कितनी कारगर हैं कृषि-उत्थान की योजनाएं ?

किसानों के हितों की रक्षा और उनकी उन्नति की बातें हर सरकार करती है। हर सरकार में कृषि और किसानों के हितों में व्यापक योजनाएं घोषित कर चलाई गई। वर्तमान सरकार ने देश में किसानों के कल्याण के लिए प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना (पीएम-किसान), प्रधानमंत्री किसान मान धन योजना (पीएम-केएमवाई), प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (पीएमएफबीवाई), एग्रीकल्चर इंफ्रास्ट्रक्चर फंड (एआईएफ), राष्ट्रीय मधुमक्खी पालन व हनी मिशन (एनबीएचएम), 10,000 एफपीओ का गठन और प्रचार, खाद्य तेलों पर राष्ट्रीय मिशन-ऑयल पाम (एनएमईओ-ओपी) पहले से चल रही हैं। 5 अक्तूबर 2024 को किसानों के हित व खाद्य सुरक्षा की रक्षा करने के लिए कैबिनेट ने 1 लाख करोड़ रूपये की एक और योजना को मंजूरी दी है। प्रधानमंत्री राष्ट्रीय कृषि विकास योजना और कृषि उन्नत योजना बनाई गई हैं। इन योजनाओं में कुल मिलाकर 1 लाख 1 हजार 321 करोड़ 61 लाख रूपये खर्च होंगे। प्रधानमंत्री राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के अंतर्गत मृदा स्वस्थ प्रबंधन, वर्षा आधारित क्षेत्र का विकास, कृषि वानिकी, परंपरागत कृषि को बढ़ावा देना, फसल अवशेष प्रबंधन, कृषि का यंत्रिकरण, पर ड्रॉप मोर क्रॉप, क्रॉप डायवर्सिफिकेशन-फसल विविधिकरण, कृषि र्स्टाअप के लिए निधि शामिल है। कृषि उन्नत योजना में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा और पोषण मिशन, राष्ट्रीय खाद्य तेल मिशन, एकीकृत बागवानी विकास मिशन, कृषि विस्तार पर उप मिशन, कृषि विपणन के लिए एकीकृत योजना, डिजिटल कृषि मिशन और कृषि जनगणना अर्थशास्त्र और सांख्यिकी इस पर भी एकीकृत योजनायें बनेंगी। इन योजनाओं को लचीला रखा गया है। डिजिटल कृषि मिशन के बहुत फायदे होंगे। इससे रिकॉर्ड में हेराफेरी नहीं हो सकेगी, रिमोट सेंसिंग के माध्यम से फसल के नुकसान का आंकलन होने से फसल बीमा योजना का पूरा लाभ मिलेगा। किसानों को डिजिटल माध्यम से जितना लाभ दिया जा सकता है उतना देने के प्रयत्न जारी हैं। स्वयं सहायता समूह की दीदीयों को ड्रोन दिये गये हैं। ड्रोन में बैटरी जल्दी खत्म होने की समस्या आ रही है तो उन्हें अब ड्रोन की 5 बैटरी दी जायेंगी। मोदी सरकार ने छह सूत्रीय रणनीति यानि उत्पादन बढ़ाना, उत्पादन की लागत घटाना, उत्पादन के ठीक दाम देना, प्राकृतिक आपदाओं से हुए नुकसान की भरपाई करना, कृषि का विविधिकरण, वेल्यू एडिशन और प्राकृतिक खेती है। 
किसानों को ठीक दाम मिलें इसके लिए पिछले दिनों कुछ बड़े निर्णय लिये गये हैं। इसके इतर आज भी देश में 98 प्रतिशत किसानों की स्थिति चिन्ताजनक बनी हुई है। सब जानते है कि भारतीय कृषि कई समस्याओं से ग्रस्त है। सिंचाई के लिए मानसून पर निर्भरता, भूमि का विखंडन, उचित तकनीक के बिना लंबे समय तक भूमि का उपयोग, कृषि में कम निवेश, उर्वरकों और कीटनाशकों का असंगत उपयोग जैसी तमाम समस्याएं है। एक रिपोर्ट के अनुसार लगभग 70 प्रतिशत कृषि परिवारों के पास 1 हेक्टेयर से कम भूमि है और लगभग 88 प्रतिशत के पास 2 हेक्टेयर से कम भूमि है। ऋण का उच्च स्तर- 0.63 हेक्टेयर से छोटा प्लॉट गरीबी रेखा से ऊपर रहने के लिए पर्याप्त आय प्रदान नहीं करता है। भारतीय कृषि के सामने चुनौतियों में चार