सिख पंथ को सचेत होने की ज़रूरत

सिख कौम की हालत प्रसिद्ध शायर बशीर बदर के इस शेयर जैसी लगती है : 
ज़िंदगी तूने मुझे कब्र से कम दी है ज़मीं,
पांव फैलाऊं तो दीवार से सर लगता है।
सिख धर्म एक धर्म के तौर पर नवीनतम धर्म है, लेकिन इसके बावजूद इसके इतिहास में मिलावट और मिश्रण की कोई कमी नहीं। अभी शुक्र है कि साहिब श्री अर्जुन देव जी ने और बाद में साहिब श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी ने श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी को इस प्रकार संपादित किया है कि उसमें कोई अदला-बदली नहीं हो सकती। उसमें कोई व्यक्ति या संस्था या विरोधी कोई मिश्रण नहीं सकते। लेकिन अफसोस इस बात का है कि शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने श्री अकाल तख्त साहिब से स्वीकृत जो सिख रहित-मर्यादा लागू करवाई थी, वह पूरी कौम में अभी तक भी सर्व स्वीकार्य नहीं हो सकी।
सिख अभी भी कई मामलों पर बंटे हुए हैं। सबसे बड़ी बहस दशम ग्रंथ की रचनाओं को लेकर चलती रहती है और सिख इस मामले में बुरी तरह दो गुटों में बंटे हुए हैं। परन्तु अब एक नए ग्रंथ को सचेत रूप में दशम ग्रंथ की तरह ही उभारने की कोशिश की जा रही लगती है। सबसे बड़ी हैरानी की बात यह है कि इस ग्रंथ को साहिब श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी की रचना के तौर पर उभारने की अप्रत्यक्ष कोशिश भी वे लोग ही कर रहे है, जो लगातार दशम ग्रंथ का विरोध करते आ रहे हैं। हम समझते हैं कि यदि शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी, अन्य सिख संस्थाओं, सिख विद्वानों और सिख तख्तों के जत्थेदारों ने सामूहिक रूप में इस बारे में अभी कोई फैसला न लिया तो बाद में यह अप्रत्यक्ष कोशिश कौम में फूट डालने का बड़ा कारण ही नहीं बनेगी, बल्कि सिखी के गुरबाणी वाले सिद्धांतों के लिए भी एक चुनौती बनेगी।
हमारा माथा उस समय ठनका जब पिछले दिनों में ‘मंगलाचरण पुराण’ या ‘सर्बलोह ग्रंथ’ के बीच की तुकों को एक लेखक बार-बार प्रचारित करते नज़र आया, जो दशम ग्रंथ विरोधी पद्य का लगातार नेतृत्व करते आ रहा है।
उसने इस ‘मंगलाचरण पुराण’ या ‘सर्बलोह ग्रंथ’ की भीतरी तुकों 
‘या मे रंच ना मिथिया भाखी।।
पारब्रह्म गुरु नानक साखी।।’
को साहिब श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी द्वारा आप लिखी हुई रचना कहा है। हालांकि सिख विद्वान इस ग्रंथ को गुरु साहिब की रचना मानने से संकोच ही करते आ रहे है। हम ज्यादा विस्तार में नहीं जाते परन्तु सिर्फ इस ‘मंगलाचरण पुराण’ या ‘सर्बलोह ग्रंथ’ की प्रारम्भिक उक्ति का उदाहरण पाठकों, सिख विद्वानों और शिरोमणि कमेटी और श्री अकाल तख्त साहिब के सामने पेश कर रहे हैं जो इस प्रकार है :
्र  श्री वाहेगुरु जी की फतेह।
श्री भवानी जी सहाय।
श्री माया लछमी जी सहाय।
उस्तति श्री माया लछमी जी की।
श्री मुखिवाक्य पातशाही 10।
अब सवाल पैदा होता है कि क्या साहिब श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी श्री माया लक्ष्मी जी की सहायता मांग सकते हैं? क्या वह माया लछमी जी की उस्तति (भाव भक्ति) कर सकते हैं, वह भी बचित्तर नाटक की तरह किसी पिछले जन्म में नहीं, बल्कि इसी 10वें गुरु वाले जन्म में? यदि हम मानते हैं कि कर सकते हैं तो फिर हमें ‘केसाधारी’ हिन्दू कहने वालों को हम कैसे चुनौती दे सकते हैं? सबसे बड़ी यह बात यह भी है कि यह पूरा ग्रंथ सर्बलोह अवतार की उस्तति है। ‘काल’ या ‘महाकाल’ आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है, जबकि श्री गुरु ग्रंथ साहिब और सिखी विचारधारा ‘काल’ की नहीं, अकाल की पूजा पर ज़ोर देती है।
