मसूरी के पास छोटा-सा सुंदर पहाड़ी गांव लैंढौर
मुझे सामान्य व्यक्तियों से अधिक गर्मी लगती है। पसीना भी ज्यादा आता है ताकि मेरा जिस्म कूल रहे। इसलिए जैसे ही गर्मियां दस्तक देने लगती हैं, मैं यूरोप की तरफ निकलने का इरादा करता हूं और अगर किसी वजह से स्वीडेन या स्विट्ज़रलैंड जाने की योजना सफल न हो तो उत्तर भारत के हिल स्टेशनों का रुख करता हूं। इस बार मैं लैंढौर आया हुआ हूं, वहीं से यह लेख लिख रहा हूं। मैंने दिल्ली से फ्लाइट पकड़ी और देहरादून के जॉलीग्रांट हवाई अड्डे पर उतरा। वहां से टैक्सी के ज़रिये पहले लगभग 60 किमी का सफर तय करके मसूरी पहुंचा। मसूरी से लैंढौर मात्र 7 किमी के फासले पर है। हालांकि भारत के सभी प्रमुख शहरों से देहरादून के लिए सीधी फ्लाइट मिल जाती है, लेकिन अगर आप रेल या सड़क मार्ग से आना चाहें तो भी देहरादून के लिए दिल्ली से सीधी रेल व बस सेवाएं उपलब्ध हैं। मुंबई आदि महानगरों से भी देहरादून के लिए सीधी रेल मिल जाती हैं। अगर आप मेरी तरह प्राकृतिक सौन्दर्य और शांति की तलाश में रहते हैं तो आप लैंढौर अवश्य आयें। यह एक ऐसा हिल स्टेशन है, जहां भीड़ मुश्किल से ही होती है। अंग्रेजी राज का बसाया हुआ यह हिल स्टेशन आधुनिकीकरण से अछूता है, पर्यटक भी कम ही आते हैं, लेकिन इसकी सुंदरता के आप कायल हो जायेंगे। इसकी ख़ूबसूरती ने तो मुझे इतना मंत्रमुग्ध कर दिया है कि मेरी इच्छा स्थायी तौर पर यहीं बसने की हो रही है, लेकिन व्यावसायिक मजबूरियां यह फैसला करने से मुझे रोक रही हैं।
लैंढौर मसूरी के पास स्थित एक ऐसा छोटा सा पहाड़ी क्षेत्र है जो गर्मी से मुकम्मल राहत देता है। इसकी सड़कों पर न शोरगुल है और न ही दुकानों की भीड़, लेकिन यह प्राकृतिक सुंदरता, ठंडी जलवायु और शांत वातावरण से लबरेज़ है। चूंकि लैंढौर मसूरी से मात्र 7 किमी के फासले पर है इसलिए इसे मसूरी का ही एक हिस्सा माना जाता है। लेकिन लैंढौर पहाड़ों की रानी का तिआरा है। मसूरी जैसे व्यस्त शहर के इतने करीब स्थित होने के बावजूद लैंढौर शांत, अनदेखे और अछूते आकर्षणों से भरा हुआ है। यह सवाल किया जा सकता है कि मसूरी के इतने करीब होने के बावजूद लैंढौर इतना अलग क्यों है? दरअसल, लैंढौर हमेशा से ही छावनी क्षेत्र का हिस्सा रहा है। नतीजतन पिछले 100 वर्षों से लैंढौर में कोई पेड़ों की कटाई या वनों की कटाई नहीं हुई है। कानून यह है कि लैंढौर में किसी भी प्रकार का नया निर्माण गैर कानूनी है। इन नियमों के कारण आधुनिकीकरण और पर्यटन ने लैंढौर को स्पर्श नहीं किया है। लैंढौर में समय जैसे रुका हुआ है। लेकिन यही अच्छी बात है क्योंकि इसी वजह से लैंढौर अपनी सुंदरता व स्वच्छ वातावरण को बचाये रखने में सफल हो सका है।
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि देश की आज़ादी के समय लैंढौर में 24 मकान थे और आज भी लैंढौर में 24 ही मकान हैं। किसी ने कितना सही कहा है- ‘चौबीस मकान और दुकानें चार, बस इतना ही है लैंढौर।’ दक्षिण पश्चिम वेल्स के कार्मार्थेंशायर में एक गांव है लैंडडोरोर। इसी गांव के नाम पर लैंढौर का नाम रखा गया है। ब्रिटिश राज के दौरान यह आम बात थी कि अपने घरों को (या उन नगरों को भी जिन्हें ब्रिटिश ने स्थापित किया था) नास्टैल्जिया से भरे हुए इंग्लिश, स्कॉटिश, वेल्श या आयरिश नाम दिए जायें, जोकि व्यक्ति की देशजता को अभिव्यक्त करते हों। लैंढौर मसूरी से औसतन 984 फीट ऊपर है। लैंढौर का अधिकतर हिस्सा तिब्बत को फेस करता है। यहां तापमान अमूमन मसूरी से 2-3 डिग्री सेंटीग्रेड कम रहता है। मानसून में लैंढौर में लगभग हर दिन बारिश होती है। इसके अतरिक्त मानसून से पहले और बाद की बारिश का अर्थ है कि लैंढौर में बरसात मई से सितम्बर तक रहती है, जो किसी साल इससे कम भी हो जाती है। बरसात से पहले अप्रैल-मई में गर्मी रहती है। दिसम्बर से फरवरी तक कड़ाके की सर्दी रहती है। जाड़ों में 3 से 15 बार बर्फबारी होती है। लैंढौर में बर्फ मसूरी से ज्यादा पड़ती है और उससे देर में पिघलती है। लैंढौर के पूरब में छोटा सा गांव धनौल्टी है और सुर्खंदा देवी मंदिर भी। फिर कनातल है जो अब टेहरी बांध में डूब गया है और चम्बा है (जोकि हिमाचल प्रदेश के चम्बा से अलग है)। लैंढौर के पश्चिम में कैंपटी फाल्स हैं, जो पर्यटकों को आकर्षित करता है और सैन्य कस्बा चकराता है। विख्यात लेखक रस्किन बांड लैंढौर में ही रहते हैं और उनके पड़ौसी निर्देशक विशाल भारद्वाज हैं।
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