जीने के तरीकों के नये नकाब

उन्होंने हमें बताया है कि मेहनत का फल मीठा होता है। जी हां मीठा ही नहीं, बहुत मीठा हो जाता है, लेकिन उनके लिए नहीं जो भरपूर मेहनत के साथ कुदाली से टूटी सड़क को हमवार करके उसे बनाते हैं, बल्कि उन ठेकेदारों को इस मेहनत का फल मिलता है जिन्होंने नम्बर दो का मैटीरियल देकर सड़क बनवाई, तिकड़म भिड़ा कर अधूरी सड़क को पूरा होने का प्रमाण-पत्र देकर भुगतान करवाया, और पहली बारिश का इंतजार किया कि सड़क फिर टूटे, और उसे दोबारा ठेका मिले।
जी हां यूं मेहनत तो करनी ही पड़ती है, और उसका फल भी हथेलियों पर सरसों के जमने की तरह मिल जाता है, लेकिन मेहनत के ये आयाम क्यों बदल गए हैं? नई मेहनत में ऊंचे के सामने हाथ जोड़ना, और अपने से नीचे के लिए बन्दर घुड़की देना शामिल है। हाथ ही नहीं जोड़ो, तारीफ करने का गुर भी सीखो। बड़ा दूसरों के शेयर चुरा कर कविता करता है, तो उसे नये ज़माने का कालिदास साबित कर दो। कोई इनाम बांटने का धंधा करता है, तो अपने लिए इनाम मांगते हुए तनिक न शर्माओ, क्योंकि तुम्हारी इतनी कुव्वत तो है नहीं, कि इन्हें अपने लिए खरीद सको। हां, जब आर्थिक सामर्थ्य बन जाएगी तो इनाम खरीदना क्यों है, इसे बांटने का धंधा शुरू कर देना। चार आदमी हाथ जोड़ कर तुम्हारे पीछे भी घूमने लगेंगे, और अपने क्षेत्र के मसीहा अलग से कहलाओगे।
ज़िन्दगी एक दंगल है प्यारे, और दूसरों को पटखनी देने का गुण तुम्हें आना चाहिए। बदलते समय के ठेकेदार हमें समझाते हैं। हम समझ गए तो चार कदम चल लेंगे, तो आगे शार्ट कट संस्कृति का मुख्य द्वार है। ऐसे आदामी को तो उसकी सांकल खोलने की भी ज़रूरत नहीं पड़ती। एक सुरंग से दूसरी सुरंग का रास्ता निकल जाता है। बस आपको ज़माने के साथ रंग बदलना आना चाहिए।
रंग बदलने का अर्थ यह नहीं है कि उम्र भर स्थापित लोगों को गधे की तरह ढोते रहो। आज गधे तो कल घोड़ा बनना भी सीखें। इस अन्धी दौड़ में लोगों को उसे पीछे छोड़ जाना भी सीखो। जो निकल गया, उसे पीछे मुड़कर देखना मना है। कल जो तेरी बगिया का फूल था, तेरे गले की माला बना था, उसका काम खत्म हो गया। अब उसे ढोओगे तो वह तेरी राह का कांटा बन जाएगा। सुना नहीं अपनी ज़िन्दगी के मील पत्थरों से मोह करने वाले भावुक कहलाते हैं, संवेदनशील होकर कमज़ोरी दिखाते हैं। चोटी तक पहुंचना है तो इन राह के मील पत्थरों को भूलना होगा। जिन्होंने दुनिया जीती है, उन्होंने भावुकता और संवेदना जैसी कमियां कभी नहीं पालीं। समय की बाइबल बदल गई है बन्धु! जो उसे पढ़ नहीं पाया, वह फिसड्डी रह गया, उसके लिए शोक सभा आयोजित करने का क्या मतलब!
