कृषि के अच्छे भविष्य के लिए कदम उठाए जायें

भारत के आज़ाद होने के समय 70 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या कृषि में लगी हुई थी, जो अब लगभग 49 प्रतिशत पर आ गई है। आर्थिक तौर पर अभी भी 65-70 प्रतिशत तक लोग कृषि पर निर्भर हैं। जो कृषि विकास दर गिर रही है, वह चिंता का विषय है। सन् 2009-10 में कृषि विकास दर 4.3 प्रतिशत हो गई थी, जो अब कम होकर 3.7 प्रतिशत पर आ गई। आज़ादी के समय वार्षिक आर्थिक पैदावार (जी.डी.पी.) में कृषि का योगदान 54 प्रतिशत था, जो अब 17-18 प्रतिशत पर आ गया। किसानों की बहुसंख्या के पास छोटे खेत हैं। लगभग 80-85 प्रतिशत कृषि करने वालों के खेतों के आकार दो हैक्टेयर से भी कम हैं। इन छोटे खेतों से पैदावार की आय उनके गुज़ारे के लिए पूरी तरह से काफी नहीं, इस लिए उनकी बहुसंख्या कज़र्ाई है। कृषि काश्तकारों के मुकाबले खेत मज़दूरों की तादाद बढ़ रही है। इस प्रकार कृषि लाभदायक होने से पीछे रहती जा रही है। लोकसभा चुनाव के निकट भविष्य में आने वाली हैं और सरकारों द्वारा लोगों के लिए धड़ाधड़ रियायतें घोषित की जा रही हैं। कई स्थानों पर कई श्रेणियों के लिए बिजली मुफ्त कर दी गई है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा छोटे और मध्यम किसानों को 6000 रुपये प्रति वर्ष दिया जा रहा है। कई स्थानों पर महिलाओं को 1000 से 1500 रुपये प्रति माह देने की योजनाएं बनाई गई हैं। परन्तु कृषि उपज की कीमतें दूसरी चीज़ों के मुकाबले नहीं बढ़ीं, जिसके कारण कृषि लाभदायक नहीं रही और किसान कज़र् में फंसते जा रहे हैं। किसान द्वारा 23 फसलों, जिनकी एम.एस.पी. घोषित की जाती है, की एम.एस.पी. की कानूनी तौर पर गारंटी के लिए आंदोलन किए जा रहे हैं। किसान नेताओं का कहना है कि प्रो. स्वामीनाथन कमिशन की सिफारिशों के अनुसार सी 2+50 प्रतिशत मुनाफा लगाकर एम.एस.पी. निश्चित नहीं की जा रही। 
केन्द्र सरकार द्वारा गेहूं के आयात पर लगाई गई पाबंदी किसान-पक्षीय नहीं। गैर-बासमती चावल के आयात पर भी जो केन्द्र द्वारा पाबंदियां लगाई गई हैं, वे किसान पक्षीय नहीं हैं, उपभोक्ता पक्षीय ज़रूर हैं। किसानों का यही गिला है कि सरकार की नीतियों का झुकाव किसान  पक्षीय में नहीं है। इस तरह कृषि का भविष्य कुछ धुंधला नज़र आता है। कृषि अनुसंधान में तबदीली लाने की आवश्यकता है। कृषि अनुसंधान गेहूं, धान के अलावा अन्य फसलों और मंडीकरण संबंधी भी किए जाने चाहिएं।
अनुसंधानकर्ताओं को पशु-पालन, ब़ागबानी, सब्ज़ियों की काशत, मच्छलियों की पैदावार और तेल बीज आदि फसलों के अनुसंधान की तरफ अधिक ध्यान देना चाहिए। गुणवत्ता (क्वालिटी) की तरफ भी विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। भविष्य में दरपेश समस्याओं के हल के लिए पानी की बचत की तरफ भी विशेष ध्यान दिया जाए। तुपका और छिड़काव सिंचाई के साधन प्रयोग किए जाएं। चाहे डा. सरदारा सिंह जौहल जैसे प्रसिद्ध विज्ञानिक और कृषि विशेषज्ञ यह कहते हैं कि पानी की खपत घटाने के लिए ट्यूबवैलों की मुफ्त दी जा रही बिजली की सुविधा समाप्त करने की आवश्यकता है। परन्तु राजनीतिक कारणों के कारण ऐसा करना संभव नहीं होगा। ज़रूरत से अधिक फसलों में नाइट्रोजन डालनी बंद की जाए। अब गेहूं में विशेषज्ञ और पी.ए.यू. 110 किलो यूरिया प्रति एकड़ डालने की सिफारिश करते हैं, लेकिन बहुत से किसान 200 किलो तक गेहूं की फसल में यूरिया डाली जा रही है।
फसली-विभिन्नता लाने की सख्त ज़रूरत है। पंजाब में इस संबंधी कोई सफलता प्राप्त नहीं हुई। प्रत्येक वर्ष धान की काशत अधीन क्षेत्र बढ़ता जा रहा है, जो 31 लाख हैक्टेयर से ज्यादा हो गया है। गेहूं की काशत बदसतूर 35 लाख हैक्टेयर क्षेत्र पर की जा रही है। अनुसंधान द्वारा किसानों को गेहूं-धान के फसली चक्कर जितनी आय देने वाली फसलों की योग्य किसमें विकसित करके देने की आवश्यकता है। सरसों और तेल बीज आदि फसलों की उत्पादकता 20-30 प्रतिशत तक बढ़ सकती है, यदि जी.एम. तकनीक अपनाई जाए। इस पर विचार-विमर्श की ज़रूरत है। नरमे में यह तकनीक अपनाने पर शानदार परिणाम सामने आए हैं। यह तकनीक अपनाने से दवाइयों के छिड़काव बड़े स्तर पर घटे हैं और उत्पादकता बढ़ी है।