बुनियादी सुविधाओं से वंचित लोगों के लिए जीडीपी रैंकिंग अप्रासंगिक
नीति आयोग के सीईओ ने दावा किया है कि भारत चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में उभरा है। उन्होंने कम से कम इतना तो सच कहा कि यह बात अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के विश्व आर्थिक परिदृश्य में 2025-26 के अनुमानों पर आधारित थी। आगे विस्तार से जानने पर हमें ठीक-ठीक पता चलता है कि भारत की नाममात्र जीडीपी जापान के 4,186.431 अरब डॉलर से थोड़ा आगे बढ़कर 4,187.017अरब डॉलर तक बढ़ने का अनुमान है। यह बिलकुल अलग बात है कि भारत की प्रति व्यक्ति आय डॉलर के हिसाब से नाममात्र है और जो जापान की प्रति व्यक्ति आय का मात्र 13वां हिस्सा है। इसलिएए मोदी सरकार के आर्थिक थिंक टैंक के समर्थकों के बीच मौजूदा उत्साह, जिसे गोदी मीडिया के चाटुकारों द्वारा और बढ़ाया जा रहा है, विचित्र लगता है।
दरअसल, सकल घरेलू उत्पाद के आंकड़ों को लेकर यह जुनून आकस्मिक नहीं है। यह वित्त-संचालित नव-उदारवादी आर्थिक प्रतिमान की विशेषता है। यह लोगों की स्थिति और उनकी आजीविका के बारे में जितना बताता है, उससे कहीं अधिक छिपाने में मदद करता है। वैश्विक प्रवृत्ति का हिस्सा होते हुए भी, यह विकृति भारत में विशेष रूप से स्पष्ट है जिसे अब दुनिया की सबसे असमान अर्थव्यवस्थाओं में गिना जाता है। विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 के अनुसार भारत की आबादी के शीर्ष 1 प्रतिशत के पास देश की 40 प्रतिशत से अधिक संपत्ति है जबकि निचले 50 प्रतिशत के पास केवल 3 प्रतिशत है। आय असमानता भी उतनी ही स्पष्ट है— शीर्ष 10 प्रतिशत लोग राष्ट्रीय आय का 57 प्रतिशत से अधिक कमाते हैं। इस संदर्भ में समग्र जीडीपी और यहां तक कि प्रति व्यक्ति जीडीपी के प्रति जुनून केवल एक भ्रामक मीट्रिक नहीं है। यह तो कॉर्पोरेट-सामुदायिक गठजोड़ द्वारा सार्वजनिक चर्चा को विचलित करने के लिए जानबूझकर बनायी जा रही हवा है।
इसका आधार स्पष्ट और ज़ोरदार है। जैसा कि ब्राज़ील के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अल्फ्रे डोसाद फिल्हो ने 2006 में देखा था, ‘यह वित्त-संचालित नवउदारवादी शासन के तहतसामाजिक जीवन के सभी क्षेत्रों में गैर-हस्तक्षेप के वैचारिक आवरण के तहत एक आधिपत्य परियोजना को लागू करने के लिए राज्य शक्ति के व्यवस्थित उपयोग पर आधारित शोषण और सामाजिक वर्चस्व है।’ वित्तीय बाज़ारों और अमरीकी पूंजी के वैश्विक हितों के तहत वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन पूंजी का मुख्य कार्य नहीं रह गया है। इसके बजाय, पूंजी अब मुख्य रूप से सट्टा वित्तीय गतिविधियों के माध्यम से अल्पकालिक सुपर-मुनाफा उत्पन्न करने के लिए तैनात की जाती है।
