अब विधेयकों को निर्धारित समय में मिला करेगी राज्यपाल की स्वीकृति
राज्यपाल बनाम राज्य पुरानी कहानी है। एक दौर था, जब राज्यपाल की खेल-पुस्तिका में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश प्रमुख पैंतरा हुआ करता था। अब राज्यपालों द्वारा विपक्ष शासित राज्यों मसलन—तमिलनाडु, केरल, तेलंगाना, पंजाब, पश्चिम बंगाल आदि में विधेयकों को रोक लेना, विधानसभा सत्र बुलाने से इन्कार कर देना और वाइस-चांसलरों की नियुक्तियों को ठुकरा देना आदि आम बातें हो गई हैं। मसलन नवम्बर 2023 में सुप्रीम कोर्ट राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित के खिलाफ पंजाब की शिकायत से सहमत था, जिन्होंने चार विधेयकों की मंजूरी को रोक लिया था। इससे तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि को सबक ले लेना चाहिए था और विधेयकों को मंजूरी दे देनी चाहिए थी, लेकिन उन्होंने विधेयकों को राष्ट्रपति के पाले में उछाल दिया। नतीजतन सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल, 2025 को कहा कि उनकी कार्यवाही ‘गलत और अवैध’ थी। दरअसल, विपक्ष द्वारा शासित राज्यों में राज्यपाल अपने आप में कानून नहीं हो सकते। सुप्रीम कोर्ट ने इस तथ्य को पूर्णत: स्पष्ट कर दिया, राज्यपाल रवि के खिलाफ सख्त शब्दों में असाधारण और अपने किस्म का पहला फैसला सुनाते हुए।
तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि ने जिन 10 विधेयकों को रोका हुआ था, उन्हें सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद स्वीकृत माना जायेगा। ऐसा पहली बार हुआ है। इसके अतिरिक्त सुप्रीम कोर्ट ने विधेयकों को मंजूरी देने या ठुकराने के लिए समय सीमा भी निर्धारित की है। अब राजभवनों को राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर फैसला निर्धारित समय सीमा के भीतर करना होगा ताकि जो कुछ तमिलनाडु में हुआ, वह अन्य राज्यों में न हो सके। रवि ने एक विधेयक को जनवरी 2020 से रोका हुआ था। राज्यपाल ने जिन विधेयकों को रोका हुआ था, उनसे तमिलनाडु के उच्च शिक्षा संस्थानों पर केंद्र की पकड़ ढीली पड़ रही थी, जिनमें वाइस-चांसलरों को नियुक्त करने का अधिकार भी शामिल था। ज़ाहिर है राज्यपाल ‘फ्रैंड, फिलोस्फर एंड गाइड’ की भूमिका में नहीं थे (जैसा कि सुप्रीम कोर्ट के शब्दों में उन्हें होना चाहिए था), बल्कि वह केंद्र के लिए काम करते हुए प्रतीत हो रहे थे। न्यायाधीश जे.बी. पारदीवाला और न्यायाधीश आर. महादेवन की खंडपीठ का फैसला सभी राज्यपालों (विशेषकर विपक्ष शासित राज्यों के राज्यपालों) पर लागू होता है और इससे एक संवैधानिक अस्पष्टता पर भी विराम लगता है।
संविधान में यह तो था कि एक राज्यपाल को जितना जल्दी संभव हो सके विधेयक पर फैसला ले लेना चाहिए, लेकिन इसके लिए कोई समय निर्धारित नहीं था, इसलिए राज्यपाल महीनों, बल्कि कुछ मामलों में तो वर्षों तक विधेयक पर फैसले को रोके रखते थे जबकि विधानसभा द्वारा पारित विधेयक राज्यपाल की मंजूरी के बाद ही कानून बन सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस खालीपन को भरते हुए कहा है कि राज्यपालों को एक माह की समय सीमा के भीतर विधेयकों को मंजूरी देनी होगी। संविधान के अनुच्छेद 200 के शब्दों (जितनी जल्दी संभव हो सके) की अस्पष्टता को दूर करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल को अधिकतम तीन माह के भीतर विधेयक को पुनर्विचार के लिए विधानसभा के पास वापस भेजना होगा या राष्ट्रपति के पास भेजना होगा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर किसी विधेयक पर विधानसभा पुनर्विचार करके राज्यपाल के पास भेजती है तो राज्यपाल के पास कोई विकल्प नहीं है सिवाय इसके कि वह उसे मंज़ूरी दे।
इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला सभी राज्यों के लिए ऐतिहासिक जीत है और राज्य के प्रशासनिक काम काज में अनावश्यक दखलंदाज़ी करने वाले राज्यपालों के लिए सख्त चेतावनी भी है, लेकिन इससे किसी भी सूरत में राज्यपाल के दफ्तर की गरिमा कम नहीं होती है। हां, चुनी हुई विधानसभा की श्रेष्ठता अवश्य स्थापित होती है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘राज्य विधानसभा के सदस्यों को राज्य के लोगों ने चुना है। लोकतांत्रिक नतीजे के फलस्वरूप वह जनता की भलाई सुनिश्चित करने के लिए बेहतर स्थिति में हैं।’ अदालत के अनुसार राज्यपाल के पास ‘पॉकेट वीटो’ का अधिकार नहीं है, इसलिए उसने जो संवैधानिक शपथ ली है, उसकी पवित्रता से गाइड होना है न कि राजनीतिक सुविधा के विचारों से। दरअसल, समस्या केवल तमिलनाडु तक ही सीमित नहीं थी। अन्य राज्यों में भी इसी किस्म के गतिरोध बने हुए थे। पुदुच्चेरी में भी लेफ्टिनेंट-गवर्नर और विधानसभा के बीच टकराव था। तेलंगाना, पंजाब व केरल के राज्यपालों का मामला भी अदालत में पहुंचा कि वह लम्बित पड़े विधेयकों को मंजूरी नहीं दी जा रही थी। विधेयकों को लम्बे समय तक रोके रखने से यह धारणा बन गई कि राज्यपालों की राजनीतिक सक्रियता लेजिस्लेटिव प्रक्रिया को बाधित कर रही है और यह राज भवन की गरिमा के अनुरूप नहीं है। ज़ाहिर है कि इससे लोकतांत्रिक तौर पर चुनी गई सरकारों को काम करने में दिक्कतें आ रही थीं।
गौरतलब है कि संविधान के अनुच्छेद 153 के तहत हर राज्य में राष्ट्रपति द्वारा एक राज्यपाल नियुक्त किया जाता है। अनुच्छेद 154 के तहत राज्यपाल के कार्यालय के पास कार्यकारी शक्तियां होती हैं। अनुच्छेद 163(1) के अनुसार राज्यपाल के कार्य व शक्तियां परिगत हैं, जिसका अर्थ है कि उन्हें अपने मंत्रिमंडल के सहयोग व सलाह से ही काम करना होगा। इससे ज़ाहिर है कि राज्यपाल जो अपने विवेक से कार्य करता है, वह भी संवैधानिक नियमों द्वारा बंधा हुआ है। हालांकि विधेयक के लिए कानून बनने हेतु राज्यपाल (या राष्ट्रपति) की मंजूरी आवश्यक है, लेकिन 1974 के शमशेर सिंह बनाम पंजाब राज्य में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया था कि राज्यपाल केवल संवैधानिक प्रमुख हैं, राज्य की कार्यकारी शक्तियां वास्तव में मंत्रिमंडल द्वारा लागू की जाती हैं। अनुच्छेद 200 के तहत विधानसभा द्वारा पारित विधेयक को राज्यपाल के पास भेजना ज़रूरी होता है और तब राज्यपाल के पास चार विकल्प होते हैं—1. विधेयक को मंजूरी दे दे, 2. विधेयक को मंज़ूरी न दे, 3. विधेयक को राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेज दें और 4. विधेयक को पुनर्विचार के लिए विधानसभा को लौटा दें। इस अनुच्छेद को भारत सरकार का कानून 1935 के सेक्शन 75 पर मॉडल किया गया है जो इन चारों विकल्पों में से किसी एक के भी चयन के लिए समय सीमा निर्धारित नहीं करता है। शायद संविधान निर्माताओं ने कल्पना की थी कि योग्य व निष्पक्ष व्यक्ति ही राजभवन में जायेंगे और वह बिना पक्षपात के संविधान की भावना के अनुरूप कार्य करेंगे। समय के साथ राज्यपाल के अराजनीतिक होने की कल्पना गलत साबित हुई। इसलिए सरकारिया कमीशन (1987), एमएम पंछी कमीशन (2010) आदि सभी ने राज्यपालों द्वारा विधेयकों पर फैसला लेने के लिए समय सीमा निर्धारित करने की सिफारिश की। इन सिफारिशों पर संसद को अमल करना चाहिए था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में हस्तक्षेप करना पड़ा, इसलिए यह ऐतिहासिक फैसला स्वागतयोग्य है।
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