इसलिए हमारी श्री अकाल तख्त साहिब के जत्थेदार सहित बाकी तख्तों के जत्थेदारों, शिरोमणि कमेटी, सिख विद्वानों, जिनमें भारत से बाहर बैठे सिख विद्वान भी शामिल हैं, को सम्मान सहित निवेदन है कि अब शुरुआत से ही इस ग्रंथ को अप्रत्यक्ष रूप में अचेत तौर पर सिख मनों में साहिब श्री गोबिन्द सिंह जी की रचना के तौर पर स्थापित करने के यत्नों के प्रति सचेत हों तथा आपसी संवाद द्वारा इस बारे कुछ स्पष्ट फैसला लें। गौरतलब है कि यह सर्बलोह ग्रंथ पहली बार आप्रेशन दरबार साहिब (ब्लू स्टार) के समय सरकारी तौर पर श्री अकाल तख्त साहिब की इमारत बनाने वाले निहंग सिंह संगठनों के प्रमुख बाबा संता सिंह द्वारा प्रकाशित करवाया गया था। इसके कुल अंक 862 पन्ने हैं और इसमें 4361 छंद हैं। महान कोष के लेखक भाई काहन सिंह नाभा का प्रस्ताव था कि इस ग्रंथ में ‘रूप दीप भाषा पिंगल’ का उल्लेख है जिसकी रचना साहिब श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी के देहांत के बाद 1776 बिक्रमी (1719 ईस्वी) में हुई थी। प्रसिद्ध सिख विद्वान डा. रत्न सिंह जग्गी ने इस बारे में लिखते हुए कई सवाल उठाए हैं और कहा कि इस ग्रंथ का इतिहास संदेह पूर्ण है।
यदि हमारी स्वीकृत सिख संस्थाएं और विद्वान सचेत न हुए तो एक समय के अन्तराल पर सिख भी मुसलमानों के शिया और सुन्नी गुटों की तरह बांटे जा सकते हैं। जैसे किसी समय सिख एक बार तत्त खालसा और बंदई खालसा के बीच बांटे गये थे। वैसे भी सिख संस्थाओं और जत्थेदार साहिबानों को सिख कौम की भलाई और एकजुटता के लिए सिख धर्म के विद्वानों को साथ लेकर सिख धर्म में फैले बाकी भ्रम-वहमों और विवादों जिनमें बाणी के बारे, रहित मर्यादा बारे और कैलेंडर विवाद भी शामिल है, संबंधी कोई आम सहमति बनाने की तरफ ध्यान देना चाहिए ताकि कोई भी साज़िश, कोई बाहरी या अंदरूनी दुश्मन सिखी का नुकसान न कर सके और कभी भी आपसी फूट न पड़े। तरब सिद्दीकी के ल़फ्ज़ों में :
है अब भी वक्त संभल जाओ ऐ ‘तरब’ वरना, 
ज़माना तुम को ना रख दे कहीं फना करके।
दल-बदलुओं को सबक सिखाना ज़रूरी
वतन आज़ाद है अवसर नहीं है हाथ मलने का।
कि छोड़ो ‘हाथ’ ़गर मौका बना है फूल खिलने का।
हां झाड़ू ही लगा लो ़गर नहीं तक्कड़ी तुम्हें, मिलती, 
यहां पर खुल गया व्यापार है अब दल-बदलने का।
रातों-रात दलबदली पहले कभी-कभी ही होती थी लेकिन पिछले कुछ सालों से यह क्रम बहुत तेज़ हो गया है। इस बार तो हद ही हो गई है कि एक व्यक्ति एक पार्टी बदलता है, दूसरी की टिकट लेता है, जीत जाता है फिर नई पार्टी उसको टिकट भी दे देती है पर वह टिकट छोड़ कर एक अन्य पार्टी बदल लेता है और उसका उम्मीदवार बन जाता है। यह किस चीज़ की हद है, यह ‘ल़फ्ज़’ लिखने की मैं हिम्मत नहीं कर सकता। खैर दलबदली, लालच, डर और जीतने के आसारों के तहत ही होती है। सबसे बड़ा कारण जीत है। इसलिए कि बात सभी पाठकों को कहना चाहते हैं कि यदि कुछ अपना भला चाहते हो तो दल-बदली को जीत का आधार न रहने दो। यदि चाहते हो कि राजनीति में थोड़ी-बहुत मर्यादा, स्वच्छता और ईमानदारी बची रह जाए तो ऐसे सभी उम्मीदवारों जिन्होंने बिना किसी विचारधारा के रातों रात दल-बदली की है, चाहे किसी पार्टी से किसी भी पार्टी में गए हों, उनको समर्थन न दिया जाए। क्योंकि उन्होंने लोगों के विश्वास का मज़ाक ही नहीं उड़ाया, समाज में शर्म और मर्यादा की डोर भी तोड़ी है। ऐसा करके ही हम पार्टियों को दलबदल करवाने और उम्मीदवारों को दल-बदल करने से रोक सकते हैं।
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