यह भी राजनीति का ही दस्तूर है नाराज़गी के बावजूद पार्टी के साथ चलने के लिए मजबूर हैं नेता

भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में राज्यों के पैमाने पर नेताओं की कई श्रेणियां होती हैं। कुछ नेताओं को आलाकमान बड़ी प्राथमिकता देता है और वे आगे बढ़ते चले जाते हैं। कुछ नेता शुरू में चढ़ाये जाते हैं और फिर धीरे-धीरे विभिन्न कारणों से उन्हें हाशिये पर डाल दिया जाता है। इन्हें लगता है कि उनके साथ नाइंस़ाफी हुई है। कुछ नेताओं को काफी समय के बाद आलाकमान ज़ोर डाल कर रिटायर कर देता है। कुछ को केंद्र में स्थापित कर दिया जाता है ताकि राज्य में उनकी जगह किसी दूसरे को बैठाया जा सके। हिंदी पट्टी की तीन विधानसभाओं के चुनावों ने हमारे सामने कुछ इस तरह के नेता पेश किये हैं, जो अपनी ही पार्टी के नेतृत्व से उत्पीड़ित महसूस कर रहे हैं। हालांकि इन नेताओं को अपने सताये जाने का एहसास है, लेकिन पार्टी छोड़ कर किसी और दल में जाने या कोई नयी पार्टी बना लेने की स्थिति में वे नहीं हैं। उन्हें बार-बार अपनी व़फादारी साबित करने वाले वक्तव्य देने पड़ते हैं। अपनी हताशा व्यक्त करने के लिए उन्हें इस तरह की भाषा और मौकों का इस्तेमाल करना पड़ता है, जिसमें ब़गावती स्वर और इरादे न खोजे जा सकें। 
मध्य प्रदेश में ऐसे नेता की उत्तम मिसाल भाजपा के शिवराज सिंह चौहान हैं। यद्यपि पूरे प्रदेश में चुनाव मुहिम के समय वे ही सर्वाधिक राजनीतिक हस्ती रहे, लेकिन फिर भी मोदी-शाह के आलाकमान ने उनके योगदान को स्वीकार नहीं किया। छत्तीसगढ़ में ऐसे नेताओं को कांग्रेस के टी.एस. सिंह देव और भाजपा के रमन सिंह के रूप में देखा जा सकता है। राजस्थान में भी पाले के दोनों तरह ऐसे नेता मौजूद हैं। कांग्रेस के सचिन पायलट और भाजपा की वसुंधरा राजे सिंधिया को भी इसी दौर से गुज़रना पड़ रहा है। इन सभी में केवल राजस्थान ही ऐसा प्रांत है जिसमें इन दोनों नेताओं ने एक बार पार्टी छोड़ने का मन भी बनाया था। वसुंधरा राजे ने उस समय जब आलाकमान ने गजेंद्र सिंह शेखावत को आगे बढ़ाने की कोशिश की और सचिन पायलट ने उस समय जब अशोक गहलोत ने उनकी बगावत को पूरी तरह से नाकाम कर दिया। भारतीय राजनीति में पार्टी सिस्टम इस तरह काम करता है कि यहां नयी पार्टी बनाना तो आसान है, लेकिन उसे स्थापित करना मुश्किल है। नयी पार्टियां बनी रहती हैं, लेकिन उनका प्रभाव सीमित दायरे में ही रह जाता है। इसलिए नयी पार्टी बनाने के बजाय बड़ी पार्टियों के नेता मुश्किलों में होने के बावजूद उसी में बने रहते हैं। कुल मिला कर इस तरह के नेताओं की दुविधाओं और बेचैनियों की सार लेना दिलचस्प है। 
2018 के चुनाव से पहले और उसके बाद कुछ दिनों तक सचिन पायलट राजस्थान की ही नहीं, बल्कि कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति के तेज़ी से उभरते हुए सितारे थे। समझा जाता था कि पार्टी के आलाकमान का हाथ उनकी पीठ पर है और वे राजस्थान का भविष्य हैं। यह भी कहा जा रहा कि उनकी अध्यक्षता में ही पार्टी भाजपा से सत्ता छीनने में कामयाब रही। लेकिन मुख्यमंत्री पद अशोक गहलोत को मिला। पांच साल तक सचिन पार्टी के भीतर छापामार युद्ध चलाते रहे, एक ऐसा युद्ध जिसे वे चुनाव के दौरान नहीं चला सकते थे। पूरे चुनाव के दौरान उन्हें गहलोत से एकता दिखावा करना पड़ा। विचारणीय प्रश्न यह है कि अपना ह़क मार लिये जाने के तीखे एहसास के बावजूद उन्होंने चुनाव में अपनी भूमिका को कैसे साधा होगा? इसी से जुड़ा सवाल यह है कि राजस्थान के गूजर समुदाय (जिसका नेता पायलट को माना