क्या राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने मौका गंवा दिया ?

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने महिलाओं के खिलाफ दुष्कर्म व अन्य अपराधों को लेकर राष्ट्रीय चिंता को अभिव्यक्त किया है। राष्ट्रपति की इस बात से पूरा देश सहमत होगा कि देश में महिलाओं को कमज़ोर मानने की मानसिकता बनी हुई है और कई लोग महिलाओं को वस्तु मानते हैं। उनके इस आह्वान में भी सारा देश अपना स्वर मिलाएगा कि ‘बेटियों की स्वतंत्रता की राह से रुकावटों को हटाना हमारी ज़िम्मेदारी है।’ इसके बावजूद राष्ट्रपति के वक्तव्य पर जनमत के एक बड़े हिस्से में तीव्र प्रतिक्रिया देखी गई, तो उसकी वजह है कि राष्ट्रपति ने अपनी इस व्यापक चिंता को कोलकाता के आर.जी. कर अस्पताल की बहुचर्चित घटना से जोड़ दिया। इस पर विपक्षी दलों ने और सोशल मीडिया पर बड़ी संख्या में लोगों ने यह सवाल उठा दिया कि क्या राष्ट्रपति तक मणिपुर में महिलाओं को निर्वस्त्र घुमाने और उनसे यौन हिंसा करने और उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, महाराष्ट्र, राजस्थान आदि राज्यों में आए दिन हो रहे दुष्कर्म की घटनाओं की खबरें नहीं पहुंच रही हैं? चूंकि राष्ट्रपति के लम्बे वक्तव्य का शीर्षक है, ‘महिला सुरक्षा : अब हद हो गई है’, तो यह सवाल भी उठा है कि यह हद आखिर कब हुई? राष्ट्रपति को राष्ट्रीय विवेक का प्रतिनिधि माना जाता है। मगर भारत में सियासी और वैचारिक ध्रुवीकरण इतना तीव्र हो चुका है कि अब राष्ट्रपति को दलगत संदर्भों में देखा जाने लगा है। द्रौपदी मुर्मू चाहतीं तो इस मौके पर ऐसी धारणा को तोड़ने में अपना योगदान दे सकती थीं, लेकिन पता नहीं किस दबाव में वह ऐसा नहीं कर सकीं।
मोदी का अमरीका दौरा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस महीने संयुक्त राष्ट्र महासभा की वार्षिक बैठक में हिस्सा लेने के लिए अमरीका जा रहे हैं। वह 26 सितम्बर को महासभा की बैठक को संबोधित करेंगे। उससे पहले 22 सितम्बर को न्यूयॉर्क में प्रवासी भारतीयों को संबोधित करने का उनका कार्यक्रम तय है। जिस स्टेडियम में यह कार्यक्रम होना है, उसकी क्षमता 22 हज़ार के करीब है लेकिन 30 अगस्त तक ही 25 हज़ार से ज्यादा लोग इसके लिए रजिस्ट्रेशन करवा चुके हैं। ज़ाहिर है कि स्टेडियम के बाहर भी भीड़ होगी। समझा जा सकता है कि भारत के मीडिया समूह किस तरह से इस समारोह को कवर करते हुए मोदी को विश्व नेता के तौर पर प्रचारित करेंगे? सबसे हैरान करने वाला इस समारोह का शीर्षक है, ‘मोदी एंड यू.एस. प्रोग्रेस टुगेदर’। इसमें भारत और अमरीका के एक साथ आगे बढ़ने की बात नहीं, बल्कि मोदी और अमरीका के एक साथ आगे बढ़ने की बात कही गई है यानी आयोजक दिखाना चाहते हैं कि मोदी ही भारत है। मोदी और अमरीका साथ-साथ आगे बढ़ रहे हैं, इसका मतलब है कि भारत और अमरीका आगे बढ़ रहे हैं। यह थीम अमरीकी राष्ट्रपति के चुनाव प्रचार में भी इस्तेमाल हो सकती है। मोदी अमरीका के पिछले चुनाव के समय यानी 2020 में भी अमरीका गए थे और उन्होंने प्रवासी भारतीयों की सभा में ‘अबकी बार ट्रम्प सरकार’ का नारा लगाया था। यह अलग बात है कि ट्रम्प चुनाव हार गए थे। इस बार मोदी और अमरीका के आगे बढ़ने की थीम से किसका प्रचार होता है, यह मोदी के कार्यक्रम के समय ही पता चलेगा।
भाजपा का ‘ऑपरेशन लोटस’
लगता है कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने मान लिया है कि चार राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा के हाथ कुछ नहीं लगना है और नतीजे आने के बाद केंद्र में उनके सहयोगी उनकी सरकार के लिए परेशानी खड़ी कर सकते हैं। इसीलिए उन्होंने अभी से उस स्थिति से निबटने के तैयारियां शुरू कर दी हैं। इस सिलसिले में उन्होंने अपने ही सहयोगी और पूर्व में अनौपचारिक तौर पर सहयोगी रहे दलों को तोड़ने के लिए ‘ऑपरेशन लोटस’ शुरू कर दिया है। उनका लक्ष्य संसद के दोनों सदनों में भाजपा का बहुमत कायम करने का है। इस समय लोकसभा में भाजपा को बहुमत के लिए 32 और राज्यसभा में 15 सांसदों की ज़रूरत है। भाजपा को हर मौके पर संसद में समर्थन देते रहे बीजू जनता दल और वाईएसआर कांग्रेस के राज्यसभा में क्रमश: 8 और 11 सदस्य हैं। बीजू जनता दल की एक राज्यसभा सदस्य हाल ही में भाजपा में शामिल हो गई हैं। इसी पार्टी के कुछ और सांसद भी भाजपा के सम्पर्क में हैं। उधर वाईएसआर कांग्रेस के भी कुछ सांसदों को भाजपा अपने साथ लाने की कोशिश में है। लोकसभा में बहुमत का आंकड़ा छूने के भाजपा के ऐसे ही प्रयास जनता दल (यू) और चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी को तोड़ने के चल रहे हैं। बताया जा रहा है कि चिराग की पार्टी के पांच में से तीन सांसद भाजपा में शामिल हो सकते हैं। भाजपा की योजना महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के बाद एकनाथ शिंदे की शिव सेना को तोड़ने की भी है जिसके लोकसभा में सात सांसद हैं।
भाजपा को चम्पई से क्या लाभ?
