‘पहले पड़ोसी’ नीति पर करना होगा पुनर्विचार

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यह दूरदर्शिता नि:संदेह प्रशंसनीय कही जाएगी कि इस बार अपने तीसरे कार्यकाल के शपथ ग्रहण से पूर्व उन्होंने अपनी, ‘पड़ोसी पहले’ की विदेश नीति को परिष्कृत व परिवर्धित तरीके से लागू करने के संकेत दिए। प्रधानमंत्री पद के लिए शपथ ग्रहण समारोह में पाकिस्तान, चीन, अफगानिस्तान छोड़कर कई पड़ोसी देशों को आमंत्रण देना इस ओर इशारा था कि पड़ोसियों के प्रति उनकी धारणा स्पष्ट है तथा वे उन्हें किस तरह की प्राथमिकता देते हैं। किसको किस खांचे में रखते हैं। यह भी कि वे सभी देशों की आंतरिक स्थिति से अवगत हैं, उनकी वर्तमान परिस्थितियां खुद उनके ऊपर और भारत समेत उनके शेष पड़ोसियों पर क्या और कितना प्रभाव डालेंगी, इससे भी वे पूरी तरह वाकिफ हैं। उन्हें अपने तीसरे कार्यकाल की शुरुआत से ही यह अंदेशा था कि निकट भविष्य में अपने आस पड़ोस या यों कहें कि समूचे दक्षिण एशिया में विकसित हो रहे भू-राजनीतिक परिदृश्य विषम होने वाले हैं और उसमें भारत को सतर्कता पूर्ण भूमिका निभानी होगी। इसके लिये पड़ोसी देशों के प्रति विवेक और व्यवहारिकता के साथ, अपने देश को ऊपर रखने वाली कूटनीतिक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। 
वर्तमान में अधिकतर पड़ोसी देशों की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक स्थिति देखते हुए यह समझा जा सकता है कि तकरीबन तीन महीने पहले प्रधानमंत्री का पूर्वानुमान, उनकी सोच कितनी दूरदर्शितापूर्ण थी। पड़ोसी प्रथम की नीति इस बार कितनी अधिक प्रासंगिक होने वाली है और दूसरे कार्यकाल से इस नीति को आगे बढ़ाने के लिये पिछले विदेश मंत्री को उनको पद पर बहाल रखना, नीति को पहले दिन से ही सक्रिय करना कितना समयानुकूल था, जिसके तहत विगत कुछ ही दिनों में भारतीय विदेश मंत्रालय श्रीलंका, बांग्लादेश, मालदीव जैसे कई पड़ोसियों से मिल चुका है। आज बांग्लादेश में हिंदुओं पर हमले और उसकी अस्थिरता की चर्चा चारों ओर है, लेकिन एक महीने बाद श्रीलंकाई चुनाव भी इस क्षेत्र में तमाम समस्याओं के जनक बन सकते हैं। श्रीलंका में चुनाव त्रिकोणीय हैं। रानिल विक्रमसिंघे को विपक्षी नेताओं समागी जन बालवेगया या एसजेबी के साजिथ प्रेमदासा और मार्क्सवादी विचारधारा वाली जनता विमुक्ति पेरामुना के अनुरा दिसानायके से कड़ी टक्कर मिलेगी। बिजनेस टाइकून धम्मिका परेरा स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतों के कारण राष्ट्रपति चुनाव नहीं लड़ रहे हैं, लेकिन उनका प्रभाव कई क्षेत्रों में है और चुनाव बाद के समीकरणों में उसका असर दिखेगा। 
इसके अलावा श्रीलंका पोडुजना पेरामुना पार्टी यानी एसएलपीपी के नेता और सांसद 38 वर्षीय नमल राजपक्षे भी इस चुनाव में उतर चुके हैं, जो अपने पारिवारिक पृष्ठभूमि और सबसे युवा उम्मीदवार होने के नाते चर्चा में हैं। नमल 2005 से 2015 तक श्रीलंका के राष्ट्रपति रहे महिंदा राजपक्षे के बेटे हैं। वे जीतते हैं, तो श्रीलंका के सबसे युवा राष्ट्रपति बनेंगे। आक्रामक रणनीति अपनाने वाले नमल ने विक्रमसिंघे का समर्थन करने वालों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की कसम खाई है। मतलब यह कि यहां चुनाव के बाद खींचतान, अस्थिरता, अशांति की आशंका ज्यादा और शांति की उम्मीद कम है। वजह है खाली खजाना और बाहरी ताकतों का बढ़ता असर और उसके चलते सियासी दबाव। श्रीलंका का बाहरी ऋण अब तक के उच्चतम स्तर पर है। कर्ज के चलते ही श्रीलंका ने हंबनटोटा बंदरगाह को चीन को पट्टे पर सौंपा। भले ही भारत ने श्रीलंका को कर्जमुक्त होने के लिए महत्वपूर्ण आर्थिक सहायता प्रदान करने में भूमिका निभा रहा है और हम पहले देश थे, जिसने श्रीलंका के वित्तपोषण और ऋण पुनर्गठन के लिए अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष को अपना समर्थन पत्र दिया। लेकिन चीन के उकसावे पर कच्चातीवु द्वीप मुद्दा श्रीलंका भूलेगा नहीं और तमिल अल्पसंख्यकों के साथ बुरा व्यवहार और श्रीलंका के संविधान में 13वें संशोधन का कार्यान्वयन आंतरिक राजनीति के चलते हमारे द्विपक्षीय संबंधों के महत्वपूर्ण मुद्दे बने रहेंगे। साथ ही चीनी घुसपैठ भी। 
