किसानों का शोषण रोकने के लिए बने उचित नीति 

हमारे एक पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की स्मृति में प्रति वर्ष 23 दिसम्बर को किसान दिवस मनाने की परम्परा है। प्रश्न उठता है कि क्या हम अब तक किए गये उपायों से उसे गरीबी से मुक्ति दिला पाए, उसके साथ हो रहे सामाजिक और आर्थिक अन्याय को रोक पाए और क्या उसे देश की मुख्य धारा में एक संभ्रांत तथा सम्पन्न नागरिक होने का दर्जा दिला पाए? ज़रूरी हो जाता है कि उसकी दशा, दुर्दशा पर गंभीरता से विचार हो क्योंकि देश की आधी से अधिक आबादी कृषि पर निर्भर है और उसमें से केवल पांच प्रतिशत किसान ही खुशहाल कहे जा सकते हैं।
कृषि नीति कैसी हो?
कृषि, किसानी और कृषक की खुशहाली को लेकर पहले से लेकर आज तक के प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री योजनाएं बनाते रहे हैं लेकिन एक बहुत बड़ा किसान वर्ग न तो संपन्न हो पा रहा है और न ही उसकी आमदनी बढ़ पा रही है, दोगुणा आय करने के दावे खोखले ही साबित हुए। इसका कुछ न कुछ तो कारण होगा जिसका निदान किये बिना कोई गति नहीं है। तो किया क्या जाए, एक फार्मूला सुझाते हैं! ध्यान रहे, हम छोटे और मझोले किसान की बात कर रहे हैं न कि धनी और बड़ी-बड़ी जोतें रखने वाले किसान की, जिसे न तो सरकार के संरक्षण की ज़रूरत है और न ही किसी तरह की सब्सिडी की, बल्कि नीति ऐसी हो कि संपन्न किसान गरीब किसान का सहारा बन सके।
सबसे पहले यह समझ लीजिए कि कृषि के लिए जिन चार चीज़ों—खाद, सिंचाई, उर्वरक और बीज की ज़रूरत होती है, उनकी पूर्ति होनी चाहिए। इसके लिए पहला सुझाव यह है कि ये सब तीन से पांच हेक्टेयर ज़मीन रखने वाले को तीन साल तक सरकार द्वारा नि:शुल्क प्रदान की जाएं। उसके लिए उत्पादन का लक्ष्य निर्धारित कर दिया जाए कि इतनी पैदावार तो करनी ही है। इसका मतलब यह है कि ज़मीन और मेहनत किसान की, संसाधन सरकार के। अब उपज सीधे सरकार खरीदे या उसकी बिक्री का प्रबंध करे, यह उसकी मज़र्ी। किसान को उसके दाम मिल जायें, बस इतना काफी है।
दूसरा सुझाव यह कि तीन वर्ष बाद सर्वेक्षण हो कि किस किसान ने लक्ष्य पूरा किया और किसने नहीं। जिसने कर लिया, उसे दो और वर्ष तक यही सुविधाएं मिलें और जिसने नहीं किया, उसके सामने विकल्प हो कि वह कृषि छोड़कर कोई अन्य व्यवसाय कर ले और अपनी ज़मीन और मेहनत के इस्तेमाल का विकल्प खोजे। यह भी किया जा सकता है कि उसकी सहमति से उसे एक मौका और दिया जाये तथा उन कारणों को दूर किया जाये जिनकी वजह से वह लक्ष्य पूरा नहीं कर पाया। इसमें सूखा, बाढ़, प्राकृतिक आपदा, आधुनिक कृषि टेक्नोलॉजी उस तक न पहुंच पाना या उसका इस्तेमाल न कर पाना जैसे कारणों का अध्ययन कर उसके लिये एक राहत पैकेज बनाया जाये तथा उसे दो वर्ष और दिये जायें।
यदि इसके बाद भी न कर पाये तो समझ लीजिए कि वह किसानी करने के योग्य नहीं और उसके लिए वैकल्पिक रोज़गार की व्यवस्था हो। इसका सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि किसानों की संख्या सीमित होगी और केवल वे लोग ही कृषि से जुड़े रहेंगे जो वास्तव में इसके अधिकारी हैं। इस वर्ग को उन ज़मीनों से पैदावार करने का नया लक्ष्य दिया जाये जहां के लोग अब किसानी छोड़ कर अन्य व्यवसाय अपना चुके हैं। यह एक ऐसा बदलाव होगा जो प्राकृतिक और बिना किसी भेदभाव के होगा तथा स्थायी होगा। उदाहरण के लिए चीन और उन धनी देशों की कार्यशैली को रखा जा सकता है जहां वही व्यक्ति किसानी कर सकता है जो इसके योग्य है और धरती से अधिक से अधिक उपज हासिल कर सकता है।