जाता है) की मतदान प्राथमिकताएं कैसे निर्धारित हुई होंगी? पिछली बार गूजर प्रधानता वाली सीटों पर भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया था, क्योंकि इस समुदाय को लगता था कि उनका नेता ही मुख्यमंत्री बनने वाला है। इस बार भाजपा पायलट बनाम गहलोत का मसला उठा कर उम्मीद कर रही है कि वह काफी गूज्जर वोट खींच सकती है। अगर भाजपा अपने इरादे में सफल हो गई तो क्या गूज्जरों के इस युवा नेता के कांग्रेसी करियर को ज़बरदस्त धक्का नहीं लगेगा? अगर पायलट की कांग्रेसी निष्ठाएं एक बार फिर ज्यादातर गूज्जर वोट अपनी पार्टी को दिलवाने में सफल हो गईं, तो क्या वे गहलोत को चौथी बार मुख्यमंत्री बनवाने में योगदान करते नहीं पाये जाएंगे? सचिन की जीत एक ही तरीके से हो सकती है कि कांग्रेस जीते भी और गहलोत मुख्यमंत्री भी नहीं बन पाएं। लेकिन यह पूरे चुनाव पर गहलोत की इतनी ज़बरदस्त छाप है कि कांग्रेस के जीतने पर उनकी ‘जादूगरी’ सचिन पायलट की पहुंच से बहुत दूर चली जाएगी। 
वसुंधरा राजे अपनी तरफ से यह दिखाने की पूरी कोशिश करती रही हैं कि उनके और प्रधानमंत्री के बीच सब कुछ ठीक ठाक है। मंच पर दोनों के बीच मुस्करा कर बात करने की तस्वीरें मुहिम के दौरान उनके ट्विटर हैंडल पर डाल दी गई थीं। लेकिन वसुंधरा को पता था कि अगर भाजपा राजस्थान में जीती तो उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाया जाएगा, बावजूद इसके कि वह पार्टी की सबसे कद्दावर नेता थीं और हैं। जाट, गूजर और राजपूत समाज से अपने जुड़ाव और स्त्री वोटरों में अपनी लोकप्रियता के बावजूद वे स्वयं को हाशिये पर पाती रही हैं। एक तरह से वे भाजपा की सचिन पायलट बनी हुई हैं, जिन्हें पार्टी को जिताते हुए तो दिखना था, लेकिन मुख्यमंत्री पद की अपेक्षा नहीं रखनी थी। सवाल यह है कि ऐसा करने के लिए उन्हें कौन सी तरकीब का इस्तेमाल करना पड़ा होगा? क्या उन्होंने सिर्फ अपने पसंदीदा उम्मीदवारों को जिताने का ही प्रयास किया होगा? या, उन्हें य़कीन रहा होगा कि अगर भाजपा जीती तो भले ही उन्हें मुख्यमंत्री पद न मिले, जीत में उनके योगदान को पार्टी द्वारा रेखांकित ही नहीं किया जाएगा, बल्कि उसके बदले उन्हें संतोषजनक ढंग से पुरस्कृत भी किया जाएगा? वसुंधरा की मुश्किल यह है कि श्रेय लेने के मामले में उनका मुकाबला किसी क्षेत्रीय नेता से नहीं है। राजस्थान की जीत का श्रेय केवल एक ही व्यक्ति को मिलने वाला है और वे हैं नरेंद्र मोदी। अगर हर बार सरकार बदलने के राजस्थानी रिवाज़ को पलटते हुए कांग्रेस जीत गई तो उस हार का ठीकरा हर तरह से वसुंधरा के दरवाज़े पर ही फूटने वाला है। 
इस लिहाज़ से देखें तो सचिन पायलट और वसुंधरा राजे के लिए अपनी-अपनी पार्टियों में एक तरफ कुआ और दूसरी तरफ खाई है। ठीक-ठीक ऐसी ही स्थिति मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की है। उनकी पार्टी हारी तो यह कहा जाएगा कि उनके खिलाफ एंटीइनकम्बेंसी के साथ पार्टी का नुकसान हुआ और जीती तो किसी दूसरे को मुख्यमंत्री बनते देख कर उनके हृदय पर सांप लोट जाएगा। हाँ, इस मामले में टी.एस. सिंह देव ने कुछ ़फैसलाकुन बयान दिया है कि अगर कांग्रेस के जीतने पर वे मुख्यमंत्री नहीं बने तो चुनाव लड़ना छोड़ देंगे, यानी राजनीति से बाहर हो जाएंगे। ज़ाहिर है कि पायलट, चौहान और वसुंधरा इस तरह से सोचने के लिए तैयार नहीं हैं। शायद उन्हें अभी भी यह उम्मीद है कि अगले पांच साल में वे इस हारी हुई बाज़ी को अपने पक्ष में कर पाएंगे।
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।