विश्व-प्रभावी घटना जैसा होगा प्राण-प्रतिष्ठा समारोह

अयोध्या में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा से जुड़े कार्यक्रम को लेकर समूचे संसार में उत्सवी माहौल है। अमरीका के कैलीफोर्निया, न्यूयार्क, वाशिंगटन, शिकागो में कार रैली हो रही है तो टाईम्स स्क्वायर पर विशेष जुटान के साथ पेरिस में राम रथ यात्रा का आयोजन, एफिल टावर के पास रामोत्सव मनेगा तो कनाडा के मंदिरों में पूजन और दीपोत्सव होगा। श्री राम से सीधे संबंधित देश नेपाल, श्रीलंका से आने वाली चरण पादुकाएं और नेपाल से बहुत सी सामग्रियां आ चुकी हैं। अयोध्या के मुख्य कार्यक्रम को 60 से लेकर 160 देशों में सजीव प्रसारण के जरिये दिखाए जाने का दावा है। 55 से अधिक देशों के राजनयिक, राज्य प्रमुख और राजदूत इस अवसर पर उपस्थित रहेंगे। भले ही पड़ोसी अफगानिस्तान में हिंदू दहाई की संख्या तक सिमट गये हों पर कंबोडिया, भूटान, लाओस, तिब्बत तथा चीन जैसे कुछ और देश जहां किसी न किसी रूप में रामकथा है, वहां का हिंदू जनमानस भी इसके प्रति अपनी श्रद्धा रखता होगा, उनके प्रतिनिधि भी शामिल हो सकते थे। 
तकरीबन दो दर्जन देश ऐसे हैं जहां रामकथा, उनके चरित्र का मंचन गायन होता है और इससे भी अधिक संख्या उन देशों की है जहां हिंदू आबादी ठीक ठाक संख्या में है। सवाल यह है कि राम जी के देश भारत से अलग हुए पाकिस्तान और बांग्लादेश में भगवान राम की इस प्राण प्रतिष्ठा को लेकर कितना उत्साह है। फिजी, गुयाना, इंडोनेशिया, मलेशिया, मॉरीशस, म्यांमार, श्रीलंका, सूरीनाम, थाईलैंड, त्रिनिदाद और टोबैगो, वियतनाम के प्रतिनिधि अयोध्या आमंत्रित हैं। इन सभी देशों की हिंदू आबादी इस प्राण प्रतिष्ठा को लेकर बहुत उत्सुक और प्रसन्न होगी। प्राण प्रतिष्ठा के आयोजन का जो प्रचार प्रसार है, उसे देख एक अति उत्साहित तबका इसे भारत के हिंदू राष्ट्र बनने की प्राथमिक तैयारी बताने लगा है तो कुछ की आखों में वृहद्, वृहत्तर या अखंड भारत के सपने तैरने लगे हैं। भारत के ऐसे मानचित्र की जिसमें वर्तमान का  अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, मालदीव, म्यांमार, नेपाल, पाकिस्तान, श्रीलंका और तिब्बत सब शामिल हों। भले ही ‘एक झंडे, एक सीमारेखा’ के भीतर एक व्यवस्था के अंतर्गत इनको देखना एक दिवास्वप्न हो परन्तु जावा, सुमात्रा, बाली हो या नाम्पेन्ह अथवा काबुल, कराची, वहां रहने वाले हिंदू धर्मावलंबियों की तरफ तो देखा जाना चाहिये जो दुखियों के तारणहार भगवान राम की प्राण प्रतिष्ठा की ओर श्रद्धापूर्ण नयनों से निरखते, भारत को एक सशक्त हिंदू राष्ट्र बनने पर अपने सशक्तीकरण का आशापूर्ण स्वप्न देख रहे होंगे।   
प्राण प्रतिष्ठा के अवसर पर पहुंचे प्रतिनिधि जानते हैं कि भारत की नीतियां विभेदकारी नहीं हैं। उनमें स्पष्ट है कि भारत हिंदू राष्ट्र बनने के प्रयत्न में नहीं है, न ही वह अखंड भारत का अतार्किक स्वप्न देख रहा है। सरकार ने भी ऐसी कोई मंशा कभी जाहिर नहीं की लेकिन इतना तो तय है कि उन्हें हिंदू बहुसंख्यक की शक्ति और भारत की बहुसंख्यक जनता द्वारा चुनी गई सरकार की ताकत का अहसास होगा। सभी प्रतिनिधि एक औपचारिक आमंत्रण के अंतर्गत आये होंगे। उनसे किसी समस्यामूलक प्रश्न पर वार्ता तो संभव नहीं होगी पर यदि इसकी संभावना होती या इस अवसर के बाद भी भारत सरकार शायद ही उन संबंधित देशों के सामने यह चिंता दर्ज कराती कि वह उनके यहां रहने वाले हिंदुओं के प्रति इस आधार पर चिंतित है कि वह एक हिंदू बहुल देश है। उन देशों में बुरी तरह घटती हिंदू आबादी, उनके पलायन उनके साथ होने वाले सामाजिक और शासकीय दुर्व्यवहार के प्रति उसका भी कोई सरोकार है। एक नागरिक के बतौर उन देशों में रहने वाले हिंदुओं के अधिकारों का हनन और प्रतिष्ठा के दमन के प्रति भारत