शाकाहारी, मांसाहारी और अब वेगन क्या खायें और क्या न खायें?

यह व्यक्ति पर निर्भर है कि वह क्या खाये, क्या पिये, लेकिन स्वस्थ रहने के लिए शरीर को ज़रूरी विटामिन, खनिज और अन्य पौष्टिक चीजों की जरूरत होती है। ये तत्व अनाज, सब्जी, दूध, फल, अंडे, मांस, मछली तथा अन्य पदार्थों से मिल जाते हैं। खाने-पीने के मामले में अपने से ज्यादा दूसरों की बात नहीं माननी चाहिए। जिसका जो मन करे या स्वाद, सुगंध में अच्छा लगे, वही खाया पिया जाये, किसी का क्या जाता है? यहां तक तो ठीक है, लेकिन जब कोई यह कहे कि जो वह खानपान में इस्तेमाल करता है, वही दूसरे भी करें, तब समस्या हो जाती है।
खानपान के प्रकार
आम तौर पर एक तो शाकाहारी होते हैं जो केवल साग-सब्जी, दाल-भात, फल, मेवे जैसी चीजों के अलावा कुछ नहीं खाते। दूसरे वे जो ये चीज़ें तो खाते ही हैं लेकिन साथ में पशुओं से प्राप्त चीजें जैसे दूध और उससे बने पदार्थ, शहद, अण्डे भी खा लेते हैं और शाकाहारी ही कहलाते हैं। तीसरे वे जो इन सब के साथ कभी-कभी मांस-अंडा का भी सेवन कर लेते हैं और मिश्रित शाकाहारी कहे जा सकते हैं। चौथे वे जो मांसाहार के अलावा कुछ नहीं खाते।
यह तो हो गया सामान्य-सा वर्गीकरण, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से दुनिया भर में एक चलन बढ़ रहा है और भारत भी इससे अछूता नहीं है। यह है सिर्फ  और सिर्फ  वही खाया जाए जो ज़मीन में उगता है या पेड़ पौधों से मिलता है। अगर किसी भी पशु से मिला है तो वह उनके लिए खाने योग्य नहीं है। इसमें दुधारू पशुओं से मिलने वाला दूध और उससे बने पदार्थ, मधु मक्खी से मिला शहद और वह सब शामिल है जो किसी भी पशु, पक्षी, कीट आदि से मिला हो। यहां तक तो गनीमत है लेकिन इनके लिए वह सब भी किसी काम का नहीं जो किसी भी रूप में पशु से मिला हो। जैसे कि भेड़ या किसी अन्य जानवर से मिली ऊन से बने वस्त्र जो इनके लिए वर्जित हैं। अब जहां सर्दी बहुत पड़ती है तो वहां ऊनी कपड़ों की ज़रूरत तो होगी ही, लेकिन यह नहीं पहनेंगे। स्वेटर, शाल, चमड़े की जैकेट, बेल्ट, पर्स या बैग और इसी तरह की दूसरी चीजें जिनके बनाने में किसी भी पशु का इस्तेमाल हुआ हो, चाहे हाथी दांत से कुछ बना है, इनके लिए व्यर्थ है। इसी तरह रेशमी वस्त्र यानी सिल्क की साड़ी, कुर्ता, कमीज़ कुछ नहीं पहन सकते। मतलब यह कि न ऐसा कुछ खाएंगे या पियेंगे और न ही पहनेंगे जिसका संबंध किसी पशु से हो। ये लोग ‘वेगन’ कहलाते हैं और हमारे देश का विशेषकर युवा वर्ग और उसमें भी धनी लोग इसे काफी संख्या में अपना रहे हैं। इसे उनका लाईफ  स्टाईल कह सकते हैं और कह सकते हैं कि वेगन बनना एक फैशन बन गया है।