तीसरा सुझाव यह कि सरकार ने अभी जो किसान सम्मान निधि, उसकी फसल का बीमा, यूरिया पूर्ति जैसी योजनाएं शुरू की हुई हैं, इन्हें धीरे-धीरे वापिस लिया जाये और इनकी जगह उसे आत्म-निर्भर बनाने, उसकी आमदनी बढ़ाने और गरीबी रेखा से बाहर निकालने की नीतियां बनें। सहकारिता पर आधारित खेती जैसी पुरानी नीतियों से किनारा कर लिया जाये और व्यक्तिगत किसान को खुशहाली की तरफ  ले जाया जाये।
युवाओं को रोज़गार
इसके साथ ही कृषि के लिए अयोग्य हो चुके किसानों के सामने जो विकल्प हों, वे ऐसे हों जिनका किसी न किसी प्रकार से खेत-खलिहान से संबंध हो। जैसे कि परिवार के अनुभवी सदस्यों और शिक्षित युवाओं को कृषि उपज खरीदने, बेचने, कृषि उपकरणों का व्यापार करने, फार्म प्रोडक्शन कम्पनी बनाने, ग्रामीण क्षेत्रों में स्टार्ट अप खोलने, रोज़गार के अवसर बढ़ाने और इसी तरह के दूसरे कामों में लगाया जा सकता है। वह अपनी ज़मीन से जुड़े रहेंगे और उन्हें यह भी नहीं लगेगा कि उन्हें उजाड़ दिया गया है और वे विस्थापित हो गये हैं, बस उनका काम बदल गया है। आज देहातों में अमीर किसानों को आधुनिक सुविधाओं जैसे नई से नई कार, विलासिता के साधन मुहैया कराने की होड़ लगी हुई है। नेशनल और मल्टी नेशनल कम्पनियां उन तक पहुंचने की कोशिश में लगी हैं। इसी तरह कृषि की आधुनिक मशीनें, बिजाई व कटाई के उपकरण देशी और विदेशी उत्पादक पहुंचा रहे हैं। इस काम में ग्रामीण युवा वर्ग को लगाने के लिए उन्हें आर्थिक साधन उपलब्ध कराने होंगे ताकि वे अपने पैरों पर खड़े हो सकें और नये परिवेश में अपने को समायोजित कर सकें।
महिलाओं का योगदान
यहां एक बहुत ही महत्वपूर्ण पर ज्यादातर अनदेखे पहलू का ज़िक्र करना ज़रूरी है। यह एक वास्तविकता है कि कृषि का सबसे अधिक ज्ञान और उसके व्यावहारिक पक्ष का ध्यान महिलाओं को ही रहता है जबकि सबसे अधिक उपेक्षा उनकी ही की जाती है। सरकारी योजनाओं और नीतियों की जानकारी उन्हें नहीं मिलती क्योंकि पुरुष समाज को प्राथमिकता दी जाती है जबकि सबसे अधिक योगदान महिलाओं का होता है। विडम्बना यह है कि महिला यदि नियमों के मुताबिक पंच या सरपंच चुन ली जाती है तो भी उसके परिवार के पुरुष पंचायत में अपनी चलाते हैं, परिणामस्वरूप महिला केवल रबर स्टाम्प बन जाती है। अंतिम सुझाव यह है कि यह नियम बना दिया जाये कि जब तक कृषि कार्य से जुड़ी महिला की सहमति नहीं होगी तब तक उसके परिवार को कोई सहायता, अनुदान या संसाधन नहीं मिलेंगे। इसके आश्चर्यजनक परिणाम मिलेंगे। महिलाओं को कृषि के आधुनिक तरीकों के इस्तेमाल की ट्रेनिंग दिया जाना अनिवार्य हो। किसी भी योजना की पहली लाभार्थी कृषि से जुड़ी महिला हो। पुरुषों का काम हल, ट्रेक्टर चलाना हो सकता है, लेकिन बुआई के लिए बीज की किस्म का फैसला करने में उसकी सहमति हो। इसी तरह फसल की कटाई, उसकी सम्भाल और सही दाम मिलने तक उपज का भंडारण करने में उसकी भूमिका हो। वैसे यह एक सच्चाई है कि ग्रामीण महिला यह सब काम चुपचाप करती आई है, लेकिन उस पर ठप्पा पुरुष का लगता रहा है। यह स्थिति बदलनी चाहिए और महिलाओं की भूमिका की सराहना होनी चाहिए।
किसान दिवस पर इतनी तो उम्मीद की ही जा सकती है कि सरकार हो या नागरिक, कुछ तो नया सोचें और उस पर क्रियान्वयन करें। इस बारे में सुधि पाठकों के विचार भी ज़रूरी हैं क्योंकि यह विषय राष्ट्र की आर्थिक प्रगति और एक सबसे बड़े वर्ग किसान से जुड़ा हैं। लीपापोती की नहीं सार्थक और कड़े कदम उठाने की ज़रूरत है।