कांशीराम की विरासत को अपनाने की कोशिश कर रही कांग्रेस

कांग्रेस पार्टी आजकल अचरज में डालने वाले काम कर रही है। मसलन, उसने 60 और 70 के दशक में लोहिया और उनके अनुयायियों द्वारा इस्तेमाल किया गया नारा ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ को पूरी तरह से अपना लिया है। एक तरह से यह नारा राहुल गांधी और उनकी पार्टी की अधिकृत विचारधारा और रणनीति की अभिव्यक्ति बन गया है। दूसरे, कांग्रेस ने कांशीराम की तस्वीर लगाकर उनकी राजनीतिक विरासत को अपनाने का योजनाबद्ध अभियान शुरू कर दिया है। हम जानते हैं कि कांशीराम के कांग्रेस के बारे में क्या विचार थे। वे चाहते थे कि कांग्रेस किसी न किसी प्रकार कमजोर होती चली जाए और अंतत: ़खत्म हो जाए। ऐसा लगता है कि पिछड़ी जातियों की गोलबंदी के दायरे में एक प्रमुख खिलाड़ी के  रूप में कांग्रेस के उतरने के पीछे इरादा यह है कि अतिपिछड़ी जातियों को पूरी तरह से भाजपा की पाले में जाने से रोका जा सके। दूसरी तरफ संभवत: कांग्रेस को यह भी लग रहा है कि मायावती की निष्क्रियता से बहुजन समाज पार्टी का दलित जनाधार पाला बदलने की तरफ बढ़ रहा है। इससे पहले कि उसे भाजपा हड़प ले, कांग्रेस चाहती है कि उसे अपनी ओर खींचने का प्रयास किया जाए। आ़िखर एक लम्बे समय तक ये दलित मतदाता कांग्रेस को वोट देकर जिताते रहे हैं। 
इसमें कोई शक नहीं कि पहले अम्बेडकर और फिर कांशीरम द्वारा चलाया गया दलित राजनीतिक प्रोजेक्ट अगर बिखरा नहीं तो बंट अवश्य गया है। इस विडम्बना को कैसे नज़रंदाज़ किया जा सकता है कि जो दलित शब्द 70 के दशक से ही धीरे-धीरे अनगिनत छोटी-बड़ी बिरादरियों में बंटी अनुसूचित जातियों की राजनीतिक अस्तित्व का प्रतिनिधि वाहक बनता चला गया था, उसका विश्लेषण की एक श्रेणी की तरह इस्तेमाल करने पर अब इन जातियों की राजनीति एकता का बोध नहीं होता। चुनावों में दलित वोटों की खींचतान मच जाती है। उत्तर प्रदेश में भाजपा की रणनीति का एक प्रमुख पहलू ़गैर-जाटव दलित वोटों को अपनी ओर खींचना है। उसे भरोसा है कि वह ऐसा कर पाएगी। इसी तरह समाजवादी पार्टी को भी बीच-बीच में लगता रहता है कि अवध और पूर्वी उत्तर प्रदेश में जाटवों के बाद संख्याबल में सबसे मज़बूत पासी जाति के वोट इस बार उसे मिल सकते हैं। दलित एकता का बिखराव इस कदर बढ़ चुका है कि अब कोई औपचारिक रूप से भी नहीं पूछता कि बहुजन समाज पार्टी को जाटव वोटों के अलावा कौन सी दलित बिरादरी के वोट मिलने वाले हैं। यह एक राजनीतिक समझ बन चुकी है कि मायावती अब वास्तविक अर्थों में ‘दलित नेता’ न रह कर महज़ जाटव नेता बन कर रह गई हैं। उनकी मुश्किल और भी बढ़ने वाली है क्योंकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में जाटवों पर उनके दबदबे को ‘द ग्रेट चमार’ का नारा लगाने वाले भीम आर्मी के चंद्रशेखर रावण से चुनौती मिल रही है।
दलित राजनीतिक एकता के प्रयोग की शुरुआत पंजाब में हुई थी। कांशी राम के अपने शब्दों का इस्तेमाल किया जाए तो वे पंजाब के ही रामदसिया भाईचारे से संबंधित थे। आतंकवाद के ज़माने में बहुजन समाज पार्टी जिस बहादुरी और कुर्बानी के साथ पंजाब में चुनाव लड़ी, वह अपने आप में एक मिसाल है। लेकिन जल्दी ही कांशी राम को लगने लगा कि देश में सबसे बड़ी दलित बिरादरी के बावजूद पंजाब में उसे अन्य कमज़ोर जातियों का सहयोग मिलने की परिस्थितियां नहीं हैं। दूसरे पंजाब के दलितों में आम्बेडकरवाद का प्रभाव अपेक्षाकृत कम था। डेरों के प्रभाव के कारण भी उनकी राजनीतिक गोलबंदी आसान नहीं थी। इसलिए वे इस फैसले पर पहुंचे कि पंजाब में बहुजन थीसिस परवान नहीं चढ़ सकती। इसलिए उन्होंने उत्तर प्रदेश में आजमाइश शुरू की। उन्हें एक जाटव नेता की खोज थी (उत्तर प्रदेश की अनुसूचित जातियों में 70 प्रतिशत जाटव ही हैं), जो उनके बामस़ेफ और डीएस-़फोर के सहयोगियों में नहीं था। इस खोज में उनके हाथ मायावती लगीं, जो आज ‘बहिनजी’ के रूप में बहुजन समाज पार्टी की सर्वेसर्वा हैं। 
लेकिन क्या बहुजन थीसिस के आईने में देखने पर उन्हें कांशी राम का उत्तराधिकारी माना जा सकता है? कांशी राम ने जाटवों के नेतृत्व में अन्य दलित जातियों, अति-पिछड़ों और ़गरीब मुसलमानों को जोड़ कर एक बहुजन गुलदस्ता बनाया था। मायावती द्वारा पिछले बीस साल में जिस शैली की राजनीति की गई, उसके समुचे परिणाम के कारण आज उनके साथ न तो अति-पिछड़े हैं न ही मुसलमान। ये वोट उन्हें तब मिलते हैं जब वे इनमें से किसी को टिकट देती हैं। जाटव मतदाता आज भी हाथी पर बटन दबाता है, लेकिन अगर मायावती इसी तरह चुनाव की होड़ में मुख्य खिलाड़ी बनने से चूकती रहीं तो अगले चुनावों में वह अपना वोट बर्बाद करने से बचने के बारे में सोचने लगेगा। जाटव मतदाताओं में यह रुझान पैदा होते ही मायावती का राजनीतिक सफर पूर्ण विराम की तरफ रवाना हो जाएगा। 2007 में अकेले दम पर सरकार बनाने के बाद उनका ग्राफ लगातार गिर रहा है और अब उनके बटुए में पंद्रह से बीस प्रतिशत वोट ही रह गए हैं। हम जानते हैं कि सम्मानजनक संख्या में सीटें मिलना तब शुरू होती हैं जब किसी के वोट 20 प्रतिशत से ऊपर जाते हैं। बसपा ने शुरू से ही आंदोलन की राजनीति में विश्वास नहीं किया। वह एक ‘स़ेफोक्रेटिक’ यानी विशुद्ध रूप से चुनावी सक्रियता पर निर्भर रहने वाली पार्टी रही है। अगर ऐसी पार्टी की नेता चुनाव के दौरान भी शिथिलता और निष्क्रियता दिखायेगी तो उसके इरादों पर संदेह भी होगा और उसके संभावित हश्र पर अ़फसोस भी। बी.बी.सी. का वह वीडियो क्लिप जिस किसी ने देखा है (इसमें मायावती कह रही हैं कि उनके लोग समाजवादी पार्टी को हराने के लिए भाजपा को भी वोट दे सकते हैं), वह चक्कर में पड़ जाता है कि आखिरकार बहिनजी चाहती क्या हैं? 
मायावती की इन अनिश्चितताओं की झलक 2022 के विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा की चुनावी रणनीति में भी देखी जा सकती है। मीडिया मंचों पर सक्रिय भाजपा-रुझान वाले टिप्पणीकारों और भाजपा नेताओं के वक्तव्यों से पहले तो यह दिखाने का प्रयास हुआ कि लड़ाई सीधी सपा और भाजपा में है। लक्ष्य यह था कि ़गैर-जाटव वोटों को अपनी ओर खींचे रहने की सुविधा मिले। लेकिन जब भाजपा ने देखा कि ़गैर-जाटव वोट केवल उसी को नहीं सपा को भी मिलने वाले हैं, और उसे यह भी लगा कि मायावती के होड़ में रहने के कारण कुछ भाजपा-विरोधी जाटव वोट भी सपा की तरफ जा सकते हैं, तो मीडिया मंचों पर बसपा की ‘त़ाकत’ को कम करने न आंकने की चेतावनियां दर्ज कराई जाने लगीं। 
यह संक्षिप्त विश्लेषण बताता है कि दलित राजनीति अपने होने के बावजूद आज वैसी नहीं रह गई है जैसी वह शुरुआत में थी या जैसा उसे वैचारिक रूप से कल्पना की गई थी। आज की ताऱीख में दलित नामक छतरी के नीचे खड़ी अनुसूचित जातियों की वोटिंग प्राथमिकताओं के बारे में कुछ भी निश्चित नहीं रह गया है। आम्बेडकरवादियों बहुजनावादियों की परियोजना दिन ढलने की तरह दिखाई दे रहा है। ऐसे में कांग्रेस द्वारा कांशीराम की राजनीतिक विरासत के ज़रिये दलित वोटों की गोलबंदी का प्रयास करना एक दिलचस्प रणनीति है। यह कितनी सफल होगी, कितनी विफल— यह इस बात पर निर्भर है कि मायावती और बसपा की तरफ से इसकी प्रतिक्रिया में क्या कदम उठाये जाते हैं। फिलहाल मायावती की राजनीतिक निष्क्रियता और रणनीतिक रूप से भाजपा समर्थक रुझान उनके भविष्य को कमज़ोर कर रहा है।


लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।