डगमगाती कांग्रेस

इस वर्ष हुए लोकसभा चुनावों में देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस लोकसभा में 99 सीटें जीतने में सफल हुई थी क्योंकि पिछली लोकसभा में इसकी सीटें 52 थीं और इस बार उसने 99 सीटें जीत कर अपनी लोकसभा सीटों में उल्लेखनीय वृद्धि की थी। इसी कारण राजनीतिक विशेषज्ञों ने ये अनुमान लगाने शुरू कर दिये थे कि आगामी समय में कांग्रेस अपने आप को पुन: बहाल कर सकेगी और एक बार फिर देश की राजनीति में अहम रोल अदा करने के समर्थ होगी। लेकिन लोकसभा के चुनावों के बाद हरियाणा और जम्मू-कश्मीर दोनों राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में और इनके बाद अब महाराष्ट्र और झारखंड में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने जिस प्रकार की कारगुजारी दिखाई है, और जिस ढंग से ये चुनाव लड़े हैं, उनसे यह अंदाज़ा लगता है कि अभी कांग्रेस को दोबारा से उभरने में काफी समय लग सकता है। लेकिन यदि कांग्रेस ने अपनी चुनाव रणनीति के साथ-साथ अपने संगठन ढांचे को ऊपर से लेकर नीचे तक मज़बूत बनाने में सफलता हासिल न की तो यह भी सम्भव है कि यह पार्टी आने वाले समय में और भी कमजोर हो जाए तथा और भी बहुत सारे नेता इसको छोड़ कर भाजपा या अन्य पार्टियों में चले जाएं।
नि:संदेह इस समय देश में लोकतंत्र, धर्म निर्पेक्षता और संविधान के संघीय ढांचे को मज़बूत बनाने के लिए कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी का शक्तिशाली होना ज़रूरी है। देश में साम्प्रदायिक सद्भावना और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को बनाए रखने के लिए भी सत्तारूढ़ पार्टी के साथ-साथ मुख्य विरोधी पार्टी का देश की राजनीति में सक्रियता के साथ विचरण करना बहुत ज़रूरी है। परन्तु कांग्रेस जिस ढंग से चुनाव लड़ रही है और जिस तरह से उसकी कारगुज़ारी एक के बाद एक चुनाव में निराशाजनक रूप में सामने आ रही है, उससे देश में गैर-भाजपा सोच वाले लोगों में चिन्ता बढ़ती जा रही है। यदि लोकसभा के चुनावों के बाद हुए चार राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की कारगुज़ारी को देखें तो तस्वीर कुछ इस प्रकार बनती है—हरियाणा में कांग्रेस पार्टी पूरे भरोसे में थी कि इस बार वह अपनी सरकार ज़रूर बनाएगी। भाजपा राज्य सरकारों के दस वर्ष के सत्ता विरोधी रुझान के बावजूद कांग्रेस सिर्फ 37 सीटें ही जीत सकी थी। जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस ने नैशनल कांफ्रैंस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था और इसने 90 सीटों में से कुल 39 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किये थे। सात सीटों पर कांग्रेस और नैशनल कांफ्रैंस के बीच दोस्ताना मुकाबला हुआ था। गठबंधन में इसको सबसे अधिक 29 सीटें जम्मू क्षेत्र में लड़ने के लिए मिली थीं लेकिन इन 29 सीटों में से कांग्रेस पार्टी सिर्फ एक सीट ही जीत सकी थी। अब महाराष्ट्र के आए ताज़ा चुनाव परिणाम में भी इस पार्टी की कारगुज़ारी बेहद निराशाजनक रही है। महाविकास अघाड़ी गठबंधन की यह सबसे बड़ी पार्टी थी और इसने 101 विधानसभा सीटें लड़ी थीं और यह मुख्यमंत्री के पद की भी दावेदार थी, लेकिन यह सिर्फ राज्य में 16 सीटें ही जीत सकी है। झारखंड में कांग्रेस ने झारखंड मुक्ति मोर्चा और गठबंधन के और सहयोगियों के साथ मिलकर 30 सीटों पर चुनाव लड़ा था लेकिन वहां पर भी यह सिर्फ 16 सीटें ही जीत सकी है जबकि दूसरी तरफ झारखंड मुक्ति मोर्चा ने 41 सीटों पर चुनाव लड़ा था और वह 34 सीटों पर विजयी रहा है।
