विधानसभा के ताज़ा चुनावों में संघ ने निभाई सक्रिय भूमिका
लोकसभा चुनावों के दौरान अक्सर अ़फवाहें सुनी जाती थीं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व (मोदी और शाह) से पूरी तरह से खुश नहीं है। इसलिए वह चुनाव प्रचार में पार्टी की पूरी मदद नहीं कर रहा है। पूरे देश में संघ के स्वयंसेवक कुछ रुष्ट से हैं। वे घर से निकल नहीं रहे हैं। पूछने पर वे कहते हैं कि जब सारी गारंटी मोदी की ही है, तो फिर मोदीजी ही चुनाव जितवा लें। भाजपा ने भी इस रोष की परवाह नहीं की। और तो और, पार्टी के अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में यह तक कह दिया कि पार्टी अब इतनी मज़बूत हो चुकी है कि उसे संघ की ज़रूरत ही नहीं रही। संघ ने इसका बहुत बुरा माना, और उसका प्रयास बचे हुए चुनाव में ज़ीरो हो गया। लेकिन, इस झटके के बाद अब विधानसभा चुनावों के दौरान संघ का एक दूसरा ही रूप सामने आ रहा है। ऐसा लगता है कि मोदी-शाह ने संघ के नेतृत्व के सामने अपनी गलती मान ली है। उनकी समझ में आ गया है कि संघ के अभिभाकत्व को चुनौती देना उनके राजनीतिक हित में नहीं है।
ऐसा प्रतीत होता है कि सौ साल पूरे होने से ठीक पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने वजूद के दूसरे दौर में प्रवेश कर लिया है। 1925 से अभी तक का पहला दौर अगर ‘सांस्कृतिक कम राजनीतिक’ रहा है, तो अब दूसरा दौर ‘राजनीतिक कम सांस्कृतिक’ होने वाला है। कहना न होगा कि संघ ने हमेशा राजनीति की है, पर हरियाणा-कश्मीर-महाराष्ट्र-झारखंड के विधानसभा चुनावों से पहले उसकी राजनीति एक ़खास तरह की राष्ट्रवादी-सांस्कृतिक गोलबंदी में लिपटी रहती थी। चुनावों में पहले जनसंघ और अब भाजपा की पूरी मदद करने के बावजूद वह जब चाहे कह देता था कि उसके कामों को राजनीति की श्रेणी में नहीं डाला जाना चाहिए। लेकिन इन विधानसभा चुनावों में वह पहली बार खुल कर राजनीतिक गोलबंदी करता नज़र आया। मीडिया मंचों पर उसके पैरोकारों ने संकोचहीन हो कर जो कहा, उसका एक ही मतलब निकल सकता है कि इन चुनावों में पीछे से भूमिका निभाने के बजाय संघ ने भाजपा की अगुआई की। उसने हरियाणा और महाराष्ट्र की असाधारण जीतों का श्रेय लेने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यानी, अब संघ को अपना राजनीतिक चेहरा नुमाया करने में कोई संकोच नहीं रह गया है। संघ के इस नये संस्करण और उसकी राजनीतिक-भुजा भाजपा के बीच संबंधों में भी इस नये घटनाक्रम से परिवर्तन होना तयशुदा है।
सार्वजनिक जीवन में संघ की प्रामाणिक आवाज़ समझे जाने वाले ‘ज्ञानयोद्धा’ दिलीप देवधर ने मीडिया को बताया है कि संघ ने इस बार महाराष्ट्र के चुनाव में वोटरों को प्रभावित करने के लिए जितना नियोजित प्रयास किया, उतना उसने न तो 1977 के चुनाव में आपातकाल के बाद किया था और न ही 2014 के चुनाव में। देवधर के मुताबिक संघ के पश्चिमी प्रांत के प्रमुख रहे अतुल लिमये के नेतृत्व में तीन हज़ार इंटलेक्चुअल कमांडो तैयार किये गये जिन्होंने इस विशाल राज्य के कोने-कोने में जाकर बेहद अनुशासित तरीके से भाजपा का संदेश फैलाने, नारों को लोकप्रिय करने और कांग्रेस की आलोचना करने में असंख्य स्त्री-पुरुष स्वयंसेवकों (प्रदेश के बाहर से लाये गये ़करीब तीस हज़ार कार्यकर्ताओं समेत) का नेतृत्व किया।