समय के अन्धा स्वार्थी हो जाने के साथ-साथ कुछ बदली बातें स्वीकार करो। भावुकता और संवेदना की बात कहने वाले मद्धम गति के सुन्दर गीतों की तरह थे। अब तेज़ गति से भागने वाले रैप सांग ने यह जगह ले ली है। इसमें माधुर्य खुद तलाश लो। नहीं मिलता तो आरोपित कर लो। आजकल ललित कला से लेकर साहित्य तक, राजनीति से लेकर समाज सेवा तक मसीहा वही बना जिसने अपना बैंड खुद बजाया। शास्त्रीय संगीत की शिक्षा में उम्र गुज़ारने जाओगे, तो शिक्षा लेते ही रह जाओगे, और ज़िन्दगी तुम्हारे हाथ से निकल कर पड़ोसी के घर का स्पूतनिक हो जाएगी।
ज़माना पुस्तक संस्कृति को ज़िन्दा रखने का नहीं, उसका मर्सिया पढ़ने का है। उसकी शोक सभा आयोजित करके आंसू बहाने का नहीं, उसकी बातूनी शोत्रा यात्रा निकाल कर उसका सिरमौर बन जाने का है।
आप पूछते हो, हमने तो भेंट में आई पुस्तकें भी कभी पढ़ी नहीं, उसके सिरमौर कैसे बन जाएं? अजी जनाब आजकल पुस्तकें कौन पढ़ता है। पहले उसकी भूमिका पढ़ी जाती थी, आजकल फेसबुक में उसका सार पढ़ा जाता है। पुस्तक खरीदने कौन जाये? उसका पी.डी.एफ. लेकर अपने पढ़े लिखे होने की डिग्री धारण कर लो। उसके किंडल प्राप्त करके अपने वाचनालय बना लें। दिलों की तरह आज लोगों के घर भी छोटे हो गए हैं। वहां उन्हें अपनी तस्वीरों की गैलरी बनाने से ही फुर्सत नहीं। तुम दूसरों की पुस्तकों से अपना वाचनालय बनाने की बात करते हो।
फिर समय भी तो बला की तेज़ी के साथ बदल गया है। बनावटी मेधा के ज़माने का उपहार डिजिटल होते देश ने दे दिया। इंटरनैट की ताकत ने हमारा वैश्वीकरण कर दिया। अब कठमुल्ले पालने और उन्हें प्रशिक्षण देने की ज़रूरत क्या है? रोबोट युग है यह। लोगों को कहो रोबोटों से यन्त्रचालित होना सीख लें, बस नैतिकता और आदर्श की बातें करना भूल जाएंगे। महामना का गलत या सही आदेश बजाते हुए उनकी आत्मा भी उन्हें कचोटेगी नहीं।रोज़ प्रकाशित होने वाले समाचार-पत्रों को देख लो। शादी और गृहस्थ होने की खबरों से अधिक लिव इन के अस्थायी संबंधों की वहां बहार है। निर्मम से निर्मम खबरें वहां छपती हैं। ‘यहां सब चलता है’ का युग बोध किसी को सकपकाता नहीं। कल तक जो व्यंग्य का विषय थे, वे आज की ज़िन्दगी का परिचय बन गये। पहले जीवन की विडम्बनाएं त्रासदी का सृजन करती थीं, आजकल त्रासद अनुभव करके आंसू बहाने वाले युग बोध से पिछड़ गए। लोग इन विडम्बनाओं से परिचित हो, नव-जागरण का संदेश नहीं पाते। ज़माने को बदलने की बात नहीं करते।
स्टैंड-अप विदूषकों का तमाशा देख कर दूसरों के अपमान को देख कर ठट्ठा कर हंसते हैं। अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर विकृत भाषा को सहन करना सीखते हैं। भई सब को अपना पेट पालना है। यह भी तो एक धंधा बन गया है। जब राजनीति से लेकर समाज सेवा तक, साहित्य सृजन से लेकर आदर्श और नैतिकता पर प्रवचन तक एक धंधा बन गया, तो आपको इस विकृत मानसिकता से क्यों तकलीफ हो रही है? हैरान होकर धंधा करने वाले पूछते हैं, लेकिन इन सवालों को नकारना चाहिए, जब कुछ लोग कहते हैं, तो हम उन्हें युगच्युत कह देते हैं।

#जीने के तरीकों के नये नकाब