क्या इस बार खाता खुलेगा ?

एक बार फिर आम आदमी पार्टी को भारी नमोशी का सामना करना पड़ा है। बार-बार होती ऐसी नमोशी ने इस पार्टी की छवि को और भी धूमिल कर दिया है। इससे पहले भी पंजाब में जून मास में हुए लोकसभा चुनावों के दौरान पार्टी को ऐसी ही नमोशी का सामना करना पड़ा था। ‘आप’ ने भारतीय जनता पार्टी के विरुद्ध चुनाव लड़ने हेतु ‘इंडिया’ गठबंधन के साथ किसी न किसी स्तर पर अपना मेल-मिलाप जारी रखा है। इस गठबंधन में दर्जन से अधिक पार्टियां शामिल हैं, जिनमें से अब कुछ इसे छोड़ चुकी हैं। सभी पार्टियां भिन्न-भिन्न प्रदेशों में अपनी-अपनी ज़मीनी हकीकतों को देखते हुए अपनी नीतियां बनाती हैं, जिस कारण लड़खड़ाती इस पार्टी को किसी ओर से भी ज्यादा समर्थन नहीं दिया जाता। पिछले समय में भिन्न-भिन्न प्रदेशों में हुए चुनावों से भी यही प्रभाव मिलता है। कुछ प्रदेशों में इस पार्टी द्वारा लड़े गए चुनावों में भी लोगों की ओर से इसे कोई ज्यादा समर्थन नहीं मिला। हमेशा विवादों में घिरी रही इस पार्टी की हालत पतली से पतली होती जा रही है। पंजाब में इसे लोगों ने भारी बहुमत प्रदान करके जिताया था, परन्तु अढ़ाई वर्ष की अवधि में भगवंत मान की सरकार ने जो हालत प्रदेश की कर दी है, प्रदेश में इससे पहले शायद ही कभी इतना अवसान पैदा हुआ हो। 
पंजाब में लोकसभा के चुनावों के दौरान भी कांग्रेस  हाईकमान ने पंजाब के नेताओं को ‘आप’ से समझौता करके चुनाव लड़ने के लिए कहा था परन्तु प्रदेश सरकार की गिरती छवि को देखते हुए तथा मुख्यमंत्री सहित ‘आप’ के अन्य मंत्रियों तथा नेताओं के निम्न- स्तरीय व्यवहार के दृष्टिगत, पंजाब के वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं ने ‘आप’ के साथ समझौता करने से स्पष्ट इन्कार कर दिया था। हाईकमान ने पंजाब के कांग्रेस नेताओं को बार-बार इस पार्टी के साथ गठबंधन करने के निर्देश दिए थे परन्तु प्रदेश के नेता टस से मस न हुए। अंतत: विवश होकर हाईकमान को अपनी नीति बदलनी पड़ी थी। इन लोकसभा चुनावों में पंजाब कांग्रेस की हवा बही थी। उसे 13 में से 7 सीटें मिली थीं तथा ‘आप’ 3 सीटों पर ही सीमित होकर रह गई थी। हरियाणा की कांग्रेस पार्टी ने भी ‘आप’ के पंजाब में हुए ऐसे हश्र को देख लिया था। उस समय हरियाणा में चाहे अपने हाईकमान के कहने पर कांग्रेसी नेताओं ने ‘आप’ के साथ मिलकर चुनाव लड़े थे। वहीं कांग्रेस ने प्रदेश की 10 सीटों पर अपने 9 उम्मीदवार खड़े किए थे तथा ‘आप’ को मात्र कुरुक्षेत्र की एक सीट ही दी थी। कांग्रेस ने हरियाणा में पांच सीटों पर जीत प्राप्त की थी, जबकि कुरुक्षेत्र से ‘आप’ का खड़ा हुआ प्रदेश अध्यक्ष हार गया था। इसी तरह वर्ष 2019 में हरियाणा में लोकसभा चुनाव ‘आप’ ने जे.जे.पी. के साथ मिलकर लड़े थे। इस गठबंधन में इसे लड़ने के लिए 3 सीटें मिली थीं परन्तु तीनों सीटों पर ही इसकी ज़मानतें ज़ब्त हो गई थीं तथा इसे प्रदेश से सिर्फ  0.36 प्रतिशत ही वोट मिल सके थे, जो ‘नोटा’ के वोटों से कुछ ही अधिक थे। हरियाणा के पिछले विधानसभा चुनावों में ‘आप’ ने 46 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे। इन सभी सीटों पर ही यह बुरी तरह हार गई थी तथा इसके सभी उम्मीदवारों की ज़मानतें ज़ब्त हो गई थीं। उस समय इसे इन सभी सीटों पर 0.48 प्रतिशत वोट ही मिले थे, जो उस समय ‘नोटा’ को मिले 0.52 प्रतिशत वोटों से भी कम थे।
अब विधानसभा के चुनावों के दौरान भगवंत मान सहित इस पार्टी के दिल्ली के नेता हरियाणा में धुआंधार प्रचार कर रहे हैं तथा प्रदेश की 90 सीटों पर ही चुनाव लड़ने के दावे कर रहे हैं, परन्तु बाद में कांग्रेस हाईकमान तथा ‘इंडिया’ गठबंधन के अनेक राष्ट्रीय नेताओं पर दबाव डलवा कर वे हरियाणा में कांग्रेस के साथ 20 सीटें लेकर समझौता करने के लिए तैयार हो गए थे। फिर इस मांग को कम करके वे 10 सीटों पर आ गए थे, परन्तु हरियाणा के कांग्रेस नेताओं को इस पार्टी की वास्तविकता का पता था। इसलिए उन्होंने आम आदमी पार्टी को 3 या 4 सीटें देने की ही बात स्वीकार की थी। इस तरह हुई नमोशी में ही ‘आप’ को अपने 20 उम्मीदवारों की घोषणा करनी पड़ी है। अब उसकी नज़र अन्य पार्टियों से टिकटें न मिलने के कारण ब़ागी होकर उनकी ओर आने वाले उम्मीदवारों पर केन्द्रित है। शायद इसी आधार पर अभी भी यह पार्टी 90 सीटों पर ही अपने उम्मीदवार खड़े करने के बयान दे रही है, परन्तु देखना यह होगा कि, क्या ऐसे दावों के बावजूद इन चुनावों में वह अपना खाता भी खोल सकेगी या नहीं? हरियाणा में हुए पिछले चुनावों में भी इसे भारी नमोशी का सामना करना पड़ा था। क्या इस बार वह ऐसी नमोशी से बच सकेगी?

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द