हिन्दू मंदिरों के प्रबंध का सवाल और हिन्दू राष्ट्र की संभावनाएं

अंग्रेज़ों ने हिंदू समाज को अपने रंग में रंगने के लिए उसकी सभी धार्मिक और कल्याणकारी संस्थाओं (धर्मादों, मंदिरों, तीर्थस्थलों, मठों, समारोहों, उत्सवों) के रख-रखाव और आर्थिक वित्त-पोषण की ज़िम्मेदारी अपने हाथ में ले ली थी। 1810 में बंगाल के और 1817 में मद्रास के विनियमन कानूनों के बाद हज़ारों छोटे-बड़े, नगरों या कस्बों के धार्मिक प्रतिष्ठान न केवल अपनी मुरम्मत और जीर्णोद्धार के लिए कम्पनी सरकार के हाथ में चले गए, बल्कि प्रशासन उनके कर्मकांडों, पूजा, आरती, चढ़ावे, धर्मकर्ताओं और पुजारियों की नियुक्तियों को विनियमित करने लगा। मंदिरों के भीतर होने वाले नृत्य, संगीत, देवदासियां और उनसे जुड़ी वेश्यावृत्ति को भी किसी न किसी रूप में कभी औपचारिक या कभी अनौपचारिक रूप से संचालित सरकारी हिंदू धर्म की अधीनता और बंदोबस्त में ले लिया गया। चाहे कांचीपुरम, मदुरै, श्रीरंगम और तिरुपति के विशाल और भव्य मंदिर हों, या फिर छोटे-मोटे गली-मुहल्ले के मंदिर हों, सरकार द्वारा संचालित-समर्थित यह हिंदू धर्म एक केंद्रीकृत और समरूप छवि के तहत आता गया। स्थिति यह थी कि बड़े-बड़े मंदिरों के भीतर होने वाली पूजा-अर्चना और बलि समारोहों में औपनिवेशिक अधिकारी हिस्सा लेते थे, और बाहर ईसाई, मुसलमान और सिख सिपाहियों से युक्त पुलिस बलों की गारद सुरक्षा देते हुए सलामी ठोकती थी। सुरक्षा बल धार्मिक यात्राओं के मौकों पर मार्च करके उनकी शानो-शौकत को सरकारी बना देते थे। मेले-ठेलों, उत्सवों और स्नान समारोहों के मौके पर सरकारी अधिकारी तीर्थयात्रियों से टैक्स वसूलते और सारे इंतज़ाम सुनिश्चित करते। इस तरह कम्पनी राज ने हिंदू विभिन्नता के ऊपर समरूपता की एक ग्रिड आरोपित कर दी। 
अगर 2011 की जनगणना के आंकड़ों पर भरोसा किया जाए तो इस देश में कोई तीस लाख छोटे-बड़े पूजास्थल हैं। इनमें बहुतायत हिंदू मंदिरों की है। इनके प्रबंधन का प्रश्न धर्म और राजनीति के घालमेल से गहरा संबंध रहता है। भगवान वेंकटेश्वर के लड्डू महाप्रसादम् में मिलावट के विवाद और उससे जुड़ी राजनीति का जो भी हश्र हो, लेकिन इसने मंदिरों के संचालन और दान-दक्षिणा-चढ़ावे में आने वाले अकूत धन के प्रबंधन के साथ-साथ इस घालमेल का सवाल एक बार फिर से ताज़ा कर दिया है। इस नये प्रकरण के कारण भारतीय बुद्धिजीवियों (सेकुलर और गैरसेकलुर दोनों), पार्टियों (हिंदू राष्ट्रवादी हों या न हों), धार्मिक संगठन (सनातनी हों या आर्यसमाजी) और सरकार को एक बार फिर उन दुविधाओं में भी फंसा दिया है जो अंग्रेज़ों के ज़माने में पैदा हुई थीं। आज़ादी के बाद सरकार किसी की भी रही हो, पर मंदिरों के प्रबंधन का अधिकार हिंदू संगठनों को देने के लिए कभी कोई विधायी पहल नहीं की गई। एक बार भाजपा के एक सांसद ने प्राइवेट बिल पेश ज़रूर किया, पर कोई नतीजा नहीं निकला। सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं बहुतेरी दायर की गईं, लेकिन कोई अपने इस मकसद में कामयाब नहीं हुई। एक भाजपा समर्थक ने कोर्ट के समझाने पर अपनी याचिका वापिस तक ले ली। 
हिंदू राष्ट्रवाद का समर्थन करने वाले एक अंग्रेज़ीपरस्त बुद्धिजीवी ने दावा किया है कि हिंदुओं को अपने मंदिरों पर वही अधिकार मिलने चाहिए जो मुसलमानों को अपनी मस्जिदों और ईसाइयों को अपने चर्चों पर हासिल हैं। यहां तीन बड़े सवाल उठते हैं : पहला, ये महाशय आखिर किसके सामने दावा कर रहे हैं और किसे चुनौती दे रहे हैं? देश में पिछले दस साल से उनकी प्रिय पार्टी की सरकार है। छह साल पहले भी रह चुकी है। अभी भी कमोबेश उसी निज़ाम चल रहा है। जब संसद में धारा 370 की उपधारा 35ए हटाई जा सकती है, तो संविधान के अनुच्छेद 25(2) में संशोधन की पहल क्यों नहीं की जा सकती थी? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने पहले 1959 में और फिर 1988 में प्रस्ताव पास करके मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने का आह्वान किया था। तो फिर संघ ने अपनी सरकार के प्रधानमंत्री को यह पवित्र दायित्व पूरा करने का निर्देश क्यों नहीं दिया? 
दूसरा, क्या एक किताब और एक ईश्वर में यकीन रखने वाले अल्पसंख्यक समुदायों को जो अधिकार प्राप्त हैं उनकी कसौटी पर बहुसंख्यक समाज को कसने से ये महाशय हिंदुओं के धर्म की बुनियादी पेगन या बहुदेववादी प्रकृति को बदल कर सियामी या सेमेटिक बनाने की कोशिश करते नहीं दिख रहे हैं? इसके अलावा यह भी सोचना चाहिए कि भारतीय राज्य के हाथ में हिंदू मंदिरों का संचालन रहने से क्या यह बात साबित नहीं होती कि भारत अघोषित रूप से एक हिंदू राष्ट्र ही है। एक ऐसा राष्ट्र जिसका राज्य हिंदुओं की धार्मिक गतिविधियों के एकमात्र केंद्र का प्रबंधन पूरी तरह से अपने हाथ में रखता है। आधुनिक भारतीय राज्य के धार्मिक राज्य होने का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है? 
हिंदू राष्ट्रवादी बुद्धिजीवियों के साथ-साथ यह प्रश्न कहीं न कहीं सेकुलर बुद्धिजीवियों को भी सता रहा होगा। धर्म को राज्य और राजनीति से अलग रखने के आग्रही सेकुलरवादी शुरू में शायद यह मान कर चल रहे होंगे कि अगर उनका राज्य अल्पसंख्यक अधिकारों की सुरक्षा की गारंटी करता रहेगा तो हिंदू मंदिरों का संचालन करने की विकृति अपनी अहमियत खो देगी। दरअसल, उन्हें सपने में भी अंदाज़ा नहीं था कि एक दिन हिंदू बहुसंख्यकवाद उन्हीं अल्पसंख्यक अधिकारों के आईने में अपने राष्ट्रवाद को देखने लगेगा।
तीसरा, कौन नहीं जानता कि हाल ही में प्राणप्रतिष्ठित हुए रामलला के अयोध्या मंदिर के निर्माण और संचालन की प्रक्रिया व्यावहारिक रूप से पूर्णत: सरकार द्वारा नियुक्त अ़फसरशाही के हाथों में रही है। पिछले दस साल से विश्व हिंदू परिषद हो या रामजन्मभूमि ट्रस्ट हर तरह से केंद्र और राज्य सरकार द्वारा समर्थित और पोषित संगठन बन चुके हैं।  ‘मंदिर हमने बनवाया’ कह कर सरकार और सरकारी पार्टी बिना किसी संकोच के इस मंदिर के बनने और इंतज़ाम का श्रेय ले रही है। यहां सरकार, मंदिर, उसे बनवाने और प्रबंधन करने वाले एकमेक हो गए हैं। रामलला के मंदिर के संदर्भ में हिंदू राष्ट्रवादियों और स्वयं संघ को अपने पुराने प्रस्ताव क्यों याद नहीं आए? 
इस देश में कई मंदिर और मठ खुल कर राजनीति में भाग लेते हैं। चुनाव के समय उनसे उम्मीद की जाती है कि वे अपने अनुयायियों को अपनी पसंदीदा पार्टी और उम्मीदवार की तरफ वोटरों को झुकाएंगे। गोरख पीठ के महंत तो न जाने कब से चुनाव लड़ते रहे हैं। उनके मौजूदा महंत पिछले सात साल से मुख्यमंत्री हैं। और भी कई मठों के महंत चुनाव में खुल कर भाग लेते हैं। यह कोई आजकल से नहीं बल्कि पचास के दशक से ही हो रहा है। भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस के भी अपने महंत, अपने धर्माचार्य, अपने सन्यासी व अपने शंकराचार्य रहे हैं। अंतर केवल यह है कि पहले ऐसे लोग अक्सर हार जाते थे, और अब वे अक्सर जीतते हैं। राममंदिर आंदोलन ने धर्म-संसद के विचार को लोकप्रिय किया है। इस अवधारणा में हमेशा यह खतरा मौजूद है कि कभी भी यह जनप्रतिनिधियों की संसद की जगह लेने की कोशिश कर सकती है। बात यह है कि धर्म और राजनीति के घालमेल को न कभी रोका जा सका है, और न ही रोका जा सकेगा। पहले इसे थोड़े संकोच के साथ किया जाता था, और अब इसे गाजेबाजे और टीवी प्रसारण के साथ किया जाता है। किसी भी पार्टी के हों, नेता लोग हमेशा सफेद वस्त्र पहनते हैं, पर हमारी निगाहें चाहें तो उनकी पोशाक के वैकल्पिक भगवा रंग को हमेशा देख सकती हैं। 


लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।