नई आवाज़ों की पुरानी तासीर

जनाब जब हम तरक्की कर रहे हैं, तो क्यों न हमारे अड़ोस-पड़ोस भी तरक्की करें। अपनी तरक्की का झण्डा बुलन्द करना स्वाभाविक है। भई, वह भाई वीर सिंह के ज़माने गये, जब भारी पत्थर की ओट में छिपा हुआ एक बहुत सुन्दर फूल भी कह देता था, ‘मैं छिपया वे सज्जना ते मेरी छिपे रहने दी चाह।’ अब तो एक कदम बाद में उठता है, अपने गले में उसका ढोल बांध कर उसका ढिंढोरा पहले पीट दिया जाता है। चाहे कदम तो न उठे, लेकिन उसका मन्सूबा भी दूसरों को गाली-गलौच करने में लथपथ हो जाये। उधर ढोल इस कद्र पीटा गया, कि उसकी आवाज़ फट कर कर्णभेदी हो गई।
यार लोग कहते रहे, ‘टीन कनस्तर पीट-पीट कर गला फाड़ कर चिल्लाना, यार मेरे मत बुरा मान यह गाना है न बजाना है।’ आपने फिसड्डी भाषा में लिख कर पृष्ठ दर पृष्ठ काले कर दिये। फिर अपनी जेब ढीली कर उसे छपवा लिया। पेशेवर गोष्ठी आयोजकों की मदद से अपनी अभिनन्दन गोष्ठी करके उनकी खाली जेब भी भर दी। इसके बाद  चला आपके प्रशस्ति गायन का प्रचार। देखो, सोशल मीडिया में कितना लाइक मिले। स्थानीय अखबारों में इसकी चर्चा अब इंच के हिसाब से बिकती है। उसका भाव ताव भी किया। फिर भी हाथ खाली रहे, तो अपने अभिनंदित पूर्वजों को गाली दे अपने आपको कला और साहित्य का शहीद करार दे दिया।
लेखन कला, साहित्य और कण्ठ इस्तेमाल कर अभिनन्दन की तलाश की यूं बात क्यों करते हो। राजनीति हो या समाज, खेल प्रतियोगिता हो या प्रवचन प्रतियोगिता, अपने घरों में बनावटी इन्द्र धनुष खड़े करने वाले लोग आपको अपने ही बनाये मील पत्थर गाढ़ते मिलते हैं। आजकल एक और चलन शुरू हो गया है। एक दूसरे के बारे में शोध के नाम पर प्रशंसा पुस्तकें लिखने की शुरुआत हो गई। हर ओर एक ही आवाज़ सुनाई देती है, ‘तू मेरा मुल्ला बगो, मैं तेरा हाजी बगोयम’ अर्थात् ऐ महामना, मैं तेरी इज्ज़त करता हूं तू मेरी इज्ज़त कर। और फिर आप पूछते हैं, ‘पुस्तक संस्कृति क्यों खत्म हो गई?’ जब यूं भाड़े का लेखन होगा, जब एक-दूसरे की पीठ थपथपाने की यूं मैराथन दौड़ में लोग जुटेंगे, तो बताइए, इससे जो रचना-धर्मिता बाहर आएगी, वह कितनी ऊब भरी होगी। इस उबकाई के प्रभाव से बचने के लिए लोग भारत और पाकिस्तान के बीच होने वाले क्रिकेट मैच की टिकट पांच गुणा दाम पर खरीद लेंगे, लेकिन उस किताब को वे लोग भी नहीं पढ़ेंगे, जिन्हें आदर सहित मुफ्त भेंट की गई होगी।
हम केवल लेखकों और रचना-धर्मियों की बात क्यों करें? आजकल तो ऊंची गद्दियों की विरासत भोगते लोग अचानक बौद्धिक हो कर अपने लेखन शब्दों की मुक्ताओं से हर चर्चित अवसर पर अपने शीर्ष आलेख भिड़ाने लगते हैं। राज प्रासादों की रजिस्ट्री अपने नाम करवा लेने के बाद क्रांतिकारी हो जाते हैं। सामाजिक बदलाव का आह्वान करते हैं। क्रांति संघर्ष में जूझ मरने का दावा करते हैं। चमकदार नारों के साथ अपनी प्यालियों में तूफान उठाते हैं। सफलता का महोत्सव मना लेने के बाद फैसला करते हैं, कि अपनी बारात के आगे दूल्हा बन कर तो बहुत नाच लिया, अब दर्शक दीर्घा में सदियों से अपने कायाकल्प की प्रतीक्षा करती हुई जनता के लिए भी बदलाव युद्ध का नारा लगा दिया जाये। नारा लगाने के बाद उद्घोषणायें होती हैं। धन-राशियों का आबंटन होता है। स्मार्ट शहर बनाने के नाम पर ठीक-ठाक बनी-बनाई सड़कों को उधेड़ कर गड्डा बना दिया जाता है। दशकों से उजाले की खबर लेते लैम्प पोस्ट बुझा कर नियोन साइन और एल.ई.डी. युग शुरू हो जाता है। नये ठेके बंटे। ठेकेदारों से लेकर प्रशासनिक अधिकारियों की बहुमंजिला रिहायशों पर नये उजाले की दीवाली सजी, लेकिन अंधेरी बस्तियां और अंधेरी हो गईं। टूटी सड़कें कायाकल्प के नाम पर गड्डों में तबदील हो गईं। ज़िन्दगी संवारने के नाम पर रियायती अनाज बांटने वाली दुकानों के बाहर निठल्ले लोगों की कतार और लम्बी हो गई। अन्त्योदय आजकल काला बाज़ारों में उदित होता है, और नये धनाढ्य चोर दरवाज़ों के बाहर खड़े हो कर चिल्लाते हैं, ‘हम जहां खड़े होते हैं, अनुकम्पा की कतार वहां से ही शुरू हो जाती है।’ कोई नेपथ्य से अगर चिल्लाये, और इसकी हिम्मत कर ले, तो उसे मुंह बन्द करने का आदेश दे दिया जाता है।
एक नई ऊल-जलूल संस्कृति पैदा हो गई है, जहां समाज, राजनीति, धर्म और कला संस्कृति के ठेकेदार ऐसे गिरगिटिया लोग हैं, जो कल आपके साथ थे, उन्हें आज अपनी केंचुल बदलते देर नहीं लगती। और उनके साथ-साथ चलती है उनके ध्वजवाहकों की जमात। इस उम्मीद के साथ कि आज चाहे वे ध्वजा हैं, कल रंग बदल इसी ध्वजा से इन्हें पीट गद्दी से उतार स्वयं इस पर स्थापित होंगे, और भरे गले से कहेंगे, ‘लीजिये सौभाग्यवान, आपकी किस्मत खुली, आपकी ज़िन्दगी संवारने वाले सही आदमी गद्दियों पर आ गये।’ और जो गद्दियों से उतर गये, उनको देश भ्रष्टाचार रहित करने के नाम पर अब देश, समाज, व्यवसाय लूट अपना घर भर लने के आरोपों से जूझना होगा। उनकी प्रथम प्राथमिकी रिपोर्ट दर्ज हो गई। उनकी तलाशी ली जा रही है, छापे पड़ रहे हैं, और नये वातावरण का सपना देखता हमारे और आपके जैसा आदमी बदली हुई इस फिज़ा के नाम पर फिर वही सड़ांध जीने लगता है, फिर भी बरस में कम से कम एक पखवाड़े के लिए स्वच्छता अभियान को अंगीकार करता है।