देश की आर्थिक नीतियां—डा. मनमोहन सिंह से नरेन्द्र मोदी तक

पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को श्रद्धांजलि देने के बजाय हिंदुत्ववादी शक्तितयों की तरफ से सोशल मीडिया पर अभियान चलाने वाली शक्तियां लिख रही हैं कि केवल शिष्टता भर से राष्ट्र-निर्माण नहीं किया जा सकता। दरअसल, वे यह दिखाना चाहती हैं कि मौजूदा सरकार के नेतृत्व (मोदी-शाह) में शिष्टता भले न हो, पर वे राष्ट्रनिर्माण ज़रूर कर रही हैं। ज़ाहिर है कि इन शक्तियों को पता है कि शिष्टता, संस्कार और उदारता के मामले में भाजपा का मौजूदा नेतृत्व डा. मनमोहन सिंह का मुकाबला नहीं कर सकती। तो क्या यह मान लिया जाए कि अर्थव्यवस्था का संचालन करने के मामले में यह नेतृत्व मनमोहन सिंह का समकक्ष है या उनसे बेहतर है? जांच करने पर पता चलता है कि इस मामले में भी मनमहोन सिंह भाजपा की सरकार से बहुत आगे निकलते हैं। हाँ, यह ज़रूर है कि मनमोहन सिंह शेखी बघारने में, झूठ बोलने में और प्रचारप्रियता (दरअसल कैमराप्रियता) के मामले में मौजूदा नेतृत्व से बहुत पीछे हैं।
दरअसल, मनमोहन सिंह की आर्थिक विरासत का मूल्यांकन करने के मामले में हम लोगों को नरेंद्र मोदी द्वारा किये जाने वाले आर्थिक प्रबंधन को कसौटी बनाना ही नहीं चाहिए। मोदी के ज़माने में तो अर्थव्यवस्था और कमज़ोर ही हुई है। वह मनमोहन सिंह द्वारा थमायी गई व्यवस्था को मज़बूत नहीं रख पाये। अगर पूंजीवादी मानकों पर ही कस कर देखा जाए तो भी मोदी वह नहीं कर पाये जो मनमोहन सिंह के उत्तराधिकारी से अपेक्षा थी। इस मामले में मानना पड़ेगा कि मनमोहन सिंह ने नब्बे के दशक की शुरुआत में पी.वी. नरसिंह राव के वित्तमंत्री के तौर पर पूंजीवादी आर्थिक विकास की उस विरासत को अच्छी तरह से संभाला जो उन्हें इंदिरा गांधी और फिर राजीव गांधी की सरकारों से मिली थी।  
राजनीतिक अर्थशास्त्र के महारथी अतुल कोहली के अनुसार इंदिरा गांधी ने 1980 में अपनी वापसी करते ही कॉरपोरेटपरस्त नीतिगत सुधार शुरू कर दिये थे। उन्होंने बड़े औद्योगिक समूहों के विस्तार में आड़े आने वाली बाधाओं को हटाने के लिए पब्लिक सेक्टर (सार्वजनिक क्षेत्र) को कई क्षेत्रों से हटा दिया था। इजारेदारी को नियंत्रित करने वाला कानून हल्का कर दिया गया। इंदिरा गांधी ने मज़दूर हड़तालों, घेरावों, धीमे काम करने जैसी आंदोलनकारी कार्रवाइयों को चंद लोगों द्वारा गैर-ज़िम्मेदारी का समाज-विरोधी प्रदर्शन करार दिया। फैडरेशन ऑ़फ इण्डियन चैम्बर्स आफ कॉमर्स एंड इण्डस्ट्रीज़ ने प्रधानमंत्री की इन पहल़कदमियों का स्वागत किया था। कोहली द्वारा दिये गये तथ्य बताते हैं कि अस्सी के शुरुआत में अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक हालात भारत के पक्ष में थे जिनका लाभ उठाने में भारत को अपने मज़बूत औद्योगिक क्षेत्र और विदेशी कज़र् के निचले स्तर के कारण मदद मिली। इंदिरा गांधी और उनके बाद राजीव गांधी ने पूंजीवाद विरोधी वामोन्मुख लफ्फाजी छोड़ कर दक्षिण कोरिया और ब्राज़ील की भांति कॉरपोरेटपरस्त, मज़दूर विरोधी, घरेलू बाज़ार के लिए संरक्षणवादी और निर्यातोन्मुख रवैया अपनाया। 
इस लिहाज़ से हमें कोहली की यह बात माननी पड़ेगी कि पूंजीवादी आर्थिक वृद्धि का सिलसिला नब्बे के दशक में भूमण्डलीकरण की शुरुआत से नहीं, बल्कि इसका श्रेय अस्सी के दशक के प्रारम्भ से ही अपनाई गयी ‘आर्थिक राष्ट्रवादी’ नीतियों को मिलना चाहिए। आमतौर पर आर्थिक वृद्धि का श्रेय 1991 में उठाए गये कदमों को दिया जाता है, पर ह़क़ीकत यह है कि इन नीतियों से औद्योगिक वृद्धि में कोई नया उछाल नहीं आया। सत्तर का दशक जब खत्म हुआ तो 1965-79 के बीच की वृद्धि दर 2.9 प्रतिशत थी, जो  इन नयी नीतियों के फलस्वरूप बढ़ कर 5.8 हो गयी। 1991 से 2004 के बीच भी इस दर में कोई इज़ाफा नहीं हुआ और यह 5.6 बनी रही। अगर केवल औद्योगिक वृद्धि-दर पर ही ़गौर किया जाए तो आंकड़े बताते हैं कि अस्सी से नब्बे के बीच यह 6.4 थी जबकि 1990 से 2004 के बीच यह थोड़ी घट कर 5.8 रह गयी। दूसरी, इस आर्थिक वृद्धि की ज़िम्मेदार नीतियां बाज़ार की ताकतों की तरफदारी करने के लिए नहीं, बल्कि निजी पूंजी की स्थापित शक्तियों (कॉरपोरेट जगत) के पक्ष में प्रबल राजकीय हस्तक्षेप के लिए बनाई गयी थीं। 
दरअसल, इसी समय से भारत का कॉरपोरेट जगत सत्तारूढ़ शक्तियों का मित्र ही नहीं, वरन् सहयोगी शासक बनता चला गया। इंदिरा गांधी ने ये नीतियां बड़ी ़खामोशी से लागू कीं। इस ज़माने का आर्थिक साहित्य बताता है कि उन्होंने कॉरपोरेट शक्तियों से गठजोड़ किया, पब्लिक सेक्टर की बढ़ोतरी को रोका, आर्थिक नियोजन के महत्व को घटाया। बड़े पूंजीपतियों ने इस परिवर्तन को ़फौरन समझा और इंदिरा गांधी की नयी औद्योगिक नीति का खुले दिल से स्वागत किया। इस नीति के केंद्र में ‘ग्रोथ फर्स्ट’ और ‘मोर प्रोडक्शन’ के आग्रह थे। तीसरी, इन कॉरपोरेटपरस्त नीतियों से आर्थिक वृद्धि ज़रूर हुई, लेकिन इनमें विपरीत राजनीतिक परिणामों के अंदेशे निहित थे, क्योंकि राजनीतिक और आर्थिक अभिजनों के संकीर्ण गठबंधन पर आधारित ये नीतियां समाज में आमदनी के बंटवारे को और असमान करने वाली थीं। 
बजाय इसके कि नरेंद्र मोदी मनमोहन सिंह के आर्थिक मॉडल की समस्याओं का निराकरण करते, उन्होंने उन समस्याओं को और बिगाड़ा। उनके शासन काल की शुरुआत में ही (2015 में) अर्थव्यवस्था के आठ सबसे ज़्यादा रोज़ागार देने वाले उद्योगों में सबसे कम केवल 1.35 लाख नये रोज़ागार ही पैदा हुए। सरकारी लेबर ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार इसके म़ुकाबले 2013 में 4.19 लाख और 2014 में 4.21 लाख नये रोज़ागार सृजित हुए थे। अगर लेबर ब्यूरो के आंकड़ों को ़गौर से देखें तो इस साल की दो तिमाहियों यानी अप्रैल-जून और अक्तूबर-दिसम्बर, 2015 में क्रमश: 0.43 व 0.20 लाख रोज़ागार कम हो गये! रिज़र्व बैंक के एक अध्ययन पर आधारित यह विश्लेषण काबिल-ए-़गौर है कि 1999-2000 में अगर जीडीपी एक प्रतिशत बढ़ती थी तो रोज़ागार में भी 0.39 प्रतिशत का इज़़ाफा होता था। 2014-15 तक आते-आते स्थिति यह हो गयी कि एक प्रतिशत जीडीपी बढ़ने से स़िर्फ 0.15 प्रतिशत रोज़ागार बढ़ने लगा। यानी, जीडीपी बढ़ने, पूंजीपतियों का मुनाफा बढ़ने से लोगों को रोज़ागार मिलना बंद हो गया। 
