ब्राज़ील जलवायु सम्मेलन के लिए पेड़ों पर चली कुल्हाड़ी

ब्राज़ील के नगर बेलेम में 10 नवम्बर से संयुक्त राष्ट्र का जलवायु परिवर्तन सम्मेलन कॉप-30 शुरू है, जो 21 नवम्बर तक चलेगा। इस सम्मेलन का मुख्य विषय उष्णकटिबंधीय वनों को बचाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है, परंतु यहां विरोधाभासी दृष्टिकोण देखने में आया, जो इस सम्मेलन की उपलब्धियों के पाखंड को प्रस्तुत करने वाला है। ब्राज़ील के जिस पारा प्रांत में बेलेम नगर स्थित है, वहां प्रतिदिन 50 हज़ार पेड़ों पर निर्ममता से कुल्हाड़ी चलाई जा रही है। जलवायु सम्मेलन के बहाने अमेजन के वर्शावन के करीब एक लाख पेड़ों को काटे जाने का सिलसिला चल रहा है। 
बेलेम क्षेत्र में काटे जा रहे इन पेड़ों की सबसे ज्यादा खपत अमरीका और यूरोप में होती है। बेलेम के इन वनों को ‘दुनिया के फेफड़े’ कहा जाता है। ये जंगल कार्बनडाइऑक्साइड को सोख कर सर्वाधिक ऑक्सीजन दुनिया की मानव आबादी को देते हैं। 8 मील के क्षेत्र में इन पेड़ों को इसलिए काटा गया है, क्योंकि सम्मेलन में उपस्थित होने वाले 50,000 नेता, पर्यावरणविद एवं जलवायु कार्यकर्ताओं को लाने-ले जाने की सुविधा मिल सके यानी जो लोग जलवायु संरक्षण के उपायों पर वार्तालाप हेतु एकत्रित हो रहे हैं, उनके लिए पेड़ काट कर सुविधाजनक मार्ग बनाया गया है। ऐसे में विचारणीय बिंदू है कि वे लोग जलवायु बदलाव पर अंकुश के उपायों पर क्या बात करेंगे जो खुद ही जंगल के विनाश का पर्याय बन रहे हैं। इस सिलसिले में अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने ठीक ही कहा है कि ‘पर्यावरणविधों के लिए अमेजन के जंगल को उजाड़ दिया, यह बहुत बड़ा घोटाला है।’ यहां भी विरोधाभास है कि इस घोटाले के लिए जो पेड़ काटे गए हैं, उनका अमरीका भी बड़ा खरीददार है।      
पेड़ों पर ही मनुष्य व अन्य प्राणियों का जीवन टिका हुआ है। गोया, पेड़ एक ऐसी प्राकृतिक संपदा है, जिसका यदि विनाश होता है तो मनुष्य का जीवन भी संभव नहीं रह पाएगा। जब से मानव सभ्यता के विकास का क्रम शुरू हुआ है, तब से लेकर अब तक वृक्षों की संख्या में 46 प्रतिशत की कमी आई है। पेड़ों की गिनती के अब तक के सबसे समग्र वैश्विक अभियान में दुनिया भर के वैज्ञानिक समूहों ने यह निष्कर्ष निकाला है। इस अध्ययन का आकलन है कि विश्व में लगभग तीन लाख करोड़ वृक्ष हैं। 
इस अध्ययन की विस्तृत रिपोर्ट के मुताबिक पेड़ों की उच्च सघनता रूस, स्कैंडीनेशिया और उत्तरी अमरीका के उप आर्कटिक क्षेत्रों में पाई गई है। इन घने वनों में दुनिया के 24 फीसदी पेड़ हैं। पृथ्वी पर विद्यमान 43 प्रतिशत, यानी करीब 1.4 लाख करोड़ पेड़ उष्णकटिबंधीय वनों में हैं। इन वनों का चिंताजनक पहलू यह भी है कि वनों या पेड़ों की घटती दर भी इन्हीं जंगलों में सबसे ज्यादा है। इस अध्ययन की प्रामाणिकता इसलिए पुख्ता है, क्योंकि इस सामूहिक अध्ययन को बेहद गंभीरता से किया गया है। इस हेतु 15 देशों के वैज्ञानिक समूह बने। इन समूहों ने उपग्रह चित्रों के माध्यम से वन क्षेत्र का आकलन प्रति वर्ग किलोमीटर में मौजूद पेड़ों की संख्या का मानचित्रीकरण में सुपर कंप्यूटर तकनीक का इस्तेमाल करके किया है। इस गिनती में दुनिया के सभी सघन वनों की संख्या 4 लाख से भी अधिक है। दुनिया के ज्यादातर राष्ट्रीय वन क्षेत्रों में हुए अध्ययनों को भी तुलना के लिए जगह दी गई। उपग्रह चित्रों के इस्तेमाल से पेड़ों के आकलन के साथ स्थानीय जलवायु, भौगोलिक स्थिति, पेड़-पौधे, मिट्टी की दशा पर मानव के प्रभाव को भी आधार बनाया गया। इससे जो निष्कर्ष निकले, उनसे तय हुआ कि मानवीय हलचल और उसके जंगलों में हस्तक्षेप से पेड़ों की संख्या में गिरावट की दर से सीधा संबंध है। जिन वन क्षेत्रों में मनुष्य की आबादी बढ़ी है, उन क्षेत्रों में पेड़ों का घनत्व तेज़ी से घटा है। वनों की कटाई, भूमि के उपयोग में बदलाव, वन प्रबंधन और मानवीय गतिविधियों के चलते हर साल दुनिया में 15 अरब पेड़ कम हो रहे हैं। जिस तरह से भारत समेत पूरी दुनिया में अनियंत्रित औद्योगीकरण, शहरीकरण और बड़े बांध एवं चार व छह पंक्तियों के राजमर्गों की संरचना धरातल पर उतारी जा रही हैं, उससे भी जंगल खत्म हो रहे हैं। ऐसे समय जब दुनिया भर के पर्यावरणविद् और वैज्ञानिक जलवायु संकट के दिनोंदिन और गहराते जाने की चेतावनी दे रहे हैं, पर्यावरण सरंक्षण में सबसे ज्यादा मददगार वनों का सिमटना या पेड़ों का घटना वैश्विक होती दुनिया के लिए चिंता का अहम् विषय है। विकास के नाम पर जंगलों के सफाए में तेज़ी भू-मंडलीय आर्थिक उदारवाद के बाद आई है। पिछले 15 साल में ब्राज़ील में 17 हज़ार, म्यांमार में 8, इंडोनेशिया में 12, मेक्सिको में 7, कोलंबिया में 6.5, जैरे में 4 और भारत में 4 हज़ार प्रति वर्ग किलोमीटर के हिसाब से वनों का विनाश हो रहा है यानी एक साल में 170 लाख हेक्टेयर की गति से वन लुप्त हो रहे हैं।  यदि वनों के विनाश की यही रफ्तार रही तो जंगलों के 4 से 8 प्रतिशत क्षेत्र सन् 2030 तक विलुप्त हो जाएंगे। 2040 तक 17 से 35 प्रतिशत सघन वन मिट जाएंगे। 

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