उपरोक्त चारों राज्यों में कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व के साथ-साथ क्षेत्रीय नेतृत्व भी कोई करिश्मा दिखाता नज़र नहीं आया। कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व की भिन्न-भिन्न राज्यों में अपने क्षेत्रीय यूनिटों पर पकड़ बेहद कमज़ोर हुई दिखाई दे रही है। कांग्रेस की क्षेत्रीय इकाइयों के बड़े नेता पार्टी को चुनाव जिताने के स्थान पर अपने गुट को चुनाव जितवाने तथा पार्टी के भीतर के अपने-अपने विरोधी गुटों के उम्मीदवारों को हराने के लिए यत्नशील रहते हैं। कांग्रेस हाईकमान तथा इसकी राज्यों की क्षेत्रीय इकाइयों के बीच तालमेल की कमी भी बार-बार उभरती है। पंजाब विधानसभा के उप-चुनावों में भी तालमेल की कमी देखने को मिली है। यदि राष्ट्रीय राजनीति की बात करें तो प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा 10 वर्ष के अपने दो कार्यकाल पूर्ण करने के बाद पिछले लोकसभा चुनाव जीत कर तीसरा कार्यकाल आरम्भ कर चुकी है, परन्तु इस पूरे समय के दौरान लोगों की मांगों तथा मामलों को लेकर कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर एक भी प्रभावशाली आन्दोलन खड़ा करने के समर्थ नहीं हो सकी। ले-दे कर राहुल गांधी ने दो चरणों में भारत जोड़ो यात्रा अवश्य शुरू की थी, जिसका थोड़ा-बहुत लाभ पार्टी को अवश्य मिला, परन्तु समूचे तौर पर लोगों के मुद्दों को उठा कर तथा उनके लिए संघर्ष करके पार्टी देश भर में अपना उभार नहीं बना सकी। जब भिन्न-भिन्न राज्यों में विधानसभा के चुनाव होते हैं तो भी पार्टी का राष्ट्रीय नेतृत्व डावांडोल होता दिखाई देता है। अपनी सहयोगी पार्टियों के साथ पूरा-पूरा तालमेल नहीं रखती। करो या मरो की भावना से कार्य करती दिखाई नहीं देती। समय पर उम्मीदवारों का चयन नहीं किया जाता। चुनाव वाले राज्यों की ज़मीनी हकीकतों के दृष्टिगत उचित रणनीति नहीं बनाई जाती। रैलियां तथा बैठकें आयोजित करने में भी कांग्रेस पिछड़ती दिखाई देती है।
अब तो इसकी सहयोगी क्षेत्रीय पार्टियां भी यह महसूस करने लगी हैं कि कांग्रेस उनके साथ चुनाव समझौतों में बड़ी संख्या में सीटें तो लड़ने के लिए ले लेती है, परन्तु ली गई सीटों पर प्रभावशाली ढंग से चुनाव नहीं लड़ती, जिस कारण वह ज़्यादातर सीटें हार जाती है और इसका खमियाज़ा इसके क्षेत्रीय सहयोगियों को भुगतना पड़ता है। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल का, जम्मू-कश्मीर में नैशनल कान्फ्रैंस का, अब महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी गठबंधन के सहयोगियों का तथा झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा का भी ऐसा ही अनुभव रहा है। जम्मू-कश्मीर में चुनाव प्रचार के दौरान उमर अब्दुल्ला ने तो स्पष्ट रूप में कांग्रेस को कहा था कि वह जम्मू क्षेत्र में जहां से वह 29 सीटों पर लड़ रही है, में अपने चुनाव अभियान को प्रभावी बनाए, परन्तु कांग्रेस ऐसा करने में विफल रही। झारखंड में भी कांग्रेस का चुनाव अभियान सुस्त रहने के कारण हेमंत सोरेन ने तो सरेआम यह बयान दे दिया है कि यदि कांग्रेस को कम सीटें दी जातीं तो वह और भी अधिक सीटें जीत सकते थे। समूचे रूप में निष्कर्ष यह निकलता है कि यदि कांग्रेस अपने राष्ट्रीय नेतृत्व से लेकर भिन्न-भिन्न राज्यों के अपने क्षेत्रीय नेतृत्व को मज़बूत, गतिशील तथा अनुशासित नहीं बनाती तथा समय की ज़रूरत के अनुसार भाजपा की तरह तेज़ी से उचित फैसले लेने का सामर्थ्य हासिल नहीं करती तो इस पार्टी द्वारा अपनी पहले वाली शान बहाल करना लगभग असम्भव हो जाएगा।

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