एक साथ चुनाव बारे विधेयक संविधान के लिए नुकसानदेह

भारत के संविधान के तैयार होने की 75वीं वर्षगांठ के अवसर पर लोकसभा में हुई बहस में संविधान की रक्षा के बारे में भाजपा नेताओं द्वारा वाक्पटुता दिखाने के दो दिन बाद मोदी सरकार ने एक संविधान संशोधन विधेयक पेश किया है, जो संविधान और उसके भीतर संघीय ढांचे को नुकसान पहुंचाने का प्रयास है।
दो विधेयक पेश किये गये—संविधान (129वां संशोधन) विधेयक और केंद्र शासित प्रदेश कानून संशोधन विधेयक, जो लोकसभा और राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की सभी विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनाव सुनिश्चित करने का प्रावधान करते हैं। संविधान संशोधन विधेयक तीन खंडों में संशोधन करता है और संविधान में एक नया खंड शामिल करता है। इन संशोधनों के तहत लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनाव कराने के लिए संविधान में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए पांच साल के कार्यकाल के मूल सिद्धांत को खत्म कर दिया गया है। 
सबसे पहले, लोकसभा चुनाव और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनावों को एक साथ लाने के लिए भारत के राष्ट्रपति द्वारा घोषित निर्धारित तिथि के बाद लोकसभा के पांच साल के कार्यकाल की पूर्ण समाप्ति पर सभी राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल भी समाप्त हो जायेगा। इसका मतलब यह है कि एक साथ चुनाव का रास्ता बनाने के लिए कुछ विधानसभाओं के पांच साल के कार्यकाल में कटौती की जायेगी। यह राज्य विधानसभा के पूरे पांच साल के कार्यकाल के अधिकार पर पहला हमला है। 
इसके अलावा, भविष्य में लोकसभा या राज्य विधानसभाओं के लिए पांच साल के कार्यकाल की गारंटी नहीं है। संशोधनों में से एक में कहा गया है कि यदि लोकसभा अपने पूर्ण कार्यकाल की समाप्ति से पहले भंग हो जाती है तो अगली लोकसभा के लिए केवल शेष अवधि के लिए चुनाव होंगे। राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल के संबंध में एक समान संशोधन प्रस्तावित है। यदि किसी राज्य की विधानसभा को बीच में ही भंग कर दिया जाता है, तो चुनाव केवल शेष अवधि के लिए होंगे। इसलिए मध्यावधि चुनाव में चुने गए संसद सदस्य या विधायक का कार्यकाल पांच साल का नहीं होगा। यह संविधान में निर्धारित संसदीय लोकतंत्र की मूल योजना के विरुद्ध है।
राज्य विधानसभा के कार्यकाल में इस तरह की कटौती से संघवाद और निर्वाचित राज्य विधायकों के अधिकारों पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा। संघीय ढांचा, जो राज्यों के संघ में अभिव्यक्त होता है और अधिक कमज़ोर हो जायेगा क्योंकि विधानसभा के लिए पांच साल के कार्यकाल का मूल अधिकार नष्ट हो जायेगा।  यह केंद्र सरकार और केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी द्वारा हेरफेर का रास्ता भी खोलता है। उदाहरण के लिए यदि राज्य सरकार के पतन के कारण राज्य विधानसभा अपने कार्यकाल के चार साल बाद भंग हो जाती है, तो विधानसभा के शेष एक साल के कार्यकाल के लिए मध्यावधि चुनाव का कोई मतलब नहीं है। ऐसी स्थिति में या तो सरकार के पतन को रोकने के लिए खरीद-फरोख्त का रास्ता खुलेगा या फिर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने का निमंत्रण होगा। 
संघवाद का अर्थ है विविधता और अलग-अलग भाषाई-सामाजिक-सांस्कृतिक स्थितियों और राजनीतिक बहुलता को मान्यता देना। लोकसभा के साथ सभी राज्य विधानसभा चुनावों को एक साथ सीमित करना उन्हें एक केंद्रीकृत प्रणाली में एक समरूप राजनीतिक इकाई में बदलने का प्रयास है। 
‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ प्रणाली के समर्थकों द्वारा आगे बढ़ाये गये प्रमुख तर्कों में से एक यह है कि यह अलग-अलग समय पर होने वाले चुनावों की बहुलता के कारण होने वाले फिज़ूलखर्ची को कम करेगा। हालांकि, संसद और विधानसभा चुनावों के बीच तालमेल बनाये रखने के लिए प्रस्तावित बदलावों से कम समय में अनावश्यक चुनावों का रास्ता खुल जाता है। 
प्रस्तावित संविधान संशोधनों के अनुसार, पांच साल के कार्यकाल वाली राज्य विधानसभा के लिए चुनाव हो सकते हैं, फिर अगर राज्य सरकार गिरती है, तो शेष कार्यकाल के लिए मध्यावधि चुनाव होंगे, जिसके बाद पांच साल के कार्यकाल के अंत में एक और चुनाव होगा। इसका मतलब है कि पांच साल के अंतराल में तीन चुनाव होंगे। अगर ऐसी स्थिति लोकसभा स्तर पर होती है, तो पांच साल के अंतराल में तीन राष्ट्रीय चुनाव होंगे।
 ऐसी बेतुकी स्थिति चुनावों पर होने वाले खर्च को कई गुना बढ़ा देगी। 
विधेयक में एक ऐसा खंड भी पेश किया गया है, जो चुनाव आयोग को किसी भी राज्य में चुनाव में देरी करने का फैसला करने का अधिकार देता है, अगर उसे लगता है कि स्थिति इसकी मांग करती है। चुनाव आयोग की सिफारिश पर राष्ट्रपति कार्रवाई करेंगे। यह एक खतरनाक प्रावधान है जिसका इस्तेमाल संघीय ढांचे में किसी राज्य के मूल अधिकार को खत्म करने के लिए किया जा सकता है।
भाजपा शासकों की राष्ट्रवादी हिंदुत्व विचारधारा ने ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ प्रणाली को प्रेरित किया है। यह एक ऐसी विचारधारा है जो एक सत्तावादी-केंद्रीकृत राज्य की लालसा रखती है। यह संघवाद, विविधता और बहुलवाद विरोधी है। मोदी सरकार ने इन विधेयकों को एक अति-केंद्रीकृत राज्य के लिए प्रयास के हिस्से के रूप में लाया है। 
18वीं लोकसभा के चुनाव के बाद भाजपा और उसके राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के पास लोकसभा में दो-तिहाई बहुमत नहीं है, न ही राज्यसभा में। संविधान संशोधन को दोनों सदनों में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से पारित किया जाना आवश्यक होगा। इसके अलावा दोनों सदनों के आधे सदस्यों को संशोधन के पक्ष में मतदान करना होगा। ऐसे बहुमत के बिना ये विधेयक पेश किये गये हैं और उन्हें एक संयुक्त संसदीय समिति को विस्तार से विचार करने के लिए भेजा गया है। 
ऐसा लगता है कि इसका उद्देश्य संसद में इस मुद्दे को लटकाये रखना और इसे राजनीतिक प्रचार के लिए इस्तेमाल करना और भविष्य में किसी अनुकूल अवसर का इंतजार करना है। यह आवश्यक है कि इन संशोधनों के लोकतंत्र-विरोधी, संघीय-विरोधी चरित्र के विरुद्ध अभियान चलाया जाये और लोगों के सामने इसे उजागर किया जाये। (संवाद)

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