रोका जाना चाहिए किशोर न्याय कानून का दुरुपयोग

इसमें कोई संदेह नहीं कि सरकार जब कोई विशेष कानून बनाती है जैसे कि जुवेनाइल जस्टिस एक्ट अर्थात् किशोर न्याय कानून, बहुत सोच समझकर और हरेक चीज़ का बारीकी से ध्यान रखकर काम करती है। अब इन कानूनों और इनके अन्तर्गत दिये गये प्रावधानों पर क्रियान्वयन न के बराबर हो तो फिर इनका दुरुपयोग होना तो निश्चित ही है। 
कानून की आत्मा
किशोर यानी सोलह से अठारह वर्ष की आयु में यदि लड़के या लड़की से साधारण या गंभीर या फिर जघन्य अर्थात् इन्सानियत को झंझोड़ने जैसा अपराध होता है तो इसके लिए 8-9 साल पहले बना कानून इन्हें अपना जीवन एक नये सिरे से शुरू करने और अपराध न करने की मानसिकता बनाने का रास्ता दिखाता है। अब हमारे देश में क्योंकि इस कानून पर क्रियान्वयन ही नहीं हुआ और हुआ भी तो वह केवल लीपापोती की श्रेणी में आयेगा तो फिर इसका दुरुपयोग तो होना तय है। वकील, पुलिस और अदालतों से अपने मुताबिक फैसले लेने वालों की कोई कमी तो है नहीं, इसलिए कानून को हाशिये पर डाल दिया जाता है। 
कानून के गलत इस्तेमाल के सबसे बड़े उदाहरणों में एक तो निर्भया मामला था और दूसरा पूना में एक नाबालिग द्वारा शराब पीकर अपनी महंगी गाड़ी से दो लोगों को मार देना। इसलिए ज़रूरी हो जाता है यह समझना कि आखिर ऐसा करने वालों के लिए कानून का सुरक्षा कवच की तरह बन जाना कैसे संभव हो जाता है? सब से पहले यह जान लीजिए कि यह कानून ऐसे किशोर वर्ग के लिए बना था जो यदि ऐसा अपराध करते हैं जिसकी सज़ा किसी बालिग को सात या अधिक साल की दी जा सकती है, तो उन्हें एक अवसर मिलना चाहिए कि वे स्वयं को बदल सकें और दोबारा कोई जुर्म न करें। 
इनमें वे किशोर आते हैं जिन्हें उनके घरों से निकाल दिया गया हो, सड़कों पर भीख मांगते हों, उनसे कल-कारखानों में मज़दूरी करवाई जाती हो, अनाथ हों, यौन हिंसा के शिकार हों, खरीदा या बेचा जाता हो, नफरत से देखा जाता हो, असहाय हों, नशे की लत लग गई हो, उनकी सुध लेने या सुरक्षा करने वाला कोई न हो। वे बड़े यानी बालिग होकर अपराधी, हिंसक और समाज के लिए खतरा न बन जायें, इसलिए कानून बनाकर उनकी हिफाजत करने और अच्छा जीवन व्यतीत करने की व्यवस्था की जानी थी। 
प्रश्न उठता है कि क्या अठारह वर्ष का होते ही उनके साथ बालिगों जैसा व्यवहार होगा? इसकी भी व्यवस्था इस कानून में है। किशोर आयु के अपराधियों के साथ इक्कीस वर्ष का होने तक इसी कानून के अनुसार व्यवहार किया जायेगा। यदि अधिकतम सज़ा अर्थात् सात साल की अवधि पूरी नहीं हुई तो उन्हें जेल या किसी मान्ययता प्राप्त संस्थान में बाकी समय के लिए रखा जा सकता है। 
अब कानून को अपनी मज़र्ी से कैसे अपने मुताबिक किया जाता है, यह देखते हैं। निर्भया मामले में नाबालिग अपराधी गरीब वर्ग का था, लेकिन सब से अधिक हिंसक भी वही था। वह बरी हो गया और पता नहीं अब कहां होगा, क्या कर रहा होगा, फिर से अपराध करने लगा होगा या सुधर गया होगा, कुछ नहीं कहा जा सकता। अब दूसरे मामले में नाबालिग एक अरबपति परिवार से है, उसके लिए दुनिया के सभी ऐशो आराम के साधन तैयार हैं और वह किसी भी तरह से मौजमस्ती कर सकता है, किसी भी कानून को धता बता सकता है और पुलिस तथा प्रशासन उसके आगे हाथ बांधे खड़े नज़र आते हैं। ऐसा इसलिए कि वह ज़बरदस्त अमीरी में पला है। विडम्बना यह है कि उसे सभी तरह की सुरक्षा मिल जाती है, कानून के उन प्रावधानों को अमल में लाया जाता है जो उसके पक्ष में हैं। उसे बालिग यानी समझ से काम लेने वाला बनने में कुछ वक्त बचा है, इसलिए वह मासूम है और उसे बचा लिया जाता है। 