स्पष्ट रूप से आईएमएफ के अनुमानित जीडीपी आंकड़े समकालीन पूंजीवाद के आंतरिक कामकाज या श्रमिक वर्ग के लिए इसके विनाशकारी परिणामों को समझाने के लिए अत्यल्प जानकारी प्रस्तुत करते हैं। भारत में आबादी का शीर्ष 1 प्रतिशत कुल सकल घरेलू उत्पाद का 40 प्रतिशत नियंत्रित करता है। इसका मतलब है कि लगभग 1.4 अरब लोगों की प्रति व्यक्ति आय केवल 1,670 अमरीकी डॉलर के आसपास रह गयी है। अगर हम देश की 62 प्रतिशत सम्पत्ति पर नियंत्रण रखने वाले शीर्ष 5 प्रतिशत लोगों को हटा दें, तो औसत और भी गिरकर लगभग 1,100 अमरीकी डॉलर हो जाता है, जो सालाना 1 लाख रुपये से भी कम है। यह आबादी के भारी बहुमत द्वारा सामना की जाने वाली गंभीर वास्तविकता को दर्शाता है।
इस असमानता को और भी जटिल बनाता है जीडीपी योगदान में क्षेत्रवार विषमता। जीडीपी का बड़ा हिस्सा पूंजी-गहन सेवा क्षेत्रों और बड़े कॉर्पोरेट उद्यमों द्वारा उत्पन्न होता है। इस बीच असंगठित अनौपचारिक क्षेत्रों और कृषि में लगे लोग, जो कार्यबल का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं , कुल जीडीपी में केवल एक नगण्य हिस्सा योगदान डालते हैं। नतीजतन बढ़ती बेरोज़गारी के साथ-साथ स्थायी आय और आजीविका में संकट गहराता जा रहा है।
विश्व स्तर पर धनी लोगों द्वारा नीति पर कब्ज़ा करने से कर नीतियोंए नियामक ढांचे और सार्वजनिक निवेश निर्णयों को उनके लाभ के लिए आकार दिया गया है। भारत में यह कब्ज़ा और भी तीव्र है। कॉर्पोरेट हितों की बढ़ती पकड़, साथ ही क्रोनीपूंजीवाद के उदय ने सार्वजनिक संपत्तियों (प्राकृतिक संसाधनों सहित) को निजी हाथों में व्यवस्थित रूप से स्थानांतरित कर दिया है। जबकि कॉर्पोरेट मुनाफे में उछाल आया है, राष्ट्रीय आय में श्रम का हिस्सा घट गया है।
भारत में स्थिति विशेष रूप से विकट है। विमुद्रीकरण ने अनौपचारिक अर्थव्यवस्था को गंभीर झटका दिया, जिसने व्यवधान का खामियाजा उठाया। कोविड-19 महामारी के बाद की स्थिति और भी खराब हो गयी। ऐसे माहौल में अतिरिक्त रोज़गार पैदा करने या स्थायी आय सुनिश्चित करने की कोई गुंजाइश नहीं है। कुल सकल घरेलू उत्पाद में नाममात्र की वृद्धि भी साझा समृद्धि का कोई सुबूत नहीं देती है। कामकाजी गरीबों और बेरोज़गारों से परे मध्यम वर्ग भी तेजी से असुरक्षित हो रहा है। वह न केवल पीछे छूट रहा है, बल्कि नीचे की ओर खिसकने का जोखिम भी है। धन के पुनर्वितरण नीतियों की अनुपस्थिति में अभिजात वर्ग सार्वजनिक सेवाओं से बाहर निकलने का जोखिम उठा सकता है, विशेष निजी स्कूलों, कॉर्पोरेट अस्पतालों और बंद आवासीय समुदायों पर निर्भर करता है। यह सार्वभौमिक सार्वजनिक प्रणालियों में निवेश करने की राजनीतिक इच्छा को खत्म कर देता है।
इसलिए बुनियादी पोषण, आवास, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा से जूझ रहे 80 करोड़ भारतीयों के लिए जीडीपी रैंकिंग अप्रासंगिक है। कॉर्पोरेट-सांप्रदायिक गठजोड़ का उदय आकस्मिक नहीं है। यह लोगों को पहचान के आधार पर विभाजित करने का काम करता है, जिससे शासन का निरन्तर प्रभुत्व सुनिश्चित होता है। इस संदर्भ मेंए जनता द्वारा एकजुट एवं सामूहिक संघर्ष ही आगे बढ़ने का एकमात्र व्यवहार्य मार्ग है। (संवाद)