ममता कर सकती हैं आम चुनावों में प्रधानमंत्री का मुकाबला ?

दुबई एयरपोर्ट पर हुई एक मुलाकात के दौरान पड़ोसी देश श्रीलंका के राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे ने यह कह कर कि ममता ही आई ‘इंडिया’ का नेतृत्व करने वाली हैं,  देशी-विदेशी मीडिया को संकेत दिया कि आगामी लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे के बरक्स विपक्ष का कौन सा चेहरा सामने हो सकता है? जी हां, उनके अनुसार यह ममता बनर्जी होंगी। इसमें किसी को आश्चर्य भी नहीं होना चाहिए। ‘इंडिया’ को निशाने पर रखने वाले केसरिया रंग के नेताओं को भले ऐसा लगता हो कि विपक्षी गठबंधन के पास कोई एक ऐसा नेता नहीं है, जो चुनाव जीतने की स्थिति में प्रधानमंत्री की जिम्मेदारी ले सके। इसके विपरीत विपक्षी गठबंधन में शामिल सभी राजनीतिक दल अपने-अपने नेता को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं। यह बात काफी हद तक सही भी हो सकती है। जब इतनी पार्टियां एक साथ आएंगी तो सभी अपने नेता को प्रधानमंत्री के रूप में देखना 
भी चाहेंगी। 
इस मामले में गठबंधन का सबसे बड़ा घटक होने के नाते कांग्रेस का दावा स्वाभाविक रूप से सबसे मज़बूत भी है, मगर कांग्रेस ने बहुत पहले ही यह साफ कर दिया था कि वह नेतृत्व की दौड़ में कहीं नहीं है। गठबंधन की जीत की स्थिति में नेता का चुनाव सांसदों के बहुमत के आधार पर तय किया जाएगा। कांग्रेस के नेतृत्व की दौड़ से बाहर होने के ऐलान के बाद जदयू नेता नितीश कुमार, मराठा नेता और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार तथा बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी नेतृत्व के स्वाभाविक दावेदार हैं। ऐसे में तृणमूल कांग्रेस की सांसद शताब्दी राय का कहना यह ठीक है कि तृणमूल कांग्रेस की नेता नेता ममता बनर्जी को यह जिम्मेदारी सौंपी जानी चाहिए। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि शरद पवार व नितीश की तुलना में ममता बनर्जी बेहतर विकल्प हैं। इसके दो प्रमुख कारण हैं। एक तो यह कि ममता ने पूरे जोर शोर के साथ भाजपा को बंगाल में आगे बढ़ने से रोककर रखा है, और दूसरा कारण यह कि नेतृत्व के संदर्भ में जितनी आक्रामकता ममता बनर्जी में है, उतनी आक्रामकता कांग्रेस को छोड़कर ‘इंडिया’ के किसी भी घटक दल के नेता में नहीं है। 
ममता बांग्ला के अलावा हिन्दी और अंग्रेजी में भी धाराप्रवाह संवाद कर सकती हैं। सबसे बड़ी बात यह कि उनकी सरकार समाज के दलित, आदिवासी  और पिछड़े तबके के हित को अपनी प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर रखती है। इसके बरक्स अगर हम बात मराठा नेता शरद पवार की करें तो उनके साथ दिक्कत यह है कि वो महाराष्ट्र में अपनी पार्टी को ही एकजुट करने में सफल नहीं हो सके। सत्तासुख की चाह में उनके भतीजे ने ही पार्टी को दो फाड़ कर दिया। उनके पास सरकार चलाने का अनुभव तो बहुत है, लेकिन अपने स्वास्थ्य और बढ़ती उम्र के कारण उनसे अब ज्यादा भागा दौड़ी की उम्मीद नहीं की जा सकती। बात अगर नितीश कुमार की करें तो वह स्वास्थ्य और उम्र के हिसाब से तो एकदम फिट हैं, लेकिन लोग यह भी जानते हैं कि पिछली बार भाजपा के समर्थन से ही वो बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे थे। भाजपा से अलग होने के बाद अगर लालू यादव की पार्टी राजद और उनके बेटे ने नितीश कुमार का साथ न दिया होता, तो वह आज बिहार के मुख्यमंत्री नहीं होते। इस तरह अगर देखा जाए तो मौजूद विकल्पों में सिर्फ तृणमूल कांग्रेस और उसकी नेता ममता बनर्जी ही गठबंधन की जीत के पहले की ऐसी नेत्री हैं, जिनके हाथ में गठबंधन के नेतृत्व की बागडोर सौंपी जा सकती है और उनका चेहरा भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन की आक्रामकता का बराबरी की ताकत से मुकाबला करने के लिए आश्वस्त भी करता है। इसे भाजपा के नेतृत्व वाला राजग गठबंधन भी अच्छी तरह से जानता है। 
