घड़ी मुंह बिराती है

बचपन में मां एक कहानी सुनाती थी जिसमें एक व्यक्ति को टिपटिपवा को छोड़कर किसी से डर नहीं लगता था। आप कहेंगे अचानक यह कहानी कैसे स्मरण हुआ? बात दरअसल यह है कि उस आदमी की तरह मुझे भी दुनिया में सिर्फ एक बात से ही डर लगता है। आप सोच रहे होंगे वह क्या है? सच कहती हूँ। घड़ी अर्थात समय के सिवा मैं किसी से नहीं डरती हूं।
सुबह जब भी मेरी आँख खुलती हैं आदतन नज़रें घड़ी पर जाती हैं। आज भी यही हुआ। घड़ी की सुईयां सुबह के तीन बजने का ऐलान कर रही थीं। मन में राहत की लहर दौड़ पड़ी। अलसाए मन में एक ख्याल मुस्कुराया ‘अभी तो तीन ही बजे हैं। थोड़ी देर और सोया जा सकता है।’ फिर क्या था-मैं अपनी अलसाई नींद भरी आंखें मूंद कर पुन: नींद की आगोश में समा गयी।
अचानक पतिदेव की आवाज कानों से टकरायी ‘स्कूल नहीं जाना है क्या?’
मैं हड़बड़ा कर झटके से उठी। सामने की दीवार पर टंगी घड़ी पर नज़रें दौड़ाई। कमबख्त घड़ी मंद-मंद मुस्कुराती प्रतीत हुई। मेरा तन-मन झुलस गया। लगा जैसे मेरे शरीर में तीव्र विधुत प्रवाह हो गया है। मेरी प्यारी घड़ी अब सामने खड़ी मुझे मुंह बिराती हुई प्रतीत होने लगी। सुबह के पांच बज चुके थे। मैं बेहद परेशान हो गई। बिना कुल्ली किए तेज़ कदमों से किचन की ओर लपकी। हड़बड़ी में दरवाजे से टकराते-टकराते बची। इसके बाद तो मत पूछिए क्या हुआ? मुझमें और घड़ी की सुइयों में जबरदस्त जंग शुरू हो गई। मैं हमेशा की तरह आज भी घड़ी को मात देने के लिए संकल्पित थी। यह बात और है जीत हासिल होने की संभावना शून्य ही थी। खैर मैंने सोच लिया था। इन्सान को किसी भी कीमत पर हार नहीं माननी चाहिए। मैं भी हार नहीं मानूँगी। सकारात्मक सोच के साथ आगे काम करने लगी। मेरे हाथ पैरों में गजब की स्फूर्ति आ गई। सुबह सवेरे हर हाल में घड़ी की सुइयों को मात देना ही एकमात्र पहला दैनिक लक्ष्य रहा है। यह बात और है कि मेरे हिस्से में अक्सर निराशा हाथ आयी है। घड़ी की रफ्तार अभी सामान्य लग रही थी। पर यह स्थिर भाव भी मुझे कहीं न कहीं चुभ रहा था। ऐसा प्रतीत होने मानो घड़ी मुझ पर व्यंग्य कर रही हो ‘चाहे कितना भी जोर लगा लो। जीतूंगी तो मैं ही...यह एहसास मेरे लिए सर्पदंश जैसा घातक था। मैं ध्यान एकाग्रचित्त कर अपने कामों को निबटाने लगी। जंग लगभग जीतने वाली ही थी कि मुई कल्पनाएं पता नहीं कहां से मटरगश्ती करती आ टपकी। मैं पहले अनदेखा करने का प्रयास की परन्तु कामयाब नहीं हो पाई। कल्पनाएं बहुत अड़ियल थीं। तब तक मुझे परेशान करती रहीं, छेड़ती रहीं जब तक मैं उन्हें ध्यान से देखी नहीं। मेरे हाथ, पैरों और दिमाग पर अब कल्पनाओं का साम्राज्य स्थापित हो गया। अब कुछ भी मेरे नियंत्रण में नहीं था? समय को मात देने की कोशिशें शिथिल होने लगी। मैं खुद हार के बहुत नज़दीक पहुंची महसूस कर रही थी। बस औपचारिक घोषणा रह गई थी। 
सारा खेल बिगड़ चुका था। हमेशा की तरह युद्ध में पराजित योद्धा को रणक्षेत्र से बाहर निकालने का वक्त आ गया।पतिदेव मेरी हाथों से वाइपर लेते हुए कहे ‘अब तुम जाओ।’ यह शब्द हमेशा मेरी हार का उद्घोष सिद्ध हुआ है। मैं हार के कदमों की आहट महसूस कर रही थी। मन खिन्न हो गया। समझ गई यदि अभी नहीं निकली तो इस हार का मलाल पूरे दिन डंक मारेगा। मेरी पहली बस छूट जाएगी। पतिदेव पर भी गुस्सा आ रहा था क्योंकि मेरी नज़रों में हारने के बाद मिली सहायता का कोई मोल नहीं होता है। मैं हडबड़ायी सी गुस्लखाने की ओर लपकी। घड़ी अपनी जगह पर टंगी दौड़ में मुझे पछाड़ने का जश्न मनाती नज़र आ रही थी। (सुमन सागर)

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