चीता परियोजना के प्रबंधन पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत

चीता परियोजना का उद्देश्य दूरगामी और महत्वपूर्ण है। दुर्भाग्यवश कुछ लोग इसकी महत्ता को समझ और स्वीकार नहीं पा रहे। ऐसे लोग इसे महिमामंडन, गर्वबोध और प्रचार के लिये नुमाइशी इवेंट बताते हैं। ऐसे लोग संभवत: अंग्रेज़ों द्वारा भारत में ट्राउट मछलियों को बसाने के प्रयास से परिचित नहीं हैं। अंग्रेज़ों को यहां अपने देश की खास मछली का स्वाद बहुत सताता था। उन्होंने अत्यंत विपरीत परिस्थितियों में उसके अंडे पानी के जहाज़ से मंगवाए और कई बार असफल होने के बावजूद वे देश के ठंडे इलाकों में ट्राउट मछलियां पैदा करने में कामयाब रहे। यह ठीक है कि अफ्रीका से लाये गये 20 चीतों में से 8 नहीं बचे, परन्तु यह बात तो पहले ही तय थी कि प्रतिस्थापन के प्रथम वर्ष इनकी मृत्यु दर 50 फीसदी तक हो सकती है। भविष्य में मृत्यु दर सामान्य और स्थिर हो जाएगी। ऐसे में इतनी हाय तौबा मचाना ठीक नहीं। चीतों की मौत अफसोसजनक है। इसके कारकों, कारणों पर बात होनी ही चाहिये परन्तु जिस तरह पूरी परियोजना को ही अव्यवाहारिक व निरर्थक बताया जा रहा है, वह उचित नहीं। 
चीता परियोजना निश्चित ही 75 साल पहले देश से विलुप्त हुये चीतों को फिर से यहां बसा देगी। संभव है कि अफ्रीकन चीते भारतीय वातावरण में पलकर भविष्य में यहां के अनुकूल एक नई प्रजाति का निर्माण करें। चीता परियोजना वन और वन्यजीव प्रबंधन में सुधार का सबब बन सकती है। परियोजना की सफलता-असफलता भविष्य के गर्त में है, परन्तु यह किसी दल की परियोजना नहीं बल्कि देश का एक दीर्घकालिक प्रयास है। तथापि कुछ गलतियां और लापरवाहियां हो सकती हैं, परन्तु कामना होनी चाहिये कि परियोजना अपने उद्देश्य और लक्ष्य में सफल हो। परियोजना के परिचालन और चीतों के पुनर्वासन की प्रक्रिया पर प्रश्न उठाए जा सकते हैं और यह ज़रूरी भी है क्योंकि इन्हीं प्रश्नों के उत्तर तलाशने के दौरान वर्तमान असफलता को दूर करने का मंत्र मिल सकता है, नयी दिशाएं खुल सकती हैं। परियोजना की आलोचना में दिक्तत नहीं, परन्तु यह हतोत्साह करने की बजाय सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ हल ढूंढने की सार्थक दिशा में होनी चाहिये। सुप्रीम कोर्ट ने पहले मना करने के बाद इसकी मंज़ूरी तीन साल पहले दी थी। तब से नामीबिया से चीते लाने अधिकारी और स्टाफ ट्रेनिंग के लिये वहां भेजने, दक्षिण अफ्रीका के विशेषज्ञों को यहां बुलाने वगैरह में सैकडों करोड़ खर्च हुये हैं और परियोजना वैसे भी तकरीबन हजारों करोड़ की है। जनता की कमाई का इतना पैसा लगा है तो जनता, उसके नुमाइदों का प्रश्न पूछना तो बनता है।
नेशनल वाइल्ड लाइफ  एक्शन प्लान (2017-2031) में चीता परियोजना के समावेश न होने के बावजूद इसे आनन-फानन में अपनाने के पीछे क्या मकसद है? आखिर पुनर्वास चीतों का ही क्यों? देश की पहचान रहे अन्य महत्वपूर्ण विलुप्तप्राय जीवों का क्यों नहीं? शियाटिक लायन को बसाने, ग्रेट इंडियन बस्टर्ड को बचाने के लिए धन और परियोजनाएं क्यों नहीं? खतरे में पड़ी एशियाई शेरों की प्रजाति का संरक्षण हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिये थी। एशियाई शेर दुनिया में लगभग 700 ही बचे हैं और चीते 7000। शेरों की स्थानीय प्रजाति को संरक्षण देने की बजाय अफ्रीकी चीतों के प्रति मोह सवाल उठाता है। चीता यहां प्राचीन समय से रहने के बावजूद न तो देश की पहचान रहा न ही यहां बहुत बड़ी संख्या में रहा। चीता आमतौर पर कीनिया और ईरान से मुगल शाहंशाहों को उपहार स्वरूप मिला था। शिकार तथा काले हिरन को मारने में बतौर पालतू शिकारी इस्तेमाल किया गया। क्या उसकी वापसी इसलिए कि वह शाहंशाही ताकत का प्रदर्शन करने वाले मेगा इवेंट के लिए मुफीद है। जो छवि अफ्रीकी चीता से बन सकती है, वह इंडियन बस्टर्ड से नहीं। चीता लाने में अचानक इतनी जल्दबाजी क्यों की? यहां पहले पाए जाने वाले एशियायी चीतों की बजाय अफ्रीकी चीतों को क्यों लाया गया? 