यही कारण है कि अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, उनकी पार्टी के नेता और सरकार के मंत्री विपक्ष के एकजुट होने से और ममता बनर्जी के संभावित नेतृत्व से घबराए हुए हैं। अगर विपक्षी गठबंधन में सब ठीक ठाक रहा तो भाजपा के लिए 2024 का चुनाव जीत पाना कठिन हो जाएगा। सत्तारूढ़ पार्टी की इसी घबराहट ने किसी तरह ‘इंडिया’ में फूट डालने की कोशिशें तेज़ कर दी हैं। भाजपा के बड़े और बुजुर्ग नेता इस सच्चाई को अच्छी तरह से समझते हैं कि जिस तरह 1977 में, उस समय के विपक्ष ने एकजुट होकर तत्कालीन कांग्रेस सरकार को उखाड़ फेंका था, उसी तरह इस बार भी विपक्ष की एकता भाजपा के एक दशक पुराने साम्राज्य को बाहर का रास्ता दिखा सकती है। इसी चिंता में भाजपा और सरकार अपने गोद लिए हुए मीडिया के माध्यम से विपक्षी गठबंधन के खिलाफ प्रचार करने का कोई भी अवसर हाथ से नहीं जाने देना चाहते। एक बात और है कि 1977 में जब विपक्षी एकता ने कांग्रेस को बाहर का रास्ता दिखाया था, तब देश में न तो मीडिया का इतना प्रसार हुआ था और न ही सोशल मीडिया के नाम से अजीबोगरीब किस्म के मीडिया का आविष्कार हुआ था। तब ले देकर कुछ अखबार और सरकारी नियंत्रण वाले रेडियो व टेलिविजन के अलावा कुछ नहीं था।
सत्ता पक्ष एकजुट हुए विपक्ष से डरकर हर समय उसमें फूट डालने की कोशिशों में लगा रहता है। इसी का नतीजा है कि पिछले दिनों जी-20 समूह देशों की बैठक के दौरान राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा दिए गए रात्रि भोज में ‘इंडिया’ के कुछ मुख्यमंत्रियों के शामिल होने के मामले को गोदी मीडिया ने सरकार के इशारे पर बिना वजह तूल देने की कोशिश की थी। इस मामले में गलती की शुरुआत वैसे बंगाल के कांग्रेस के एक नेता अधीर रंजन चौधरी की तरफ से हुई थी। अधीर रंजन चौधरी आज भी स्थानीय स्तर पर ममता बनर्जी और उनकी तृणमूल कांग्रेस पार्टी को ही अपना मुख्य प्रतिद्वंदी मानते हैं। यही वजह है कि जब कभी भी मौका मिलता है तो वह ममता बनर्जी के खिलाफ राजनीतिक बयानबाजी पर उतर आते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो वह राष्ट्रपति के भोज में ममता बनर्जी के शामिल होने पर सवाल नहीं उठाते, क्योंकि इस भोज में नितीश कुमार, हेमंत सोरेन, सुखविंदर सिंह सुक्खू और ममता बनर्जी भी शामिल हुई थीं, लेकिन अधीर रंजन चौधरी ने ममता बनर्जी को ही निशाने पर लिया।  
अधीर रंजन चौधरी और सत्ता समर्थक मीडिया व राष्ट्रपति के डिनर को मुद्दा बनाये जाने से ‘इंडिया’ कमजोर तो बिल्कुल नहीं हुआ है, लेकिन बीच-बीच में जब कभी दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल यह कह देते हैं कि पार्टी लोकसभा में तो विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के साथ है, लेकिन राज्य विधानसभा के चुनाव वो अकेले अपने दम पर लड़ेंगे तो विपक्षी गठबंधन की कमजोर कड़ी सामने दिखाई देने लगती है। द्रमुक नेता स्टालिन  की आलोचना करने वाले राजग के नेता यह भूल जाते हैं कि दक्षिण विशेषकर तमिलनाडु की पूरी राजनीति ही द्रविड़ आंदोलन पर टिकी हुई है। राजग के इन नेताओं को इस बात का शायद अंदाजा भी नहीं है कि एक जमाने में इस क्षेत्र में दलितों पर इतने ज्यादा अत्याचार हुए थे, जिससे तंग आकर ही द्रविड़ आंदोलन की शुरुआत हुई थी। इसी आंदोलन की सफलता की वजह से ही द्रमुक जैसी पार्टियां वहां वजूद में आई थीं। स्टालिन उसी सामाजिक विषमता से पनपी राजनीति के संदर्भ में सनातन धर्म की बुराइयों का उल्लेख कर रहे थे, लेकिन ममता बनर्जी ऐसे मामलों में परिपक्व हैं। वह इस तरह की गलतियां नहीं करती हैं जो भाजपा को बेमतलब हंगामा खड़ा करने की छूट दें। इसलिए ममता बनर्जी विपक्ष के नेतृत्व की स्वाभाविक हकदार हैं। 

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