कानून के अनुसार कोई व्यवस्था नहीं 
कानून तो बन गया और बहुत ही बढ़िया, शानदार और वाह-वाह करने वाला बना। अफसोस इस बात का है कि उस पर कहीं कोई क्रियान्वयन करने या कानून में स्पष्ट रूप से कहे गये और किए जाने वाले इंतज़ाम पूरी तरह नदारद हैं। मन में यह विचार आता है कि ऐसा कानून क्यों बना जिस पर क्रियान्वयन नहीं करना है? इसके अंतर्गत मिली छूट तो लेनी है और पुलिस हो या अदालत, उन्हें मज़बूर कर देना है कि वे तथाकथित न्याय करें और दोषी को इस आधार पर बरी कर दें कि वह अभी बाली उमर का है, किशोर या किशोरी है, उससे गलती हो जाती है और वह निर्दोष है। 
कानून के अनुसार केंद्र और राज्य सरकारों से उम्मीद थी कि वे संस्थान बनायेंगे, राष्ट्रीय तथा राज्य आयोग गठित करेंगे ताकि किशोर अपराधियों को संरक्षण और उनका समाज की मुख्य धारा में शामिल किया जाना सुनिश्चित हो। जैसा कि अक्सर होता है, हो सकता है कागज़ों में यह सब खानापूर्ति कर ली गई हो, सरकारी खज़ाने यानी आम आदमी से मिला टैक्स के रूप में मिला धन उन्हें दे दिया गया हो, फज़र्ी संस्थान खड़े हो गये हों, कानून के अनुसार चिकित्सा, पौष्टिक भोजन, शिक्षा और दूसरी आवश्यक वस्तुओं के लिए विशाल धन-राशि मंज़ूर करने के बाद आपस में उसका बंटवारा हो गया हो और कुछ लोग इस कानून की बदौलत अमीर बन चुके हों। 
इस कानून में इतना कुछ है कि आपराधिक मानसिकता के दलदल में किसी भी कारण से पड़ गई जवान हो रही युवा पीढ़ी को बचाने का काम किया जा सकता है। किशोर अदालत, देखभाल करने के संस्थानों का निर्माण, आवारा बनने से बचाने के प्रयास, उनके लिए रोज़ी-रोटी कमाना आसान हो, इसके लिए उनका किसी व्यवसाय में प्रशिक्षण और उनकी योग्यता के अनुसार कौशल विकास और यहां तक कि बालिग होने पर अपने पैरों पर खड़ा हो सकने के लिए आर्थिक सहायता देने के प्रबंध और यदि कोई उन्हें गोद लेना चाहता है तो उसके लिए पारदर्शी व्यवस्था, यह सब तथा और भी बहुत कुछ है। दु:ख इस बात का है कि कानून को किताब की जिल्द में बांध कर रख दिया और उसे तब ही खोला जब उसका दुरुपयोग किया जा सकता हो। 
वास्तविकता क्या है?
अगर इस कानून पर थोड़ा-सा क्रियान्वयन कर लिया जाता तो सड़कों पर, धार्मिक पूजा स्थलों के बाहर, स्टेशन और अन्य स्थानों पर भीख मांगते किशोर नहीं मिलते, अपने खुद के बनाये ज़ख्मों को दिखाकर हमदर्दी की याचना करते दिखाई नहीं देते, किसी माफिया या गैंग के शिकार नहीं बनते, अपने शरीर के अंगों की कीमत लगाते नहीं पाये जाते, अमानुषिक अपराध तो दूर, मामूली चोरी चकारी करने से भी दूर रहते क्योंकि इनमें इतना परिवर्तन हो जाता कि वे समाज के लिए उपयोगी हो जाते। 
इस कानून की कमियां हैं और सबसे बड़ी यह कि इसका क्रियान्वयन न होने पर किसी को कोई सज़ा नहीं दी जा सकती। जो लोग इसके अंर्तगत अपराध करवाते पाये जाते हैं, उन्हें कोई सज़ा नहीं मिल सकती। किसी की ज़िम्मेदारी नहीं है कि वह इस कानून का पालन न करने वाले को जेल में बंद करना निश्चित करे। यह सब सपना देखने जैसा लगता है लेकिन यह कानून ऐसा है कि इस सपने को साकार किया जा सकता है बशर्ते कि सरकार और उससे भी अधिक समाज अपनी सोच बदले और कुछ तो सही करने में अपना योगदान सुनिश्चित कर ले। सोच कर देखिए कि क्या ऐसा भी हो सकता है?