लड़कियों की शिक्षा उन्नत समाज की पहचान

भारत में मदरसा सुधार को लेकर बातचीत काफी समय पहले से हो रही है जोकि आज भी जारी है। भारत सरकार मदरसा सुधार के लिए पहले भी प्रयत्नशील रही है। सन् 1986 में भारत सरकार ने मदरसों के आधुनिकीकरण के लिए एक कार्यक्रम रखा। पहले केवल दीनी तालीम पर ही ज़ोर दिया जाता था परन्तु अब दूसरे विषयों जैसे विज्ञान, गणित, अंग्रेज़ी, हिन्दी आदि विषयों की तालीम देना ज़रूरी समझा गया। इसी सिलसिले में आगे बढ़ते हुए 1998 में भारत सरकार ने मदरसों के आधुनिकीकरण और वहां की शिक्षा से हासिल डिग्रियों को मान्यता दिये जाने के लिए मदरसा आधुनिकीकरण कार्यक्रम की शुरुआत की जिसे गुणवत्तापूरक शिक्षा प्रदान करने की योजना कहा जाता है (एस.पी.क्यू ई.एम.)। मौजूदा समय में देश के अनेक राज्यों में केन्द्र की सहायता से इस कार्यक्रम को चलाया जाता है। राज्यों ने इसके लिए मदरसा बोर्ड की स्थापना की है। एस.पी.क्यू.ई.एम. एक डिमांड बेस योजना है जिसके अन्तर्गत मदरसों में आधुनिक विषयों को पढ़ाने के लिए विशेष वित्तीय सहायता, शिक्षकों के लिए प्रशिक्षण तथा मदरसा विद्यार्थियों को राष्ट्रीय मुक्त विद्यालयी शिक्षा संस्थान (एन.आई.ओ.एस.) व अन्य संस्थानों के साथ जोड़ने का प्रावधान भी है। यह शिक्षक केन्द्रित योजना है जिसके तहत शिक्षा के आधुनिकीकरण को सामने रखते हुए शिक्षकों को मानदेय देने की व्यवस्था है।
आंकड़ों से पता चलता है कि इन मदरसों में लड़कियों की संख्या अधिक है और अधिक संख्या में युवा महिलाएं शिक्षण तथा साथ ही प्रबन्धन की भूमिका में आगे आ रही हैं। इससे  उन महिलाओं को रोज़गार मिला और साथ ही घर से बाहर निकलने का अवसर मिला जो घरों के सीले अंधेरे में एक तरह से कैद ही थीं। जैसा कि आप जानते ही हैं मौलाना आज़ाद भारत देश के पहले शिक्षा मंत्री थे। उनका एक सपना था कि शिक्षा का जनतांत्रिकरण हो, साथ ही जाति समुदाय या वर्ग के भेदभाव के बिना पूरे भारतीय समाज में सभी को शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध हों, परन्तु व्यवहारिक स्तर पर स्वतंत्रता प्राप्ति के आठ दशक बीत जाने पर भी इस सपने को साकार न किया जा सका। आज भी पिछड़ी जातियों व मुस्लिम समुदायों के लोग अन्य देश के नागरिकों की अपेक्षा शिक्षा के प्रकाश का अधिक लाभ उठाने में वंचित देखे गये हैं। आंकड़े भी यही बताते हैं कि 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में सबसे अधिक 42.72 प्रतिशत मुसलमान निरक्षर हैं जिसमें 48 प्रतिशत महिलाएं हैं। मुस्लिम समुदाय में 2.8 प्रतिशत लोग ही स्नातक हैं जिनमें मुस्लिम महिलाओं की स्थिति ज्यादा खराब है। केवल 0.81 प्रतिशत महिलाएं ही स्नातक हैं।
मौजूदा हालात में भी लड़कियों की पढ़ाई के रास्ते लड़कों की जगह कम खुलते हैं। नैशनल फैमिली हैल्थ सर्वे-5 के आंकड़े बताते हैं कि 71 प्रतिशत महिलाएं और 84 प्रतिशत पुरुष साक्षर हैं। इसी प्रकार 41 प्रतिशत महिलाएं ही 10वीं और उससे आगे की पढ़ाई पूरी कर पाती हैं जबकि पुरुषों के मामले में यह दर 50 प्रतिशत से अधिक है। शिक्षा के मामले में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति और भी खराब नज़र आती है। 25 प्रतिशत महिलाएं कभी स्कूल ही नहीं गईं। वहीं मात्र 18 प्रतिशत मुस्लिम महिलाएं ही ऐसी हैं जिन्होंने 12वीं तक या उससे ज्यादा पढ़ाई की है। इतना ही नहीं करीब 30 प्रतिशत से ज्यादा मुस्लिम महिलाएं तो ऐसी हैं जो कुछ भी पढ़-लिख पाने के योग्य भी नहीं हैं।
मदरसों के आधुनिकीकरण को लेकर बहस अभी जारी है। इस्लामिक दृष्टिकोण है जिसमें इस्लाम की भावनाओं के आधार पर दीनी और दुनियावी शिक्षा के भेद को समाप्त करने की वकालत की जाती है। कुछ विद्वान मदरसों को आधुनिक बनाने की जगह अच्छे स्कूल खोलने पर ज़ोर दे रहे हैं। उनके अनुसार मदरसे की बजाय अल्प-संख्यक समुदाय की शिक्षा को उच्च प्राथमिकता दिये जाने की ज़रूरत है। कुछ लोग धार्मिक शिक्षा के साथ आधुनिक शिक्षा के संतुलन पर ज़ोर दे रहे हैं।
यह बात तो ठीक है कि मदरसों में पढ़ाने के कारण युवा शिक्षिकाओं को घर से निकलने का अवसर मिला है और रोज़गार मिलने से आत्म-विश्वास में भी इज़ाफा हुआ है। वे शिक्षा को महत्त्वपूर्ण मानती हैं और सार्थक ढंग से इसका प्रचार भी कर सकती हैं। वे खुद की छोड़ी गई पढ़ाई को भी आगे ले जा सकती हैं। महिलाओं का शिक्षित होना देश, समाज के विकास के लिए अनिवार्य है।