रूस के बदलते हालात

रूस-यूक्रेन युद्ध लम्बा खिंचता चला गया है। शुरू में लगता था कि रूस अधिक शक्ति सम्पन्न है। यूक्रेन देर तक सामना नहीं कर पायेगा। सम्भव है कि 15 दिनों में यूक्रेन अपनी पराजय स्वीकार कर ले, परन्तु ऐसा हुआ नहीं। युद्ध लम्बा खिंचता चला गया और विनाश भी अधिक हुआ। हज़ारों लोग मारे गये। हज़ारों विस्थापित हुए। शहरों के शहर तबाह हो गये। विनाश लीला अभी थमी नहीं। अधिक घबराहट परमाणु हथियारों को लेकर है। अगर युद्ध इस स्तर पर पहुंच जाता है तो महा-विनाश को कोई रोक नहीं सकता। युद्ध शुरू करना आसान है परन्तु उसे खत्म करना बेहतर कठिन।
पिछले दिनों जो कुछ हुआ, वह और भी हैरान कर देने वाला है। व्लादिमीर पुतिन के साइबर हैकर और भाड़े के सेनानायक येवगेनी प्रिगोझिन ने पुतिन के खिलाफ ही हमला बोल दिया। प्रिगोझिन की सेना रूस की ही राजधानी पर नियंत्रण करने के लिए आगे बढ़ीं। रास्ते में उन्होंने कुछ रूसी सैन्य हैलीकाप्टरों को मार गिराया। उनका ऐसा हल्का प्रतिरोध था कि इंटरनेट पर प्रिशोबिन के सैनिकों की तस्वीरें नज़र आ रही थीं। इन तस्वीरों में वे कॉफी खरीदने के लिए आराम से पंक्ति में खड़े नज़र आ रहे थे, परन्तु जब प्रिशोजिन के सिपाही मास्कों से एक सौ बीस किलोमीटर दूर ही होते हैं, उन्हें अचानक महसूस होने लगता है कि राजमार्ग पर उनकी सैन्य टुकड़ी किसी भी समय हवाई हमले का शिकार हो सकती है। इससे पूर्व कि वे सुलह की बात तय कर पाते वेलारूस के राष्ट्रपति मध्यस्थ की भूमिका के लिए आगे आये। बस इसी के साथ प्रिशोबिन की बगावत धरी रह जाती है। सभी चुपचाप घरों को लौट जाते हैं जिसे सिविल वार का नाम दिया गया। वह शुरू के साथ ही खत्म हो गई। लेकिन इस घटना से असन्तोष ज़रूर झलकता है। यह असन्तोष कई सवालों को जन्म दे सकता है। पहला बड़ा सवाल है कि क्या अब पुतिन अप्रासंगिक हो गये हैं जिस महा-शक्ति के नाम से कितने ही देशों के उच्चाधिकारी कुछ सोचने को विवश हो जाते रहे हैं क्या उनके पहले जैसे दिन नहीं रहे। कोई पहले से अनुमान लगाना ़खतरे से खाली नहीं है। पुतिन को खारिज करना बेहद मुश्किल सोच है। हम सिर्फ शक्ति संतुलन का जायज़ा ले सकते हैं। इसका दूसरा पक्ष यह है कि अब विद्वान पत्रकार राष्ट्रपति बाइडन को बधाई दे रहे हैं कि उन्होंने यूक्रेन में पुतिन का सामना करने के लिए एक व्यापक और कुछ मज़बूत गठजोड़ बनाया कि पुतिन के किये दावे उतने कारगर साबित नहीं हो पाये। बाइडन की दृष्टि में पुतिन अमरीका विरोधी, लोकतंत्र विरोधी और अलग छोर पर खड़े नज़र आ सकते हैं, जिनसे बातचीत कर किसी मसले का हल नहीं निकाला जा सकता। प्रियोबिन की बगावत से उनके पास एक अवसर है पुतिन को गलत और खुद को सही साबित करने का। वे ज़रूर पुतिन की कमज़ोरियां ढूंढ कर उन्हें प्रचारित करने की कोशिश में होंगे।
कुछ लोगों के पास यह कहने का अवसर है कि पुतिन राष्ट्रवाद की आड़ में धन-बल और डर दिखा कर राज्य संचालन करते रहे हैं। कुछ विश्लेषक कहेंगे कि पुतिन का डर या रुतबा वैसा नहीं जैसा पहले था। चीज़ें बिल्कुल यही नहीं हैं जो दिखाई जा रही हैं। हम पुतिन की योग्यता को सिरे से रद्द नहीं कर सकते। 1990 के दशक में सोवियत संघ का विघटन हुआ तब एक बार रूस अराजकता की हालत में चला गया था। उस समय असमंजस के समय से चीज़ों को व्यवस्थित करना, उस बिखराव को समेटना, हालात को मामूल पर लाना और फिर ज़माने भर के विरोध के बावजूद अपने विचार पर अडिग रहना पुतिन का ही काम था। भारत के लिए उन्होंने सदा मैत्रीपूर्ण रिश्ते निभाये हैं। उनके मुल्क में उनकी जनता ने उन्हें हमेशा सम्मान दिया है। अब दुनिया के साथ वह अपने संबंध कैसे रखते हैं कैसे उनका निर्वाह करेंगे यह वक्त ही बताएगा। क्योंकि युद्धकालीन हालात विचारधारा को भी प्रभावित करते हैं और युद्ध एक ऐसे मोड़ पर आ पहुंचा है कि न छोड़ते बनता है न आगे ले जाने का कुछ सार्थक नज़र आ रहा है।