ऐसे में देश की आर्थिक, सामाजिक और भू-राजनीतिक चुनौतियों के चलते इस तरह की चिताएं उभरती हैं कि चुनाव बाद सरकार के गठन में कठिनाई हो सकती है और यह सरकार भारत की कितनी समर्थक या विरोधी होगी यह तय करना अभी जल्दबाज़ी होगी। इस संदर्भ में सरकार ने पड़ोसी प्रथम की विदेश नीति को समय के सापेक्ष सक्रिय कर जो सक्रियता दिखाई है, वह उचित है। सच कहा जाए तो भूटान को छोड़कर कोई भी पड़ोसी देश अपने रिश्तों और हरकतों से भारत को आश्वस्त नहीं करता। यह भारतीय विदेश नीति की कमजोरी नहीं है बल्कि चीनी कर्जे की अज़गरी जकड़ और संबंधित देशों की आर्थिक मजबूरी है। वह चाहे 23 प्रतिशत से ज्यादा बेरोज़गार युवाओं वाला विपन्न श्रीलंका हो, संसाधनहीन महज पर्यटन पर टिका मालदीव हो अथवा गरीब नेपाल, अस्थिरता से जूझता म्यांमार या कंगाली के करीब पहुंचता पाकिस्तान। अस्थिर और जटिल राजनीतिक परिदृश्य वाले नेपाल की सरकार में लगातार होने वाले बदलावों से नीतिगत स्थिरता हमारे लिए परेशानी का सबब है। सीमा विवाद, विशेष रूप से कालापानी मुद्दा, चीन के साथ देश के बढ़ते आर्थिक संबंध भारत के लिए चिंता का सबब और तनाव का स्रोत बना हुआ है, नेपाल के तकरीबन 24 प्रतिशत युवा बेरोज़गार हैं। बेरोज़गारी और बुरी आर्थिक स्थिति के चलते ही वह चीन के चंगुल में हैं इसलिये नेपाल से हमारे जिस तरह के सामाजिक सांस्कृतिक संबंध रहे हैं, उस स्तर के सकारात्मक संकेत अब नहीं दिखते। 
पाकिस्तान भी बुरी आर्थिकी और चीनी परियोजनाओं के बोझ से दबा हुआ है और वैसे भी कश्मीर और आतंक के मुद्दे पर उसके साथ सामान्य संबंध मुश्किल है, फिलहाल वह जम्मू क्षेत्र में बड़े स्तर पर छद्म युद्ध छेड़े हुए है। मालदीव हिंद महासागर क्षेत्र में भारत के रणनीतिक हितों के लिए एक चुनौती बना हुआ है, उसका व्यवहार अत्यंत अनिश्चित है। कभी वह भारत का खुला विरोध करते हुए इंडिया आउट अभियान चलाता है, अपने चुनावों में भारत की समर्थक पार्टी की बेहद बुरी हार सुनिश्चित करता है उसके बावजूद अपने स्वार्थ के मुद्दों पर साथ दिखता है। पर चीन के प्रति उसका झुकाव जगजाहिर है। म्यांमार में सैन्य तख्तापलट और उसके बाद नागरिक पूर्वोत्तर राज्यों में रोहिंग्या शरणार्थियों की आमद और अशांति ने हमारे लिए जटिल चुनौतियां पेश की हैं। यहां चीनी प्रभाव में वृद्धि हमारी बड़ी चिंता है, एक्ट-ईस्ट नीति यहां किंचित कमजोर पड़ने से हमारे रणनीतिक, आर्थिक हित प्रभावित हो रहे हैं। अब अगर कहीं भूटान, जिसकी उभरती आकांक्षाओं को चीन हवा दे रहा है, पलटा तो भारत और चीन से जुड़ा अनसुलझा डोकलाम मुद्दा रणनीतिक चिंता का विषय बन जाएगा। जहां तक अफगानिस्तान की बात है, वह हमसे सामन्य मैत्री भाव रखता तो है, लेकिन उसके विकास में हमने जो निवेश किया है, वह कई बार खतरे में लगता है क्योंकि अलग थलग पड़ने से इसका रणनीतिक प्रभाव कम हो गया है। 
बेशक भारत अपने रुतबे या ताकत के बल पर पड़ोसियों को साथ आने पर विवश नहीं कर सकता। भारत के पास यही चारा है कि वह अपने पड़ोसियों को प्राथमिकता दे, क्षेत्रीय राजनीति की अस्थिरता को कम करने के प्रयास करे, रणनीतिक संबंधों को बनाए रखते हुए अपने पड़ोसियों की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं का समर्थन करे। पड़ोसी देशों के प्रति भारत का कूटनीतिक रुख वहां की लोकप्रिय इच्छा के अनुरूप होना चाहिए जिससे स्थिरता और सकारात्मक जुड़ाव को बढ़ावा मिले। निरंतर विकसित हो रही क्षेत्रीय गतिशीलता के इस समय में पड़ोसियों में शांति, स्थिरता और विकास को बढ़ावा देने के लिए भारत की प्रतिबद्धतापूर्ण पड़ोसी प्रथम की नीति न केवल उसके अपने रणनीतिक हितों को सुरक्षित करेगी बल्कि क्षेत्रीय सद्भाव और समृद्धि के व्यापक लक्ष्य में भी योगदान देगी। -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर