गदहों का व्यापार है यह क्या ?

जीहां, हम परिवारवाद के बिल्कुल विरुद्ध हैं। यह बातें बहुत पुरानी हो गईं कि एक राजा का बेटा राजा होता है, और भिखारी का बेटा भिखारी। बल्कि हमारी समझ तो यह कहती है, कि आजकल भिखारी धंधे के सभी गुण कोई बटोर ले, तो वह बहुत जल्दी राजा बन सकता है। उधर कोई राजा अपना दकियानूसी राजसी ठाठ-बाठ दिखाता रहे, भिखारियों का चहेता न बन सके तो उसे अपना राज-पाट खोते देर नहीं लगेगी। तब उसकी हवेली की सूनी दीवारें भी उसका साथ छोड़ जाएंगी। उसकी धन-सम्पदा किसी क्रिप्टो करंसी वाले के पास गिरवी पड़ जाएगी। वह हार कर पास-पड़ोस के भिखारियों से जीने के ढंग सीखता हुआ नज़र आएगा।
‘बन्धुवर, क्या है सही जीने का ढंग?’
—जी नहीं, अपने गौरवमय अतीत की कहानियां सुनाना नहीं। अपने उजले भविष्य के सब्ज़बाग दिखाना नहीं। वर्तमान में कैसे जी रहे हो, यह तो कभी किसी को बताना नहीं। कल के दादा ठाकुर आज रियायती राशन और मनरेगा की चिट्ठी प्राप्त करने की आस में खड़े रहते हैं, क्योंकि उनकी खानदानी परम्परा किसी के आगे हाथ फैलाने की नहीं है। उनकी परम्परा अपनी नैतिकता और ऊंचे आदर्शों का ढोल बजाने की नहीं है। तुमने ज़माने का रंग सम्भाल लिया होता तो आज तुम्हारी हवेली भूतिया खण्डहर न लगती। तुम्हारे आदर्शों को दीमक ने चाट न लिया होता?
कैसे आदर्श और कैसी क्रांति? कैसी नैतिकता और कैसा बलिदान? यही करते-करते तो तुम चोटी से सीढ़ी बन गये, और आज के नये शहज़ादे झट से उसका सहारा ले चोटी से तुम्हें धकेल ज़िन्दगी की मैदान-ए-जंग के शहसवार बन गये।
तुम्हें शाहसवार बनना है न! तो घोड़ों की सवारी त्याग कर गदहों की तलाश करो। यह ठीक है कि पिछले दिनों गदहों का बहुत अतिमूल्यन हो गया था। हमारे पड़ोसी देश ने तो अपने सब गदहों का निर्यात करके अपनी ़गरीबी का संकट टाल लिया। एक वक्त ऐसा भी आया कि जब वहां गदहों की भीड़ कम हो गई। निर्यात करने के लिए गदहे बचे नहीं, तो अपने देश के फिसड्डी लोगों को गदहों का वेष धारण करवा के निर्यात के जहाज़ पर चढ़ा दिया। जनाब, यह आदमियों को गदहे बना बेच देना बहुत कामयाब रहा। हम तो यहां कभी किसी से कुछ सीखते नहीं। हमारी सांस्कृतिक गरिमा हमारे रास्ते में आकर खड़ी हो जाती है, लेकिन इस बार हमने गलती नहीं की। वेष परिवर्तन करना स्वीकार करके हम भी गदहे बन गये। गदहा वेष धारण करते ही हमने पाया कि आजकल हम तो अनाड़ी के अनाड़ी ही रहे। हमसे आगे-आगे भी सफल होने वाली भीड़ गदहा वृत्ति का महिमामण्डन कर रही थी, और हमारे पीछे आते लोग अगल बगल से होकर गदहा दुलत्ती झाड़ रहे थे, कि वेष नहीं बदल सकते तो एक ओर हटो। हमें तो आगे बढ़ना है न भय्या ‘येन-केन-प्राकरेण।’
