‘इंडिया’ गठबंधन पर हावी हो रहा निजी स्वार्थ  

भारत के राजनीतिक दलों में निजी स्वार्थ की पराकष्ठा पार हो चुकी है। इसी का परिणाम है कि देश के राजनीतिक दल जनता के बारे में कम और अपने बारे में ज्यादा सोचते और करते हैं। यही एक कारण है कि लम्बे अरसे से सत्ता से दूर रहने वाले दल सत्ता पाने की आतुरता में मुद्दा-विहीन राजनीति के साथ ऐसे दलों के साथ गठबंधन को तैयार हो जाते हैं जिनके विचारों एवं कार्या में ज़मीन-आसमान का अन्तर होता है। 2024 के लोकसभा चुनाव से पूर्व ‘इंडिया’ गठबंधन का यही हाल है। विपक्ष के नए गठबंधन के लिए पहली बैठक इसी वर्ष जून में हुई थी। इस गठबंधन में कांग्रेस, टीएमसी, डीएमके, ‘आप’, जनता दल युनाइटेड, राष्ट्रीय जनता दल, जेएमएम, एनसीपी, शिवसेना (यूटीबी), समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल, अपना दल (कमेरावाड़ी), नेशनल कांफ्रैंस, पीडीपी, मकापा मार्क्सवादी, सीपीआई, एमएमके, इंडियन मुस्लिम लीग, केरल कांग्रेस एम, केराल कांग्रेस जोसेफ, आरएसपी, आल इंडिया फारवर्ड ब्लाक, एमडीएमके, विदुथलाई चिरूथिगल काची, केएमडीके और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी लिबरेशन जैसे दल शामिल हुए थे। निश्चित तौर पर इन सभी दलों के काम करने का तरीका अलग-अलग है। इन दलों की मूल मंशा भी लगभग एक-दूसरे के विपरीत है। इन सभी दलों के प्रमुख नेताओं के निजी स्वार्थ अलग-अलग हैं। ऐसे में इस गठबंधन पर स्वार्थ भारी पड़ रहा है। 
इस गठबंधन में शामिल सपा का कांग्रेस पर हालिया हमला कांग्रेस को धोखेबाज़ और एक प्रदेश अध्यक्ष को चिरकुट कहना इस बात का संकेत हैं कि गठबंधन में स्वार्थ व्याप्त हो चुका है। ऐसे में सवाल उठ रहा है कि विधानसभा चुनावों में कांग्रेस और सपा की कटुता से भाजपा विरोधी विपक्षी गठबंधन के भविष्य पर क्या असर पड़ेगा? क्या लोकसभा चुनाव तक ‘इंडिया’ गठबंधन एकजुट रह पाएगा? जैसा कि गठबंधन के गठन के समय लगता था कि ये दल बहुत गर्मजोशी से एक साथ आ जाएंगे, परन्तु धरातल पर ऐसा नहीं दिख रहा है। जिनकी अपनी सीटों पर क्षेत्रीय ताकत है, उसे वह कैसे जाने दे सकते हैं? आगे क्या होगा, यह देखना होगा, लेकिन अभी तो यह परेशानी की शुरुआत दिखाई दे रही है। सपा नेता अखिलेश यादव और कांग्रेस नेता अजय राय के बीच वाद-विवाद ने गठबंधन में स्वार्थ का संकेत दे दिया है। नवम्बर में होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के बाद विपक्षी एकता की कवायद के परवान चढ़ने की उम्मीद जताई जा रही थी। तब किसी ने यह नहीं सोचा होगा कि इन्हीं विधानसभाओं के चुनाव में विपक्षी गठबंधन के बिखराव का बीजारोपण भी हो सकता है। समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच खींचतान से अब यह बात स्पष्ट होने लगी है कि विपक्षी गठबंधन बेमेल ब्याह की तरह है। अबी तो लोकसभा चुनाव में पांच-छह महीने हैं। इसके पहले