चीते के तमाम तरह की भौगोलिक परिस्थितियों के अनुकूलन में सफल रहने के बावजूद बड़े घास के मैदानों और ज्यादातर चटियल सतह वाला कूनो जो अफ्रीकी चीते का प्राकृतिक आवास नहीं माना जा सकता, जहां उसके शिकार करने हेतु जानवर नहीं के बराबर हैं, जबकि उसे शिकार बनाने के लिए कई हैं। कूनो नेशनल पार्क की वहन क्षमता को बढ़ा-चढ़ाकर क्यों पेश किया गया जबकि यह दस चीतों के लिए भी छोटा है। यहां 20 अफ्रीकी चीते किस हिसाब से छोड़े गये? मुकुंदरा या गांधी सागर का विकल्प क्यों नहीं सोचा गया? जब सुप्रीम कोर्ट ने अफ्रीकी चीतों को न लाने को कहा, तब नेशनल टाइगर कंज़र्वेशन अथॉरिटी ने आश्वासन दिया था कि चीतों को उचित परिवेश में बसा कर उनकी देखभाल के साथ यह देखते रहेंगे कि वे भारतीय परिस्थिति के साथ कितना अनुकूलन कर पा रहे हैं। कोर्ट ने आदेश को स्वीकार कर इस दावे को जांचने के लिए कमेटी बना दी, परन्तु आज तक  कमेटी की वर्तमान स्थिति पर क्या राय है, पता नहीं।
विशेषज्ञों की इस बात पर कान न देना सवाल खड़े करता है कि अफ्रीकी चीता देश के जंगलों में प्राकृतिक तौर पर नहीं पनप पायेगा। उसे 4 मीटर ऊंची बाड़ से घिरे 100 से 200 वर्ग किलोमीटर की जगह में रखकर खुद ही शिकार, भोजन देना होगा। खुद शिकार देंगे तो बकरी, भैंस वगैरह जबकि उसे छोटे जानवरों का शिकार पसंद है। ऐसे परिवेश में पोषित चीते कभी खुले जंगल में रह नहीं पायेंगे। अगर ऐसा भविष्य है तो परियोजना का उद्देश्य ही समाप्त हो जाएगा क्योंकि एक तो चीते बंधे माहौल में प्रजनन न के बराबर करते हैं और दूसरी बात चीतों को उच्च शावक मृत्यु दर का सामना करना पड़ता है। उम्मीद थी 30 साल मे 15 से 20 चीते बढ़ जाएंगे परन्तु इससे यह आशा भी धूमिल पड़ जाती है। आखिर 8 चीतों की मौत के बाद सरकार चीता परियोजन के अपने उद्देश्य और लक्ष्य में सफल रहे, इसके बारे में नये सिरे से क्या कोई विचार कर रही है, कोई योजना बना रही है? क्या वह अफ्रीकी विशेषज्ञों के सम्पर्क में है और वह चीतों को मौसम रास न आने, गर्मी, तनाव, सैप्टीसेमिया, संक्रमण, कॉलर आईडी इंफेक्शन तथा रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होने जैसी वजहों से चीतों की मौतों के बाद अब उनके संरक्षण तथा सुरक्षा के कोई उपाय सुझा रही है, यह सार्वजनिक करना चाहिये। अब यह तय किया जाना चाहिए कि चीता परियोजना को  भारत के पारम्परिक संरक्षण पद्धति के अनुरूप चलना है अथवा किसी दूसरे नए मॉडल के अनुसार। अफ्रीका से अगली चीतों की खेप आने से पहले चीता परियोजना के वर्तमान प्रबंधन पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर