मतदाता अब किसी पार्टी या मोर्चे के व़फादार नहीं रहे

दो विधानसभा के चुनावों से एक दिलचस्प तथ्य यह निकल कर आया है कि पार्टियों के प्रति व़फादार वोटरों की संख्या लगातार घटती जा रही है। एक सर्वेक्षण के अनुसार इन दोनों प्रांतों में दलों के प्रति निष्ठावान वोटरों का प्रतिशत किसी भी तरह से 12 से 25 प्रतिशत के ज्यादा नहीं था। यह आंकड़ा एक्सिस माई इंडिया का है। ध्यान रहे कि इस संस्था की भविष्यवाणी दोनों ही चुनावों में सही साबित हुई है। दूसरा दिलचस्प तथ्य यह है कि महाराष्ट्र में तकरीबन 40 प्रतिशत मतदाताओं ने आखिरी वक्त में तय किया कि वे किसे वोट देने जा रहे हैं। इसलिए ऐन मौके तक दिखा ही नहीं कि किस पार्टी या मोर्चे की लहर है। यह एक बहुत बड़ा प्रतिशत है। पहले अनिर्णय के शिकार वोटर या मध्यवर्ती मतदाता 15-20 प्रतिशत के ज्यादा नहीं होते थे। ये दोनों तथ्य बताते हैं कि हमारा ज्यादातर वोटर ‘त्रिलोटिंग’ होता जा रहा है। वह एक चुनाव में किसी एक मोर्चे और पार्टी को वोट देता है, और दूसरे चुनाव में किसी और को। वह ज़माना गया जब वोटर चुनाव-दर-चुनाव किसी एक  पार्टी के प्रति व़फादारी दिखाते रहते थे। यानी, अब वोट बैंकों या जेबी वोटों का वक्त तेज़ी से खत्म होता जा रहा है। 
महाराष्ट्र और झारखंड का अनुभव हमारे सामने विधानसभा चुनाव लड़ने और जीतने का एक मॉडल भी पेश करता है। भाजपा ने महाराष्ट्र में इसी मॉडल से जीत हासिल करके जीत हासिल की। झारखंड मुक्ति मोर्चा ने भी अपनी विधानसभा इसी मॉडल के इस्तेमाल से जीती। इस मॉडल को तीन हिस्सों में समझा जा सकता है। पहला, मतदाताओं के एक बड़े हिस्से के खाते में सीधे-सीधे छोटी-छोटी रकमें (रेवड़ियाँ) डालने की योजना न केवल बनायी जाए, बल्कि उसे चुनाव से कुछ महीने पहले से लागू करना शुरू कर दिया जाए। दूसरा, अपने कार्यकर्ताओं और पहले से स्थापित समर्थन आधार में जोश पैदा करने के लिए एक आक्रामक लेकिन आकर्षक नारा दिया जाए। तीसरा, छोटी-छोटी बातों से लेकर बड़ी-बड़ी बातों तक चुनाव का बारीकी और सफाई से प्रबंधन किया जाए और जमकर हर तरह के संसाधन (ऩकदी समेत) झोंके जाएं। 
इस मॉडल की खास बात यह है कि यह उन पार्टियों के लिए ज्यादा म़ुफीद साबित होता है जो चुनाव के समय सत्ता में होती हैं। सत्ता को चुनौती दे रही विपक्षी पार्टियों के सामने दिक्कत यह रहती है कि वे योजनाओं का आश्वासन दे सकती हैं, लेकिन मतदाताओं को वह पार्टी भाती है जो हाथ में पैसा दे रही होती है। इस लिहाज़ से चुनाव जीतने का यह मॉडल एंटीइनकम्बेंसी को मंद करने और पलट देने का मॉडल भी है। हां, जब किसी सरकार की छवि बहुत खराब होती है तो यह मॉडल नहीं चलता। जैसे कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश और तेलंगाना में नहीं चला था। इस मॉडल से यह भी निकल कर आता है कि अब भारतीय राजनीति में सत्ता में कदम जमा चुकी पार्टियों का तख्ता पलटना कितना मुश्किल होता जा रहा है। यानी, यह दौर ‘एंटीइनकम्बेंसी’ नहीं बल्कि मुख्य तौर पर ‘प्रोइनकम्बेंसी’ का है। 
लेकिन, इस मॉडल का मतलब यह नहीं है कि इसे यांत्रिक रूप से लागू करके सफलता हासिल की जा सकती है। चतुराई, लचीलेपन और दूरंदेशी की ज़रूरत हर चुनाव में पड़ती है। रणनीतिक ़गलतियों का खामियाजा हर पार्टी को उठाना पड़ता है, भले ही वह कितनी भी विशाल, संसाधन सम्पन्न और समर्पित कार्यकर्ताओं से भरी हुई क्यों न हो। मसलन, झारखंड में भाजपा ने चुनाव से पहले एक ‘ईडी-एडवेंचर’ किया था। मनीलांडरिंग के एक मामले में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को पकड़ कर जेल में डाल दिया गया था। अगर भाजपा ने यह रणनीतिक ़गलती न की होती तो सोरेन को आदिवासी अस्मिता का नारा देने का मौका न मिलता, और उनके पांच साल के शासन की एंटीइनकम्बेंसी को भुनाने में भाजपा ़कामयाब हो जाती। भाजपा की दूसरी ़गलती मुसलमान घुसपैठियों द्वारा झारखंड की आबादीमूलक संरचना बदलने का आरोप लगाने से जुड़ी थी। यह नारा नहीं चला। सोरेन ने मैयां सम्मान योजना के ज़रिये हज़ारों परिवारों में एक हज़ार रुपए प्रति माह बांटे। भाजपा ने भी अपनी तरफ से ऐसी ही योजना की घोषणा की, पर आदिवासी अस्मिता और हाथ में आ रही छोटी सी रकम पर लोगों ने ज्यादा भरोसा किया। मुक्ति मोर्चे ने विषम परिस्थितियों और भाजपा के ज़बरदस्त हमले के बावजूद 2019 से बेहतर परिणाम निकाल कर दिखाये। 
महाराष्ट्र में भाजपा सत्ता में थी। वहां के मतदाताओं ने लाड़की बहिण योजना पर ज्यादा भरोसा किया, बावजूद इसके कि विपक्षी मोर्चा इस योजना में मिल रहे डेढ़ हज़ार रुपए से दोगुना यानी तीन हज़ार रुपए देने का वायदा कर रहा था। तीन महीने से सरकार 94,000 परिवारों में यह मदद पहुंचा रही थी। यहां तक कि मतदाताओं को ़खुश करने के लिए दीपावली का बोनस तक दिया गया। भाजपा ने अपने कार्यकर्ताओं और पारम्परिक जनाधार को उत्साहित करने के लिए ‘बटेंगे तो कटेंगे’, ‘एक हैं तो स़ेफ हैं’ और  ‘वोट जिहाद’ जैसी फिकरेबाज़ी भी जमकर की। तीसरे, संसाधनों का खुले हाथ से इस्तेमाल किया गया। बूथ-प्रबंधन की भाजपाई मशीनरी की भी अहम भूमिका रही। इसके विपरीत कांग्रेस के नेतृत्व वाले महा विकास अघाड़ी की कहानी रणनीतिक ़गलतियों से भरी हुई रही। कांग्रेस के रणनीतिकारों को लगा कि लोकसभा चुनाव में सफल हो चुकी तरकीब विधानसभा चुनाव में भी चल जाएगी। इसलिए उनका फोकस संविधान-सभाएं करने व जातिगत जनगणना की मांग बुलंद करने पर रहा। उन्होंने लोकसभा की ही तरह शरद पवार और उद्धव ठाकरे की पार्टियां तोड़ने को ‘गद्दारी’ की तरह दिखाना जारी रखा। यानी, विधानसभा चुनाव के लिए उनके पास कहने के लिए नया कुछ नहीं था।
 महाराष्ट्र और झारखंड में चले ये मॉडल कुछ और भी सुराग देते हैं। जैसे, डेढ़ हज़ार रुपए महीने का मतलब हुआ प्रति दिन महज़ पचास रुपए। इसी तरह हज़ार रुपए महीने का अर्थ प्रति दिन केवल 33.33 रुपए हुआ। इससे पता चलता है कि भारत के ज्यादातर मतदाता कितने ़गरीब हैं। इतनी छोटी रकम से भी वे राहत महसूस करते हैं। दूसरे, लाभार्थी योजनाओं का अनुभव बताता है कि जब योजना नयी होती है तो उसके लाभार्थी मदद देने वाली सरकारी पार्टी के प्रति कृतज्ञता अनुभव करते हैं। लेकिन जब योजना पुरानी हो जाती है तो वे उस तत्परता से बदले में वोट नहीं देते। लोकसभा चुनाव और 2022 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा इस मुश्किल का सामना कर चुकी है। अरसे से मदद ले रहे लोग हर बार किसी नयी योजना की अपेक्षा करते हैं। एक लाभार्थी योजना ज्यादा से ज्यादा एक चुनाव में ही वोट दिला सकती है। दूसरा सुराग यह है कि जिन स्त्रियों को पचास रुपए देने के बदले वोट ले कर सत्ता कायम रखी गई है, वे अपने राजनीतिक सशक्तिकरण के लिए तरस रही हैं। महाराष्ट्र के सदन में पिछली बार स्त्री विधायकों की संख्या चौबीस थी, जो इस बार घट कर बाईस रह गई है।

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।

#मतदाता अब किसी पार्टी या मोर्चे के व़फादार नहीं रहे