देश में भुखमरी और बेरोज़गारी, किन्तु सरकारी आंकड़ों में हम समृद्ध

इसी सप्ताह जब भारत सरकार ने यह घोषणा की कि भारत विश्व की तीसरी बड़ी आर्थिक शक्ति बनने वाला है और भारत में बेरोज़गारी दर सभी देशों से कम 3.2 प्रतिशत है, तो इससे बहुत प्रसन्नता हुई। गरीबी और बेरोज़गारी दूर होना मानवीय आवश्यकता है, परन्तु ऐसा लगता है कि जो यह सर्वेक्षण बनाते हैं, रिपोर्ट जारी करते हैं, वे औसत आय तो निकाल लेते हैं, लेकिन यह नहीं जानते अथवा बताना नहीं चाहते कि औसत आय उनकी आमदनी के आधार पर बनाई जाती है जो दस प्रतिशत लोग बहुत अमीर हैं, जिनके पास भारत की सम्पत्ति का बहुत बड़ा हिस्सा है, जो लाखों रुपये प्रतिवर्ष कमाते हैं, जो हिंदुस्तान के सबसे बड़े अमीर हैं। दस बड़े अमीरों की सूची भारत सरकार जारी करती है। यह तो प्रसन्नता की बात है कि भारत में इतनी सम्पत्ति है, परन्तु यह सम्पत्ति हिन्दुस्तान की आधी आबादी को कभी दिखाई ही नहीं दी। भारत सरकार के रिपोर्ट में जब यह कहा गया कि बेरोज़गारी दर 3.2 प्रतिशत है और जिनको रोज़गार मिला है उनका अनुपात 51 प्रतिशत है, तो हैरानी हुई कि भारत की जनता के किस वर्ग के आधार पर यह विवरण जारी किया गया है। कौन नहीं जानता कि आज भारत में अमीरी और गरीबी के बीच खाई गहरी होती जा रही है। केवल भारत में ही नहीं, दुनिया की समृद्धि हमारे देश की तरह ही कुछ लोगों तक केंद्रित हो गई है। भारत में ऐसा अंतर दुनिया की तुलना में कुछ ज्यादा ही दिखाई दे रहा है। 
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री थॉमस पिकैटी के निर्देशन में बनी 2021 की वर्ल्ड असमानता रिपोर्ट भी भारत की आर्थिक विषमता की तस्वीर प्रस्तुत करती है। इसके अनुसार 2021 में भारत के हर वयस्क व्यक्ति की औसत आय प्रतिमाह 17 हज़ार के करीब थी, परन्तु यह आर्थिक दृष्टि से मध्य वर्ग की आमदनी है। हिंदुस्तान की आधी आबादी ऐसी है जिनकी मासिक आय पांच हजार भी नहीं थी। मैं तो यह समझती हूं कि पांच हज़ार एक व्यक्ति की नहीं, लाखों ही नहीं, करोड़ों परिवार ऐसे हैं जहां तीन से पांच व्यक्तियों के परिवार की केवल पांच हज़ार रुपये ही आमदनी है। यद्यपि अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका फोर्ब्स दुनिया के धनाढ्य लोगों की सूची जारी करती है। भारत के भी अमीर लोग इस सूची में हैं, परन्तु उससे केवल यह संतोष किया जा सकता है कि भारत के करोड़ों लोग अमीर हैं। नई सूची में तो एक हज़ार से ज्यादा अमीर खरबों की सम्पत्ति के स्वामी हैं। भारत देश तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बन रहा है, इस पर सरकारें तो संतोष कर सकती हैं। सत्तासीन दल इसे अपनी बहुत बड़ी कामयाबी बता सकता है। अगर आम आदमी को निकट से देखें तो वह सिसक-सिसक कर जी रहा है। 
मेरे अपने चारों ओर ऐसे ही हज़ारों लोग हैं जो पांच से दस हज़ार की नौकरी पर जैसे कैसे जिंदगी काट रहे हैं। क्या कोई यह सरकारी तंत्र और सरकारी रिपोर्टें लिखने वाले कभी उनके निकट गए हैं, जिन्हें पंद्रह वर्ष की सर्विस के बाद भी केवल दस हज़ार रुपया मासिक मिलता है और मालिकों की डांट बोनस में। कभी किसी श्रम विभाग के अधिकारी ने निकट आकर देखा है, क्या जिलों के जिलाधीश अपने अधिकार क्षेत्र में यह जानकारी लेते हैं कि कितने ऐसे बड़े संस्थानों में काम करने वाले पुरुष और महिलाएं हैं, जिन्हें कभी डीसी रेट पर वेतन मिला ही नहीं।  अब रिपोर्ट में यह भी कह दिया गया कि महिलाओं को रोज़गार ज्यादा मिल रहा है। इसका सीधा अभिप्राय यह है कि जो बेचारी घरों में झाड़ू पोछे का काम करती हैं, कपड़े धोने और बर्तन साफ  करने का काम करती है, किसी की रसोई में भोजन बनाकर अपने लिए रोटी का प्रबंध करती हैं, वे सब सरकारी किताब में रोज़गार प्राप्त महिलाएं हैं। क्या यह सरकारें जानती हैं कि जिनको वे मानते हैं कि रोज़गार मिल गए, उन्हें दिन में बारह से चौदह घंटे काम करना पड़ता है। एक भी अवकाश वेतन सहित बारह महीनों में नहीं मिलता। बीमार भी हो जाएं तो उनका वेतन काट लिया जाता है और छोटी-छोटी गलतियां उनके काम से निकालकर उन्हें काम से अनुपस्थित का सर्टिफिकेट दे दिया जाता है। 
यह तो कह सकते हैं कि देश में गरीबी कम हो रही है, परन्तु इसी कड़ी में भुखमरी के सर्वेक्षण में भारत दुनिया के 125 देशों में 111वें स्थान पर है। यह चिंताजनक बात है। विसंगति यह है कि पिछले साल से हर क्षेत्र में विकास की घोषणाओं के बावजूद भुखमरी का यह रैंक कैसे बढ़ गया?