सरकार द्वारा संबंधित देशों से कोई स्पष्ट प्रतिकार अब तक तो व्यक्त नहीं किया गया। क्या इस विश्व प्रभावी घटना के बाद ऐसा होगा? किसी गैर इस्लामिक देश में यदि मुस्लिमों के साथ इस तरह का व्यवहार होता है तो इस्लामिक देश चिंता व्यक्त करने के साथ राजनयिक और कूटनीतिक पहल और कई बार हिंसक प्रतिरोध कर संबंधित देश पर दबाव बनाते हैं ताकि यह संकेत जाए कि मुस्लिम विश्व में कहीं अकेले नहीं। हिंसक विरोध उचित नहीं लेकिन वार्ता और कूटनीतिक प्रयासों की आवश्यकता से भी इन्कार नहीं होना चाहिये विशेषत: इस अवसर के बाद।
 मलेशिया का संघीय संविधान इस्लाम को आधिकारिक राज्य धर्म स्थापित कर बहुसंख्यक मुसलमानों को प्राथमिकता देता है। वहां की अदालतें, कानूनी नियम हिंदू समुदायों को अपने धार्मिक रीति रिवाज़ पूरे करने, इकट्ठा होने या अपने संगठनों को पंजीकृत करने पर प्रतिबंध लगाते हैं। मस्जिदों को सरकारी जमीन और मदद मिलती है, हिंदू धार्मिक स्थानों को उपेक्षा। उन्हें कानूनी मामलों में जबरन फंसा कर शरीया अदालतों में पेश किया जाता है। टुबैगो, त्रिनिडाड में हिंदुओं से भेदभाव का इतिहास भी दशक पुराना होता जा रहा है। वहां आज भी इंडो-त्रिनिडाडियंस समूह सरकारी नौकरियों और अन्य सरकारी सहायता से वंचित हैं। हिंदू त्यौहारों के दौरान हिंसा आम है। फिजी में हिंदुओं के साथ लगातार दुर्व्यवहार हो रहा है। उनकी दुकानों, स्कूलों और मंदिरों को कई बार तोड़ा और लूटा गया। अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता पर 2019 रिपोर्ट के अनुसार भूटान में भी हिंदुओं के साथ भेदभाव होता है। विश्व हिंदू परिषद, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी तीन साल पहले कहा था कि अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय को वहां धार्मिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है। हालांकि वहां की सरकार ने कहा कि हिंदुओं और बौद्धों के बीच घनिष्ठ संबंध हैं लेकिन उनसे स्थिति को स्पष्ट करने का अनुरोध तो किया ही जा सकता है। लाओस में जहां ठीक ठाक संख्या में मंदिर और हिंदू हुआ करते थे, अब सब विलुप्तप्राय है। वियतनाम में गिनती के हिंदू बचे हैं। दो हजार साल से भी पुराना हिंदू धर्म का इतिहास यहां तकरीबन खत्म होने के कगार पर है। यहां इनकी धार्मिक पुस्तकें पाना तक मुहाल है। सिंहली बहुल श्रीलंका में हिंदुओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार कई दशकों से हो रहा है। कभी बांग्लादेश में 33 प्रतिशत हिंदू थे, आज 8 प्रतिशत से कम। पाकिस्तान चुनावों में कुछ हिंदू उम्मीदवार मैदान में हैं लेकिन वहां के हिंदुओं की दुर्दशा और उन पर होने वाले भीषण अत्याचार विश्व बिरादरी से छिपे नहीं हैं। मध्यपूर्व के कुछ देश भी इस मामले में पीछे नहीं हैं। इस्लामिक देशों में हिंदुओं की प्रताड़ना नई बात नहीं पर ब्रिटेन, अमरीका और यूरोप में भी हिंदुओं के साथ जातीय नस्लीय धार्मिक दुर्व्यवहार, भेदभाव बढ़ता जा रहा है। फिलहाल तो जिन देशों के हिंदू सांसत में हैं, उनके प्रतिनिधि प्राणप्रतिष्ठा में आमंत्रित हैं। उनको तो इस बात का संकेत दिया ही जा सकता है कि हम दूसरे देशों में बसे बेचारगी में जी रहे हिंदुओं के प्रति सहानुभूति रखते हैं। हम एकपक्षीय विश्व-बंधुत्व या वसुधैव कुटुम्बकम की भावना के हामी नहीं हैं। कोई देश अपने देश में अल्पसंख्यकों के लिये कैसा कानून बनाता है या कैसा व्यवहार करता है, यह उनका आंतरिक मामला भले हो पर मानवता के आधार पर ऐसी स्थितियों में इस तर्क के साथ हस्तक्षेप करने में कोई बुराई नज़र नहीं आती कि कहीं भी निवास करने वाला हिंदू का मूल भारत होगा। वह हमारी आस्थाओं, मान्यताओं का सहधर्मी, सहोदर है।

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