न्यायिक प्रक्रिया संबंधी उठे सवाल

अपने लिखित संविधान में भारत एक ऐसा लोकतंत्र है, जिसमें कानून का शासन है। नि:संदेह लोकतंत्र की रक्षा स्थापित कानूनों को उनकी भावना के अनुसार ही क्रियान्वयन में लाये जाने से हो सकती है। ऐसी कानूनी प्रक्रिया में अदालतों की मुख्य भूमिका है। इसलिए इन्हें लोकतंत्र का एक मज़बूत स्तम्भ माना जाता है। देश में ऐसी अदालतों का क्रम निम्न स्तर से चल कर सर्वोच्च अदालत तक पहुंचता है। पिछले समय में चाहे अदालतों द्वारा दिये गये फैसलों को अपने-अपने विचारों एवं भावना से लिया जाता रहा है, इनकी प्रशंसा के साथ-साथ आलोचना भी होती रही है, परन्तु इसके बावजूद अभी तक लोगों के मन में अदालतों के प्रति विश्वास बना रहा है। ऐसे विश्वास पर परिपक्व होते रहने से ही देश में मज़बूत लोकतंत्र की कल्पना की जा सकती है। इसके लिए यह बेहद ज़रूरी है कि लगातार ऐसे प्रबन्ध और पुख्ता किये जाते रहें ताकि इनकी विश्वसनीयता को बनाये रखने में सहायक हों। ऐसा तभी सम्भव होगा यदि अदालतें बिना किसी दबाव से अपने फज़र् की पालना करें। इसी कारण यह आवाज़ उठती रही है कि जजों के चयन के लिए निष्पक्ष प्रक्रिया के प्रबन्ध किये जाने ज़रूरी हैं। इसी कारण ही पिछले लम्बे समय से इस संबंधी उच्च स्तर पर चर्चा चलती रही है। यदि न्याय व्यवस्था की मौजूदा स्थिति की बात की जाये तो इससे भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि आज देश भर में अलग-अलग स्तरों पर लाखों ही मामले वर्षों से नहीं अपितु दशकों से लटक रहे हैं। आम व्यक्ति इन्साफ के इंतज़ार में ही अपना पूरा जीवन व्यतीत कर देता है। इन्साफ लेने की प्रक्रिया इस सीमा तक महंगी हो चुकी है कि साधारण व्यक्ति के लिए इस तक पहुंच करना भी बेहद कठिन है। आज की राजनीति में ऐसा दौर चल रहा है, जिसमें प्रत्येक ढंग-तरीके से अदालतों को प्रभावित करने का यत्न किया जाता है। ऐसे यत्न अदालतों की छवि को धूमिल करने का कारण बनते हैं, जिससे बड़े विवाद पैदा होते हैं। इसी सन्दर्भ में ही पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के मुख्य जज डी.वाई. चन्द्रचूड़ को देश भर से 600 से अधिक वकीलों की ओर से लिखे गये पत्र को देखा जा सकता है, जिसमें उन्होंने चिंता व्यक्त की है कि कुछ शक्तिशाली समूहों एवं संगठनों द्वारा डाले जाते हर तरह के दबाव से अदालतों के फैसलों को प्रभावित करने का प्रयास किया जाता है।
इस संबंध में वरिष्ठ राजनीतिज्ञों की ओर से प्रतिक्रिया भी व्यक्त की गई है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि डराना एवं धमकाना एक बड़ी राष्ट्रीय पार्टी की पुरानी संस्कृति है। दूसरी तरफ कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा है कि मोदी सरकार समय ही सुप्रीम कोर्ट के कुछ जजों ने एक प्रैस कान्फ्रैंस करके लोकतंत्र के खत्म होने के विरुद्ध चेतावनी दी थी, इसके अतिरिक्त भी अलग-अलग पार्टियों के नेताओं ने इस संबंध में अपनी-अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त  की हैं।
हम समझते हैं कि देश की अदालती प्रक्रिया को मज़बूत करने के लिए व्यापक स्तर पर गम्भीर विचार-विमर्श किये जाने की ज़रूरत है, जिसमें देश के भिन्न-भिन्न वर्गों के प्रतिनिधियों को चुन कर हर पक्ष से विचार-विमर्श करके अदालती प्रक्रिया को मज़बूत बनाने एवं इसे हर स्थिति में दबाव से मुक्त रखने के लिए प्रबन्ध किये जाने की ज़रूरत है। ऐसा करना इसलिए बेहद ज़रूरी है ताकि लोगों के मनों में अदालतों का विश्वास बना रहे तथा सही अर्थों में देश में कानून का शासन स्थापित किया जा सके।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द