कुछ दल अलग होते दिखाई रहे हैं। लोकसभा चुनाव से पहले अगर गठबंधन बिखर जाता है तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। बहरहाल अब राजनीतिक स्थिति बदल गई है। अब गैर-कांग्रेसवाद बहुत पीछे चला गया है। अब लड़ाई गैर-भाजपावाद की है। अभी भी क्षेत्रीय दल अपनी ज़मीन पर कांग्रेस को खाद-पानी मुहैया नहीं कराना चाहते, चाहे उत्तर प्रदेश हो, पंजाब हो, दिल्ली हो, बिहार हो य पश्चिम बंगाल। इसीलिए गाहे-बगाहे इन सभी राज्यों के क्षेत्रीय क्षत्रप कांग्रेस को कोसते रहते हैं। यह कांग्रेस का साथ केवल इसलिए दे रहे हैं क्योंकि इन सबके मुखिया या नेता केन्द्रीय जांच एजेंसियों से पीड़ित हैं और अकेले उनमें भाजपा से भिड़ने की हिम्मत नहीं है। लिहाजा यह विवशताओं पर टिका हुआ गठबंधन है तो उसे गठबंधन नहीं कहते हैं। मजबूरियों का साथ कभी भी स्थायी नहीं होता है। यह बात कांग्रेस को समझनी चाहिए। 
वैसे देखा जाए तो सभी क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस की ही ज़मीन ली है। 1993 में जब मुलायम सिह को सरकार बनाने के लिए सीटें कम पड़ रहीं थीं, तब कांग्रेस ने समर्थन दिया था। उसी तरह सपा ने केंद्र में कांग्रेस को समर्थन दिया था। दोनों एक-दूसरे को स्थान नहीं देना चाहते हैं। कांग्रेस के लोग मानते हैं कि अगर हमने मध्य प्रदेश में छह सीटें दे दीं और उनमें से तीन सपा जीत गई तो वे तीन कहां जाएंगे, यह कोई नहीं कह सकता है। ‘इंडिया’ नेताओं के बीच हुआ गठबंधन है। 1975 के दौर की एकता अभी दिखाई नहीं देती है। गठबंधन की बैठकें शादियों में शामिल होने जैसी लग रही हैं। इसके अलावा क्षेत्रीय दलों एवं कई राज्यों में गैर-भाजपा सरकारों के मंत्रियों-विधायकों, गैर-भाजपा दलों के नेताओं पर ईडी, आयकर विभाग व अन्य एजेन्सियों का शिकंजा लगातार कसा जा रहा है। चाहे आम आदमी पार्टी के मंत्रियों एवं सांसद को जेल भेजने का मामला हो, चाहे तृणमूल कांग्रेस के नेताओं एवं मंत्रियों के खिलाफ  कार्रवाई का मामला हो, चाहे सपा नेता आज़म खान पर शिकंजा कसने का मामला हो।
 इस तरह के अनेक उदाहरण है जिसका विरोध एक स्वर में ‘इंडिया’ गठबंधन द्वारा नहीं किया गया। कारण स्पष्ट है कि केन्द्रीय जांच एजेंसी ने गठबंधन के अधिकाधिक दलों के बड़े नेताओं पर शिकंजा कस रखा है। ऐसे में जिस भी दल ने आंखें दिखाने और आवाज़ उठाने की उसे दबोचने के लिए केन्द्रीय एजेसियां तैयार रहती हैं। जबकि गठबंधन के सभी नेता कांग्रेस से यही उम्मीद करते हैं कि जब केन्द्रीय जांच एजेसियां कोई कार्रवाई करें तो कांग्रेस उनके साथ खड़ी हो, जबकि सभी को मालूम है कि कांग्रेस के खिलाफ  काफी मामले केन्द्रीय जांच एजेसियों के पास लम्बित है। कुल मिला कर गठबंधन में शामिल दलों के नेता नितीश कुमार, अखिलेश यादव एवं अरविन्द्र केजरीवाल का मनमुटाव आने वाले समय में कई अन्य दलों को गठबंधन से दूर कर सकता है।