अब ये लोग अधिकतर पैसे वाल होते हैं। इनके लिए खास तौर पर ‘वेगन फूड’ भोजन तैयार किए जाते हैं, सिंथेटिक कपड़े बनते हैं, ज़ाहिर है कि इनकी कीमत इतनी होती है कि हर कोई नहीं खरीद सकता। मतलब यह कि यदि स्वस्थ रहना है तो महंगी और ज्यादातर विदेशी वस्तुओं का इस्तेमाल हो। अब जो दूध या अण्डा कुछ रुपयों का अपनी ज़रूरत भर मिल जाए और दूसरी तरफ  वेगन होने के चक्कर में सैंकड़ों रुपये खर्च हो जाएं तो इसे अमीरों का चौंचला ही कहा जाएगा। यहां एक समस्या और होती है और वह यह कि दूध, पनीर, अंडे से जो पौष्टिकता मिलती है और दूसरी खाने पीने की चीजों से जरूरी विटामिन, मिनरल और उर्जा शरीर को मिलती है, वह न मिलने से शरीर को तो बीमार पड़ना ही है। सोचिए, शिशु को दूध न मिले तो वह कितना कमज़ोर रह जाएगा। युवाओं को अगर पौष्टिक भोजन न मिले तो उनका बौद्धिक विकास रुक जाएगा। 
वेगन लोगों का कहना है कि अगर उनके आहार में कमी है तो वे दवाईयां ले लेंगे, लेकिन प्रश्न यह है कि क्या कोई ऐलोपैथिक दवा है जिसके बनने से पहले उसकी उपयोगिता की जांच के लिए चूहे, बंदर जैसे जानवरों का इस्तेमाल न किया गया हो। कोविड की डोज़ का भी परीक्षण बन्दर पर हुआ था। जहां तक आयुर्वैदिक और होमियोपैथिक या यूनानी दवाओं की बात है तो इन्हें एलोपैथी के सामने कुछ नहीं समझा जाता।
इसे इस तरह समझना होगा। हमारे देश में पशु पालन, खेतीबाड़ी का हिस्सा है और लगभग दो तिहाई ग्रामीण आबादी इससे जुड़ी है। इसमें गाय भैंस जैसे दुधारू पशुओं के अतिरिक्त भेड़, बकरी, मुर्गी, सुअर से लेकर मधुमक्खी पालन तक के व्यवसाय आते हैं। असल में शाकाहारी सोच की शुरुआत पशुओं पर होने वाले अत्याचार और उनकी हत्या रोकने से हुई थी। यहां तक तो ठीक है क्योंकि निर्दयता को कभी स्वीकार नहीं किया गया चाहे वह मनुष्य के साथ हो या मूक पशु के साथ, परन्तु यदि इसे खानपान से जोड़ दिया जाता है तो यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन कहा जाएगा। शाकाहारी यह कहते हैं कि दूध और उससे बने पदार्थ जैसे दही, पनीर, खोया, घी आदि का सेवन नहीं करेंगे परन्तु खाद्य तेलों से बने पदार्थों और इसके साथ ही पेड़ पौधों से प्राप्त वस्तुओं का सेवन कर सकते हैं। यहां तर्क यह दिया जा सकता है कि वनस्पतियां और पेड़ पौधों की प्रजातियां भी तो जीवन का पर्याय हैं। बीज, अंकुर, पुष्प, फल और फिर पतझड़ ये सब क्या बताते हैं कि इनमें भी जीवन है। तो फिर शाकाहारी को इनका भी सेवन नहीं करना चाहिए। अगर यह हुआ तब तो वे भूखे ही रहेंगे। इसलिए शाकाहारी होना केवल एक भ्रम या मिथक है जो जितना जल्दी टूट जाये उतना ही बेहतर है। अभी हमारे यहां लगभग चौथाई आबादी शाकाहारी है और उनके लगभग एक तिहाई वेगन हैं, इसलिए कह सकते हैं कि चिंता की बात नहीं लेकिन सामाजिक तानाबाना तोड़ने के लिए एक चिंगारी ही काफी है, इसलिए सावधानी आवश्यक है।