मुख्य कारक पर्यावरणीय, आर्थिक, संस्थागत और तकनीकी शामिल हैं। जलवायु परिवर्तन, अप्रत्याशित मानसून और मिट्टी का क्षरण भेद्यता में योगदान देता है। आर्थिक संघर्षों में कम आय, ऋण पहुंच संबंधी समस्याएं और बाज़ार में अस्थिरता शामिल हैं। किसानों के सामने कृषि इनपुट की कमी, श्रम और इनपुट लागत में वृद्धि, बाज़ारों का बंद होना और परिवहन सुविधाओं का अभाव शामिल हैं। संकटग्रस्त जैव विविधता, कृषि योग्य भूमि का सीमित होना, जलवायु परिवर्तन, मानव शक्ति की कमी व कृषि पशुओं की बीमारियां ऐसी समस्या और खुले पशुओं से फसल की सुरक्षा जैसे संकट का जवाब ढूंढना बहुत कठिन है।
बढ़ती आबादी में खाद्य सुरक्षा और हर वर्ष अन्न उत्पादन बढ़ाने की राह में मुश्किलें बढ़ रही हैं। ऐसे में कृषि क्षेत्र को प्रोत्साहन की दरकार महसूस की जाती रही है। दो नई परियोजनाओं को मंजूरी मिलने से स्वाभाविक ही इस क्षेत्र में कुछ बेहतरी की उम्मीद जगी है। टिकाऊ खेती को बढ़ावा देने के मकसद से सरकार ने प्रधानमंत्री राष्ट्रीय कृषि विकास योजना और कृषोन्नति योजना नामक दो नई योजनाएं शुरू की हैं। सरकार ने इस वर्ष तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने का वादा किया था। वह वादा पूरा तो नहीं हो पाया, पर कुछ तरक्की के संकेत ज़रूर मिले हैं। देखना है, नई योजनाएं इस वादे को पूरा कर पाने में कितनी और कहां तक मददगार साबित होती हैं। सरकारी दावों के विपरीत जमीनी हकीकत कुछ अलग है। स्थिति यह है कि खेती लंबे समय से घाटे का उद्यम बन चुकी है। बहुत सारे क्षेत्रों में सिंचाई की उचित सुविधा उपलब्ध नहीं है। वहां किसानों की मानसून पर निर्भरता है। फिर, खेती में लागत काफी बढ़ गई है। बीज, उर्वरक और तने कीटनाशकों आदि की कीमतें बहुत सारे किसानों की पहुंच से बाहर हो चुकी हैं। फसलों के उचित दाम नहीं मिल पाते। लागत और लाभ में काफी अंतर है। कुछ फसलें लागत से भी कम कीमत पर बेचनी पड़ती हैं। सरकार हर वर्ष न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा तो करती है, मगर उस कीमत पर भी अनाज बाज़ार में नहीं बिक पाता। 
बिचौलिए उससे काफी कम कीमत पर फसल खरीदते हैं। नगदी फसल उगाने वाले किसानों को अक्सर अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। कभी मौसम की मार से फसलें चौपट हो जाती हैं, तो कभी बाजार में उतार और मांग कम होने के कारण उन्हें औने-पौने दाम पर फसल बेचनी पड़ती है। हर वर्ष किसानों को प्रतिरोध में फसलें सड़कों पर फेंकते देखा जाता है। लम्बे अरसे से किसान मांग करते रहे हैं कि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू किया जाए। न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी दी जाए और इसके दायरे में और फसलों को लाया जाए। इस मांग को लेकर किसान लंबे समय तक आंदोलन भी कर चुके हैं। मगर इस पर सरकार का रुख सकारात्मक नहीं देखा गया। सरकार कृषि को व्यवसाय का दर्जा देने की बात सैद्धांतिक रूप से तो करती रही है, मगर व्यावहारिक स्तर पर उसकी कृषि नीतियां प्रश्नों के दायरे में बनी हैं। दरअसल, किसानों की समस्या तदर्थ उपायों से दूर नहीं होगी। टिकाऊ कृषि लिए व्यापक स्तर पर और व्यावहारिक उपाय करने की ज़रूरत है। इसके लिए उत्पादन, भंडारण, विपणन आदि खेती-किसानी के हर पहलू पर भरोसेमंद कदम उठाने होंगे।