्तियां बनवायी। रानी गुंडिचा ने विश्वकर्मा द्वारा इन मूर्तियों को बनाते समय देख लिया। जिस कारण मूर्तियां अधूरी रह गईं। इस पर तब आकाशवाणी हुई कि भगवान इसी रूप में स्थापित होना चाहते हैं। इस कारण इन अधूरी मूर्तियों को स्थापित कर दिया गया। मूर्तियों के स्थापित करते समय फिर आकाशवाणी हुई कि भगवान जगन्नाथ साल में एक बार अपनी जन्मभूमि मथुरा ज़रूर जाएंगे। स्कंद पुराण के मुताबिक कहा जाता है कि राजा इंद्रद्युम ने आषाढ़ शुक्ल द्वितीया के दिन प्रभु के उनकी जन्मभूमि जाने की व्यवस्था की थी, तभी से यह रथ यात्रा प्रतीक के तौर पर हर साल होती है।
एक दूसरी कथा है कि एक बार देवी सुभद्रा ने भगवान श्रीकृष्ण से नगर भ्रमण की इच्छा जतायी, तो भगवान श्रीकृष्ण और दाऊ बलराम ने अलग-अलग रथों पर सवार होकर अपनी बहन को नगर भ्रमण कराया। कुछ लोगों के मुताबिक तभी से जगन्नाथ रथ यात्रा निकलती है, तो कुछ लोग इसके पीछे एक तीसरी कथा भी जोड़ते हैं। माना जाता है कि भगवान जगन्नाथ साल में एक बार गर्भगृह से निकलकर अपनी प्रजा का हाल जानने के लिए भ्रमण पर जाते हैं और इस दौरान वह अपने भक्तों के मध्य रहते हैं। इस यात्रा का जो प्रारूप है, उसके मुताबिक पुरी के मुख्य मंदिर से यह यात्रा शुरु होती है और 3 किलोमीटर दूर स्थित मौसी गुंडिचा के मंदिर में समाप्त होती है। वहां पर तीनों लोग 7 दिन बिताते हैं। इसके बाद यात्रा वापसी के लिए शुरु होती है। रथ यात्रा के आरंभ में राजाओं के वंशज भगवान जगन्नाथ के रथ के आगे सोने के हत्थे वाले झाड़ू से रास्ता साफ करते हैं और पूरे विधि-विधान के साथ यह रथ यात्रा आगे बढ़ती है। 
इस साल 20 जून 2023 को इस यात्रा की शुरुआत होगी और 8वें दिन यानी 28 जून बुधवार को इस यात्रा की वापसी होगी यानी इस दिन यह यात्रा गुंडिचा मंदिर से पुरी के जगन्नाथ मंदिर की ओर जायेगी। माना जाता है कि इस यात्रा का इतिहास 5000 सालों से भी ज्यादा पुराना है। इस यात्रा में भाग लेने के लिए हर साल लाखों की तादाद में देसी, विदेशी भक्त आते हैं। जिस तरह प्रयागराज में हर 12 साल पर होने वाले महाकुंभ से नगर के लोगों की अगले कई सालों तक की आर्थिक कमाई हो जाती है, उसी तरह एक पखवाड़े की इस यात्रा के लिए हर साल पुरी में कम से कम 15 से 20 लाख देसी, विदेशी लोग आते हैं, जिस कारण पुरी की आर्थिक कमाई पूरे साल के लिए हो जाती है। रथ यात्रा के दौरान न सिर्फ पुरी में बल्कि उसके इर्दगिर्द कई सौ किलोमीटर दूर तक होटलों में जगह नहीं मिलती। सराय और धर्मशालाओं में तो पहले ही लोग डेरा जमा लेते हैं। लोगों के घरों में भी इस दौरान बहुत बड़ी संख्या में तीर्थयात्री रूकते हैं।


-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर