झूमती फसलों एवं मचलती उमंगों का त्यौहार बैसाखी

बैसाखी दरअसल शब्द ‘वैशाखी’ का अपभ्रंश है और यह जिस ‘वैशाख’ शब्द से बना है, उसका मतलब होता है भारतीय कालगणना में और मास का प्रथम दिन। भारतीय समाज में बैसाखी का जितना धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व है, उतना ही ऐतिहासिक, आध्यात्मिक और सामाजिक भी है। बैसाखी शब्द जुबान पर आते ही जेहन में पांच नदियों वाला गेहूं की फसल से लहलहाता पंजाब, रंग-बिरंगी पोशाकों में सजे सरदार, भंगड़ा और गिद्दा की झूमती मस्ती घूमने लगने लगती है। लेकिन बैसाखी का महत्व यह उल्लास भर नहीं है बल्कि यह सौरमंडल की एक खास गति के माहत्म्य का भी केंद्र है। इसी दिन 13 अप्रैल सन 1699 को दशम गुरु, गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की थी। अगर खालसा पंथ की स्थापना नहीं हुई होती तो शायद ही आज हिंदुस्तान हिंदू बाहुल्य देश होता। यह खालसा पंथ ही है, जिसने हिंदू धर्म और संस्कृति को सुरक्षित रखने में अपनी अहम भूमिका निभायी लेकिन पहले आइये बैसाखी को इसके सबसे लोकप्रिय रूप में देखें जिसमें उल्लास और आध्यात्मिकता का संगम है। पंजाब के खेतों में जब पकी हुई सुनहरी फसलें हवा के झोंकों के साथ झूमती हैं, तो ऐसा लगता है मानो प्रकृति भी इस उत्सव का स्वागत कर रही हो। 
बैसाखी और खालसा पंथ
बैसाखी सिर्फ किसानों के लिए नई फसल की खुशी का पर्व नहीं है, बल्कि सिख धर्म के इतिहास में भी यह एक बेहद महत्वपूर्ण दिन है। 13 अप्रैल का यह दिन गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा 1699 में खालसा पंथ की स्थापना का दिन भी है। आनंदपुर साहिब में हजारों की भीड़ के सामने उन्होंने पांच प्यारों को अमृत छका कर ‘सिंह’ और ‘कौर’ की उपाधि दी और धर्म की रक्षा के लिए खालसा पंथ की नींव रखी। यह वह क्षण था जब सिख धर्म की आध्यात्मिक ऊर्जा और बहादुरी एक नए स्वरूप में सामने आयी।
गिद्दा, भंगड़ा और स्वादिष्ट पकवान
बैसाखी का नाम आते ही एक रंगीन तस्वीर उभरती है-भंगड़ा और गिद्दा की धुनों पर थिरकते लोग, सरसों के साग और मक्के की रोटी की सुगंध और मीठी लस्सी के साथ हलवा-पूरियों का आनंद। ढोल की धमक और ‘जो बोले सो निहाल!’ की गूंज माहौल में जोश भर देती है।
बैसाखी का आध्यात्मिक रंग
इस दिन श्री हरिमंदिर साहिब (स्वर्ण मंदिर) में श्रद्धालु विशेष अरदास करते हैं, लंगर छकते हैं और गुरबाणी के मधुर सुरों में डूब जाते हैं। यही नहीं, उत्तर भारत के कई हिस्सों में गंगा स्नान और मंदिरों में भव्य आयोजन होते हैं।
किसानों की खुशियों की खुशबू 
अगर बैसाखी की हम हंसते, गाते, मस्ती में झूमते त्यौहार के रूप की कल्पना करते हैं तो हमारी कल्पना में सबसे पहले और सबसे देर तक पंजाब रहता है। पंजाब और उससे सटे हरियाणा व राजस्थान में बैसाखी (रबी) की फसल के पकने की खुशी की द्योतक होती है। लोग यहां बैसाखी के दिन जो कि इस बार 13 अप्रैल को है, पवित्र नदियों, सरोवरों में स्नान करके गुरुद्वारों या मंदिरों में जाते हैं। घर में बने नये-नये पकवान खाते हैं। नयी फसल की कुछ बालियां भूनते हैं और उन्हें खाते हैं। इस दिन वे जमकर नाचते भी हैं यानी भांगड़ा करते हैं। 
घरों में रौशनी 
इस दिन लोग पंजाब और उसके आसपास के प्रांतों में, जहां बैसाखी धूमधाम से मनायी जाती है, लोग अपने घरों की सफाई करते हैं, आंगन में रंगोली बनाते हैं। रोशनी करते हैं, खूब सारे पकवान बनते हैं और सुबह-सुबह पवित्र सरोवरों और नदियों में स्नान करके गुरुद्वारों और मंदिरों में मत्था टेकते हैं। इस दिन पूरी दुनिया के गुरुद्वारों में दिनभर गुरुग्रंथ साहिब का पाठ होता है। कीर्तन होते हैं। नदियों के किनारे मेले लगते हैं और त्यौहार की खुशी का आनंद लिया जाता है। 
बैसाखी में दिल भी झूमते हैं 
सिर्फ फसलें ही नहीं लहरातीं, बैसाखी में दिल भी झूमते हैं। जी हां, यह वो दिन होता है जब खेतों में लहलहाती फसल की तरह ही युवा दिलों में भी प्यार के नए अंकुर फूटते हैं। बैसाखी के मेले में जब गबरू जवान रंग-बिरंगे कुर्ते-पजामे और तुंबनियों में सज-धजकर निकलते हैं, तो पंजाबी कुड़ियों का भी अलग ही स्वैग होता है- पटियाला सूट, झुमके, लम्बी चोटी और काजल भरी आंखों से जब वो इधर-उधर देखती हैं, तो मेला असल में वहीं जमता है।
बैसाखी मेलों में रोमांस के रंग
बैसाखी के मेले में गन्ने के रस की मिठास जितनी ज़रूरी होती है, उतने ही ज़रूरी होते हैं झूले पर बैठी लड़कियों के छुपे-छुपे मुस्कान देना और लड़कों का मूंछों पर ताव देना।  गोलगप्पे खाते-खाते चटकारे लेना और निगाहें मिलना-ये बैसाखी का क्लासिक सीन होता है! 
फुल ऑन मस्ती और ‘दिल्लगी’ 
यह त्योहार सिर्फ फसलों की कटाई की खुशी नहीं, बल्कि नई ‘बातचीत’ और ‘खुल के नाचने’ का परफेक्ट मौका भी देता है। अगली बार बैसाखी मने, तो सिर्फ खेत नहीं, अपना दिल भी थोड़ा हर्षित कीजिये.... क्या पता किसी की मुस्कान आपकी बैसाखी को यादगार बना दे।
इसका पौराणिक पक्ष भी   
जी हां, इस त्यौहार का एक पौराणिक पक्ष भी है। महाभारत के जिस प्रसंग को हम यक्ष-युधिष्ठिर संवाद के रूप में जानते हैं, वह यक्ष-युधिष्ठिर संवाद पंजाब के कटसराज ताल में इसी दिन हुआ माना जाता है। इसलिए इस दिन यहां पर भी लोग पूजा अर्चना करते हैं, मगर  बैसाखी मूलत: किसानों और उन सब लोगों का त्यौहार है, जो अपनी आजीविका के लिए धरती से जुड़े होते हैं। 
बैसाखी न केवल उत्साह और उमंग का प्रतीक है, बल्कि हमें यह भी सिखाती है कि मेहनत, भक्ति और साहस का मेल जीवन को सार्थक बनाता है। इस बैसाखी पर आप भी पूरे जोश और श्रद्धा के साथ इस पर्व को मनाइए और जीवन में नई ऊर्जा का स्वागत कीजिए! बैसाखी दी लाख-लाख बधाइयां!’
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर 

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