इस काम में संघ के दो मंचों लोक जागरण मंच और प्रबोधन मंच की विशेष भूमिका रही। संघ की इस मुहिम को नज़दीकी से देखने वाले वरिष्ठ पत्रकारों के मुताबिक इस अभियान में न झंडा दिख रहा था, न ही लाउडस्पीकर का इस्तेमाल हो रहा था। सम्पर्क की प्रक्रिया एकदम व्यक्तिगत स्तर की थी। वोटरों की तीन श्रेणियां बनाई गईं। पहली श्रेणी में भाजपा के पारम्परिक वोटरों को रखा गया। दूसरी और तीसरी श्रेणियां क्रमश: भाजपा से दूसरी रखने वाले वोटरों की थीं जिन पर ज्यादा ध्यान देना था। संघ के प्रचारकों ने ओबीसी समुदायों (तेली, धनगर, माली, सुतर और बंजारा) में जमकर भाजपा का संदेश फैलाया। दूसरी तरफ विदर्भ क्षेत्र को कांग्रेस के पाले से निकालने के लिए नियोजित प्रयास किये गये। प्रचार खत्म होने के आखिरी बीस दिनों में संघ ने नितिन गडकरी को मैदान में उतारा। उन्होंने पूरे प्रदेश में 70 से ज्यादा रैलियां कीं। ़खास बात यह भी रही कि संघ ने शुरुआत से ही भाजपा के नेताओं के साथ समन्वय बनाते हुए उम्मीदवारों के चयन में भी भूमिका का निर्वाह किया।
अपने नये संस्करण में संघ यह चाहता है कि सारा देश उसके इस चुनावी-उद्यम के बारे में जाने। इसलिए मुहिम के दौरान ही अ़खबारों में बड़ी-बड़ी ़खबरें छपीं कि किस तरह संघ जो काम हरियाणा में कर चुका है, वही काम वह महाराष्ट्र और झारखंड में ज्यादा बड़े पैमाने पर कर रहा है। एक अनुमान के अनुसार हरियाणा में संघ ने कम से कम दस हज़ार बैठकें करके कांग्रेस के पक्ष में चल रही लहर का मुकाबला किया। महाराष्ट्र के संदर्भ में उसका यह प्रयास ़करीब तीन लाख बैठकों तक चला गया। यहीं सवाल उठता है कि झारखंड में संघ की ये गतिविधियां इच्छित परिणाम क्यों नही दे सकीं? हम जानते हैं कि वनवासी कल्याण आश्रम के ज़रिये संघ आदिवासियों के बीच सघन काम करता है। महाराष्ट्र के आदिवासियों ने भाजपा को और झारखंड के आदिवासियों ने मुक्ति मोर्चे को वोट क्यों दिये?
इसके दो कारण समझे जा रहे हैं। पहला, महाराष्ट्र देश के सबसे अधिक शहरीकृत (तकरीबन 60 प्रतिशत) राज्यों में से एक है। फिलहाल संघ और हिंदुत्व की विचारधारा शहरी इलाकों में अधिक असरदार होती है। हरियाणा भी एक ऐसा राज्य है जहां गांव और शहर बेहद नज़दीकी से परस्पर गुंथे हुए हैं। लेकिन झारखंड मूलत: ग्रामीण और अर्धशहरी किरदार का है। वहां के लिए की गई चुनावी गोलबंदी के संघ को अनुकूल फौरी नतीजे नहीं मिले। आश्रम द्वारा किये जाने वाले काम का चरित्र मुख्यत: दूरगामी किस्म का होता है। दूसरा, मोदी सरकार द्वारा हेमंत सोरेन की भ्रष्टाचार के आरोपों में गिरफ्तारी से आदिवासियों में एक भाजपा विरोधी माहौल बन गया था, जिसका कुछ न कुछ नुकसान होना लाज़िमी था।
दिलीप देवधर द्वारा की जाने वाली बातों में झांकने पर यह अंदाज़ा भी लगाया जा सकता है कि मोदी संघ-मुक्त भाजपा और संघ-मुक्त सरकार बनाना चाहते थे। चार जून को मतदाताओं ने उनकी इस कोशिश पर पानी फेर दिया। इसका लाभ उठा कर संघ ने वापसी की। अब ऐसा लगता है कि शुरुआती छींटाकशी के बाद संघ और मोदी के बीच एक तरह के संयुक्त नेतृत्व का व्यावहारिक समीकरण बन गया है। ज़ाहिर है कि इस समीकरण में पलड़ा बार-बार संघ के पक्ष में ही झुकना है। पहले भाजपा के अध्यक्ष कहने की जुर्रत कर सकते थे कि अब पार्टी को संघ की ज़रूरत नहीं रही। लेकिन, इन चुनावों में संघ ने साबित कर दिया है कि भाजपा का काम संघ के बिना नहीं चलने वाला।
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।