भाजपा नेतृत्व लम्बी ऊहापोह के बाद झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री चम्पई सोरेन को पार्टी में शामिल तो कर लिया लेकिन राज्य की राजनीतिक स्थिति को देख कर ऐसा लग रहा है कि चम्पई सोरेन के ज़रिए जो रणनीतिक बढ़त हासिल करने का मौका उसने गंवा दिया है। पिछले दिनों चम्पई तीन दिन दिल्ली में रह कर जब लौटे थे तब उन्होंने कहा था कि वह अपना संगठन बना कर राजनीति करेंगे, लेकिन अचानक वह फिर दिल्ली पहुंचे और तय हुआ कि वह भाजपा में शामिल होंगे। सवाल है कि भाजपा में शामिल होने से उनको क्या मिलेगा और भाजपा को क्या फायदा होगा? गौरतलब है कि झारखंड में आदिवासी भाजपा से नाराज़ हैं। 2014 में गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री बनाने के बाद ही यह हुआ कि संथालपरगना, छोटानागपुर और कोल्हान तीनों इलाकों के आदिवासी एक साथ झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) को वोट देने लगे। पूरे राज्य में आदिवासियों के लिए आरक्षित 28 विधानसभा सीटों में से भाजपा सिर्फ दो सीट जीत पाई। हेमंत सोरेन के जेल जाने के बाद भाजपा के विरोध में आदिवासी वोटों का एकीकरण और मज़बूत हुआ। अगर अपने सम्मान का मुद्दा बना कर चम्पई अलग पार्टी बनाते तो कुछ आदिवासी वोट उनको मिल सकता था, लेकिन भाजपा के साथ जाने को गद्दारी की तरह देखा जा रहा है। कोल्हान क्षेत्र की 15 सीटों में से भाजपा चम्पई के सहारे कुछ सीटें जीतने की उम्मीद कर रही है, लेकिन ऐसा तब होता, जब चम्पई अकेले लड़ते। भाजपा के साथ मिल कर लड़ने पर उनकी पारम्परिक सरायकेला सीट भी खतरे में पड़ सकती है। 
बांग्लादेश जैसा होने का डर क्यों?
यह हैरानी की बात है कि भारत में आजकल भाजपा का लगभग हर नेता यह डर दिखा रहा है कि बांग्लादेश जैसा हो जाएगा या बांग्लादेश जैसा हो जाता भारत अगर देश में मज़बूत सरकार नहीं होती। यह बात उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कही है। उन्होंने गत सोमवार को एक कार्यक्रम में हिंदुओं से एकजुट रहने की अपील की। उनके शब्द थे, ‘बटेंगे तो कटेंगे।’ फिर उन्होंने कहा कि बांग्लादेश जैसी स्थिति हो सकती है। इसी तरह भाजपा की सांसद कंगना रनौत ने कहा कि किसान आंदोलन के समय अगर मज़बूत सरकार नहीं होती तो बांग्लादेश जैसी स्थिति हो जाती। दरअसल इन नेताओं को अगर ठीक से मालूम होता कि बांग्लादेश में क्या हुआ है तो ये भारत में वैसा होने की बात नहीं करते। बांग्लादेश में कट्टरपंथी बहुसंख्यक आबादी ने सरकार के खिलाफ आंदोलन छेड़ा और तख्ता पलट कर दिया। उसके बाद बहुसंख्यक आबादी के कुछ लोग अल्पसंख्यकों पर हमले कर रहे हैं। अगर ऐसा कुछ भारत में होगा तो क्या होगा? यहां बहुसंख्यक कौन हैं और उसमें भी कट्टरपंथी कौन हैं और बांग्लादेश जैसा कुछ हुआ तो कट्टरपंथी बहुसंख्यक किसके ऊपर अत्याचार करेंगे? लेकिन चूंकि ऐसी तार्किक बातों से भाजपा नेताओं का नाता नहीं है, इसलिए वे यह भय दिखा रहे हैं कि बांग्लादेश में बहुसंख्यकों ने जो किया वही काम भारत में अल्पसंख्यक कर सकते हैं। इसके लिए बांग्लादेश का नाम लाने की क्या ज़रूरत है? भाजपा नेताओं की बड़ी जमात तो पहले से ही सभी तरह के अल्पसंख्यकों की देशभक्ति को कठघरे में खड़ा किए हुए है।