इमरोज़ का चले जाना

पंजाबी साहित्य सभा नई दिल्ली का सीनियर फैलो तथा पंजाबी लेखिका अमृता प्रीतम की दूसरी आधी आयु का साथी इमरोज़ गत सप्ताह 98 वर्ष की आयु में अपने मुम्बई स्थित आवास से अलविदा कह गया। 26 जनवरी, 1926 को लायलपुर में जन्मे इमरोज़ का प्राथमिक नाम इन्द्रजीत था और 1966 में दरिया गंज दिल्ली से प्रकाशित उर्दू पत्रिका ‘शमां’ के सम्पादकीय स्टाफ में चित्रकारी का कार्य करता था, जब स्वयं से सात वर्ष बड़ी अमृता प्रीतम के सम्पर्क में आया।
अंतिम श्वास लेने तक इमरोज़ के रूप में जाने जाते इन्द्रजीत को यह तो पता था, कि उसका गोत्र भंगू है, परन्तु यह नहीं जानता था कि उनके पूर्वज मेहताब सिंह ने भाई सुखा सिंह माड़ी कम्बोके को साथ लेकर हरिमंदिर साहिब की बेअदबी करने वाले मस्सा रंगड़ को कत्ल करके प्रसिद्धी प्राप्त की थी। मेरा अपना ननिहाल गांव कोटला बडला है जो खन्ना संघोल मार्ग पर पड़ते उन पांच गांवों में से एक है। 
जो मेहताब सिंह के पुत्र-पोत्र राय सिंह ने बसाये थे। यह गांव भंगुओं का गढ़ माने जाते हैं और इनके निवासी आज भी मस्से रंगड़ के कत्ल का साका बड़े गर्व से बताते हैं। अविभाजित पंजाब के लायलपुर में जन्मे इन्द्रजीत को तो यह भी नहीं पता था कि मेहताब सिंह का गांव मीरांकोट माझा क्षेत्र में पड़ता था। जब मैंने इन्द्रजीत को बताया था कि मेरा ननिहाल गांव भी भंगू है तो उसने मेरी बात की ओर ध्यान नहीं दिया था। उसे तो शायद यह भी नहीं पता था कि उसके पूर्वज भी अंग्रेज़ों द्वारा बसाई नहरी कालोनियों के समय माझा छोड़ कर लायलपुर गये हों। 
याद रहे कि अमृता प्रीतम का घर उन प्लाटों में से एक पर निर्मित था जो महिन्दर सिंह रंधावा ने 1947 में दिल्ली का उपायुक्त होते हुए साहित्कारों तथा कलाकारों को कोड़ियों के भाव दिलवाये थे। इनमें से साहित्यकार करतार सिंह दुग्गल, कलाकार एन.एस. विष्ट तथा छापक-प्रकाशक भापा सिंह के नाम मुझे आज भी याद हैं। यह अलग बात है कि अमृता प्रीतम का घर उसके बेटे नवराज ने अपने जीवित रहते बेच दिया था जहां आज कई मंज़िला इमारत निर्मित हो चुकी है। यह बात तो मुझसे पहली पीढ़ी के सभी साहित्य रसिया जानते हैं कि अमृता के बेटे नवराज ने पहले एक गुजराती लड़की से विवाह करवाया था (जो वर्तमान में इंग्लैंड रहती है) और फिर एक हिमाचल पृष्ठभूमि वाली अल्का नामक पंजाबन से जिसे नवराज मुम्बई ले गया था।  वैसे नवराज का मन अपनी मां का घर बेचने से भी नहीं भरा था और मुम्बई जाकर फिल्मी दुनिया के ऐसे पात्रों के झांसे में आ गया जिन्होंने पैसे के लालच में उसकी हत्या करवा दी थी। 
इमरोज़ द्वारा दिल्ली छोड़ कर मुम्बई जाकर उसके परिवार को संभालना कुर्बानी वाली बात थी। उसने अल्का को अपनी बहु और नवराज के बच्चों का अपने पुत्र-पोत्रों की भांति पालन-पोषण किया और मरते दम तक उनके अंग संग रहा।
भापा प्रीतम सिंह, अमृता प्रीतम तथा इमरोज़ के साथ मेरे सम्पर्क की बात मेरे दिल्ली दाखिले से जुड़ती है। मैं माहिलपुर के निकट अपना गांव छोड़ कर दिल्ली पहुंचा तो मेरा ठिकाना चांदनी चौक की साइकिल मार्किट के पीछे कूचा चौधरी में था जो भापा प्रीतम सिंह, ज्ञानी जसवंत सिंह तथा प्यारा सिंह दाता वाली प्लेज़र गार्डन मार्किट में पड़ता था।
कूचा चौधरी के 20 नम्बर मकान में मेरी मां के तीन भुआ के बेटे रहते थे जिनकी आय का स्रोत टैक्सियां थीं। उममें सबसे बड़ा सुखदेव सिंह दिल्ली की टैक्सी यूनियन का सचिव था और उसके प्लेज़र गर्डन के कारोबारियों के साथ अच्छे संबंध थे। उनमें से भापा प्रीतम सिंह की रिहाइश अमृता प्रीतम की उस कोठी के पीछे थी जो अनदेखी का शिकार हो चुकी है। मैंने अमृता प्रीतम को भापा जी के माध्यम से जाना और इन्द्रजीत से इमरोज़ बने चित्रकार को अमृता के माध्यम से। उसने इमरोज़ नाम अपनी इच्छा से ग्रहण किया या अमृता के कारण, किसी को नहीं पता।  यह बात तो जगजाहिर है कि जब 1958 में भापा जी ने ‘आरसी’ नामक साहित्यिक पत्रिका निकाली तो उन्होंने अमृता प्रीतम को पत्रिका की निगरान बनाया था। किसी कारण यह प्रबंध टूटा तो अमृता प्रीतम को साहित्यिक पत्रिका की ऐसी चेटक लग चुकी थी कि उसने भी ‘नागमणि’ नामक साप्ताहिक पत्रिका निकाल ली। यह बात अलग है कि अब उन्होंने इमरोज़ को अपने साथ जोड़ लिया और पत्रिका के प्राथमिक पृष्ठ पर सम्पादकीय जोड़ी के स्थान पर ‘कामे : अमृता इमरोज़’ लिखने की प्रथा कायम की। इस विधि से अमृता प्रीतम का ध्यान साहिर लुधियानवी पर से सदा के लिए टूट गया और वह इमरोज़ की होकर रह गई। साहित्यिक आंगनों में ये बातें चर्चा का विषय रही हैं परन्तु इस बात की ओर लोगों का ध्यान नहीं गया कि इमरोज़ ने अमृता तथा उसके परिवार के लिए जीवन न्योछावर कर दिया था। यह बड़ी कुर्बानी वाली बात थी। पंजाबी प्रेमी अमृता को याद करेंगे तो इमरोज़ की देन भी नहीं भूलने लगे। उसका नाम रहती दुनिया तक अमृता प्रीतम के अंग-संग रहेगा। 
अंतिका
—टी.एन.राज़—
हो मुबारक साल का
 पहला महीना आप को,
और मिल जाये नई 
कोई हसीना आप को।
हम दिसम्बर में मगर 
पूछेंगे हज़रत ये ज़रूर,
मिल गया क्या इश्क की 
मंज़िल का ज़ीना आप को।