हमें यह बन्द समझ नहीं आया। पूछा, क्या बोले आप? जवाब मिला, ‘हमें ही कौन-सा समझ आया है।’ किसी बड़े आदमी को राज गद्दी सम्भालते हुए सुना था, बस अपना लिया कि यही गुरु मन्त्र होगा।
आप गुरु मन्त्र का पालन करने में विश्वास करते हैं। क्यों नहीं? हमारे तो पुरखे बता गये थे, कि ज़रूरत पड़े तो गदहे को बाप बनाने में भी कोई हज़र् नहीं है। ‘लेकिन यह तो परिवारवाद हो गया, इसकी आजकल बहुत निंदा सुन रहे हैं हम लोग?’ हमने कहा।
‘अरे जिसकी निंदा हो वही चर्चा में रहता है। परनिन्दा करोगे तो अपना प्रशस्तिगायन करना सीख पाओगे।’ तेरे रास्ते में जो अवरोध खड़े हैं, और नैतिकता, सत्-चरित्र, समर्पण और त्याग की दुहाई दे रहे हैं, उन्हें एक दुलत्ती रसीद करो, बीते युग का घोषित करो और आगे बढ़ जाओ। आगे बढ़ोगे तो आपको कुछ महारथी भीख का कटोरा और लबों पर आपके बहाने अपने सुहाने भविष्य की कामनाएं और दुआएं देते हुए मिल जाएंगे। आजकल भीख के लिए तैयार-बर-तैयार रहने, और भीख मिल जाने पर दाता को भूल जाने का एक नया रिवाज़ हो गया, बन्धु!
कल जो आपकी पद-परिक्रमा के लिए तैयार थे, आज कैसे व्यवहार करेंगे, कोई नहीं जानता। स्मृतियां संजो कर नहीं, उन्हें लुप्त कर देने का ज़माना है। कहीं-कहीं दूसरों की स्मृतियां चुराने का नया रिवाज़ भी शुरू हो गया। आपकी उपलब्धियों और आपके ताम्र पत्रों को अपना बताते हुए इन्हें तनिक भी संकोच नहीं होता बल्कि आजकल तो अपनी बारात सजा उसके आगे खुद दूल्हा बन कर नाचने का ज़माना आ गया। इस दौड़ में झिझकने की नहीं, दूसरे को टांग देकर गिराने का ज़माना है। बन्दा गिर जाए तो कह दो, जिसने की शर्म उसके फूटे कर्म। लेकिन कौन से कर्म? आजकल तो कर्म-हीन हो जाने का नया रिवाज़ हो गया। ये दो हाथ कर्म करने के लिए, अनुकम्पा बटोरने के लिए हैं। प्रतिद्वन्द्वी बांटे तो कह दो, ‘तुम रेवड़ियां बांटते हो।’ सुना नहीं देश के शीर्ष न्यायालय ने भी इसकी निंदा कर दी है। लेकिन खुद रेवड़ियां बांटने को जन-कल्याण का लेबुल लगा कर आगे चलते हुए तनिक भी संकोच न करना।
इस जन-कल्याण की घोषणाओं की आजकल प्रतियोगिता होती है। ज़रा चुनाव तिथियों की घोषणा तो होने दीजिये, फिर देखिये ये घोषणायें चुनावी घोषणा-पत्र बन कर कैसे बरसाती वीर बहूटियों की तरह बाहर आती हैं। चुनाव गुज़र गये, तो इन घोषणाओं की सुध किसे रहेगी। पर्यावरण प्रदूषण को खत्म करने के ज़ोरदार नारे लग रहे हैं। अब इन नारों के कोहराम में अपना स्वर-सघान कर दो, और वीर बहूटियों का युग खत्म कर देने का एक संग्राम छेड़ने का निनाद करो। अपनी वीर बहूटियां तो आप ने अपने अपनों के लिए सुरक्षित कर लीं। विरोधी वही काम करें तो उनका वेष बदल कर उन्हें नये गदहे बना निर्यात कर दो। आजकल वैसे भी ऐसे मेहनती लोगों की विदेशों में बहुत मांग होने लगी है।