आज स्थिति यह है कि जब कॉरपोरेट मीडिया अर्थव्यवस्था में तेज़ी-खुशहाली बताए तो भी उससे आम लोगों को ़खुश होने की कोई वजह नहीं बनती। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार 1991-2013 के बीच भारत में 30 करोड़ रोज़ागार चाहने वालों में से आधे से भी कम अर्थात् 14 करोड़ को ही काम मिल सका। जिनको काम मिला भी उनमें से 60 प्रतिशत को साल भर काम नहीं मिलता। कुल रोज़ागार में से स़िर्फ सात प्रतिशत ही संगठित क्षेत्र में थे, बाकी 93 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र के कामगारों को न कोई निश्चित मासिक वेतन मिल रहा था, और न ही प्रोविडेंट फण्ड आदि कोई अन्य लाभ। 2015 में नयी कम्पनियां स्थापित होने की दर घट कर 2009 के स्तर पर पहुंच गयी। अप्रैल, 2016 में दो हज़ार से भी कम नयी कम्पनियां रजिस्टर हुईं जबकि पिछले दशक में हर महीने औसतन छह हज़ार कम्पनियां रजिस्टर होती थीं। पूंजीवादी व्यवस्था में नयी कम्पनियां नहीं आएंगी तो रोज़गार कहां से मिलेगा? इसके अलावा कम्पनियों का आकार घटने लगा। 1991 में 37 प्रतिशत कम्पनियां दस से ज़्यादा लोगों को रोज़गार देती थीं, लेकिन 2016 में सिर्फ 21 प्रतिशत कम्पनियां ही ऐसी बचीं।
डा. मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व में पहले पांच साल नौ फीसदी के आसपास की वृद्धि दर के लिए जाने जाते हैं (जो नापने की नयी तऱकीब के हिसाब से 12 फीसदी बैठती है), पर यह अवधि रोज़गारहीन वृद्धि की थी। इस दौरान नयी नौकरियां नहीं मिलीं, पर दूसरे पांच वर्षों में तो लगी-लगाई नौकरियां जाने भी लगीं। अरुण माइरा द्वारा किये गये एक विश्लेषण के अनुसार 2000 से 2010 के बीच जब वैश्विक स्तर पर रोज़गार प्रत्यास्थता (इलास्टिसिटी) 0.3 थी, तो भारतीय अर्थव्यवस्था में यही प्रत्यास्थता 0.2 दिख रही थी। ध्यान रहे कि सदी की शुरुआत के पहले पांच वर्षों में यह रोज़गार प्रत्यास्थता 0.44 थी जो 2010 तक आते-आते 0.01 रह गयी। इसका सीधा मतलब था कि भारतीय अर्थव्यवस्था इस समय तक शून्य रोज़गार पैदा करने की स्थिति में पतित हो चुकी थी।
यह विश्लेषण बताता है कि नरेंद्र मोदी के शासनकाल की शुरुआत में ही मनमोहन सिंह की आर्थिक विरासत के सभी सकारात्मक पहलुओं को तिलांजलि दे दी गई। हां, उसकी खामियों और विकृतियों में इज़ाफा होता रहा। 

-लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं में अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं। 

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