फिर से मृत्यु दंड पर विवाद

जब भी हमें अखबार या अन्य किसी माध्यम से जघन्य अपराध की सूचना मिलती है, एक आवाज़ से खटाना होता है। इस अपराध के लिए अपराधी को मृत्यु दंड मिलना ही चाहिए। ऐसी आवाज़ें अनेक बार सुनने को मिलती हैं क्योंकि अपराध कम नहीं हो रहे। इस बात में भी कोई संदेह नहीं कि सरकार को लोगों की भावना का आदर करना चाहिए। लोकतंत्र में इसकी उम्मीद भी ज्यादा ही रहती है। जब आंदोलनकारी धरना प्रदर्शन व हड़ताल को अपना रोष प्रगट करने का हथियार बना लेते हैं तब कठोरतम दंड की उम्मीद प्रबल हो जाती है। हाल ही में महिलाओं के प्रति अपराध की संख्या बढ़ने लगी और लोगों का गुस्सा आसमान को छूने लगा, तब जनमानस को संतुष्ट करने के लिए कठोरतम सज़ा की पैरवी होने लगी। यौन अपराधियों पर तो खास तौर पर कहा गया कि हमारे यहां अपराध की सजा के प्रावधान कम हैं इसलिए अपराधों में इज़ाफा होने लगा है। इसी सिलसिले में मृत्युदंड की मांग बढ़ने लगी। और यह सवाल बहसतलब हो गया कि मृत्युदंड ही अंतिम सुझाव है या इस पर फिर से सोचने की ज़रूरत अभी बनी हुई है। 
अंतराष्ट्रीय स्तर पर जो सुझाव देखने को मिला है, वह है मृत्युदंड समाप्त होना चाहिए। 2023 तक 112 देशों ने मृत्युदंड को समाप्त कर दिया था। फिर भी पिछले साल 1100 से अधिक अपराधियों को फांसी दी गई, जिसमें चीन के आंकड़े शामिल नहीं हैं। वहां की खबरें विश्वसनीय ढंग से सामने नहीं आतीं। सबसे ज्यादा फांसी जिन देशों में दी गई वे हैं ईरान, साऊदी अरब, सोमालिया और अमरीका। माडर्न रूप में तीन आधार पर दंडित किया जाता है। पहला है अपराधी के जीवन में सुधार लाना। दूसरा दंडनीय काम करने वाले अन्य लोगों में डर का वातावरण पैदा करना, तीसरा आधार प्रतिशोधात्मक है जिसे आसान शब्दों में आंख के बदले आंख निकालना कहा जाता है। जबकि धार्मिक प्रमुख, अपराध मनोविज्ञान के माहिर और सामाजिक चिंतक प्रतिशोध वाली धारा को खारिज करते हैं, लेकिन किसी भी जघन्य अपराध के बाद जब भीड़ उग्र होने लगती हैं बात प्रतिशोधात्मक फैसले की ही होती है। अपराध को नियंत्रित करने के लिए इस सज़ा का प्रावधान सभी समाजों में होता आया है। 
एथेंन्स और रोम में मृत्युदंड का चलन रहा है। इसके लिए ज़िंदा जला देना, सूली पर चढ़ा देना, डुबोकर मार देना जैसी सजाएं होती रही हैं। मनुसंहिता में दर्ज है कि शिकायतकर्ता के लिए भी मृत्युदंड का प्रवधान है जो गम्भीर अपराध का आरोप लगाने पर अदालत के समक्ष गवाही नहीं देता। इतिहास साक्षी है कि फ्रांसीसी क्रांति के बाद 17000 लोगों को मार दिया गया था। राजतंत्र में मृत्युदंड आम था। राजा को ही फैसला करना होता था। मंत्री की सलाह ज़रूरी नहीं थी लेकिन इस सोच में बदलाव अंकित होता है 19वीं शताब्दी के अंत और 20वीं शताब्दी के आरम्भ में। 
मृत्युदंड के खिलाफ सबसे जोरदार तर्क यही पेश किया जाता है कि इसे उलटा नहीं जा सकता। न्यायिक प्रक्रिया को सौ प्रतिशत दोष रहित नहीं माना जा सकता। कहीं कोई ज़रा सी चूक हो जाने पर एक ज़िंदगी फांसी के फंदे पर झूल जाती है। बाद में पश्चाताप का कोई मतलब नहीं रह जाता। एक दूसरा तर्क यह पेश किया जाता है कि मृत्युदंड का प्रावधान स्वभाव से ही भेदभाव पूर्व है। अमरीका का उदाहरण दिया गया है कि समान प्रवृति के अपराध को दोषी अश्वेत समाज को लोगों को फांसी की सजा मिलनी ज्यादा संभव है।