अंधेरी कराह पर हावी उत्सव मनाने की पुकार
ताज़ा सूरते हाल वही है जो ऐसी हालत में आज से पचास बरस पहले था। फिर इसे ताज़ा क्यों कह दें? वही निरन्तर बारिश है, और उसके भयावह हो जाने की अग्रिम कोई सूचना नहीं। यहां अचानक बारिश होती है, और फिर बढ़ते-बढ़ते न केवल धारसार हो जाती है, बल्कि कई-कई दिन चलती है। हां, अब एक नया शीर्षक अवश्य मिल गया इसके लिए, ‘बादल का फट जाना’। इस शीर्षक से स्थिति अधिक रोमांचकारी हो गई लगती है।
जीवन में रोमांस का अनुभव होना तो बहुत दिन पहले ही समाप्त हो गया था। अब रोमांच को महसूस करने को भी नये सिरे से पारिभाषित करना होगा। अगर आपकी चलती-फिरती अच्छी भली सड़कें रूप बदल कर गहरे नदी नालों में तब्दील हो जाएं, तो यह रोमांच है। अगर कठिनाई से बनाये आपके घरों में घुटने-घुटने तक पानी प्रवेश कर जाए, और नए-नए सिर उठाते घरों को बरसात सीलन और दरारें दे जाए तो यह रोमांच है। अगर बाहर हरहराते पानी की वजह से आप अपने घरों में ही हिरासत में कैद कर दिया महसूस करें तो यह रोमांच है, क्योंकि आजकल अपनी भाग्यहीनता पर बेबसी महसूस करने की इतनी आदत हो गई है, कि इसे अपने मुंह का ज़ायका बदलने के लिए रोमांच कहा जा सकता है।
हां, कुछ चीज़ें अभी भी बदलती नज़र नहीं आ रहीं। नेताओं का हवाई उड़ान के साथ अपने ही शहर की दुर्दशा का अंदाज़ा लगाना, उसका चित्र खींच कर पहले स्थानीय अखबारों में डाल देते थे, अब सोशल मीडिया का प्रचलन हो गया, इसलिए इसे फेसबुक, इंस्टाग्राम पर डाल कर यहां भी लाइक्स गिन कर अपने प्रभावशाली होने की उम्मीद रखना और सड़कों के अन्धकूप बन जाने पर उसमें गिरते पड़ते और हड्डियां तक तुड़वा बैठते लोगों के दृश्य सजाना और अपने आपको ज़िम्मेदार नागरिक मान लेना।
हां, कुछ परिवर्तन और भी हुए हैं, जो इस जल-प्रलय में लापता हो गये। उनका अखबार में आंकड़ा पढ़ लेना, और सजी-धजी औरतों का नेताओं के गले लग कर सुबकना, कि ‘देखो, कैसा अघटनीय घट गया।’ अब न तम्बोला हो पा रहा है, और न किटी पार्टी। बस परेशानी ही परेशानी है, कि यह कैसा समाजवाद आ गया, कि आलीशान बनी कोठियों में भी गंदला पानी उसी बेमुरव्वती के साथ घुस रहा है, जितना टूटी-फूटी कचरा होती झोंपड़ियों में। हमने तो आवाज़ उठाई थी कि संविधान में से समाजवाद के शब्द को हटा दिया जाए, क्योंकि यह बड़ी अट्टालिकाओं के मिज़ाज के अनुरूप नहीं। आपने शब्द नहीं हटाया और देख लो, आपकी भव्य अट्टालिकाओं में भी पानी घुस गया।
परन्तु इस बीच देश के मिज़ाज में कितना अन्तर आ गया है। हर समस्या का समाधान अनुकम्पा संस्कृति में ढूंढा जा रहा है। अब भी इस जल-प्रलय की बदहाली का हल अनुदानों की घोषणाओं में देरी हो जाने से तलाश किया जा रहा है। लगता है, इन घोषणाओं का इंतज़ार उस दलाल संस्कृति को अधिक है जिन्हें सरकारी खज़ानों का मुंह खुलने के बाद इसे बांटने की ज़िम्मेदारी लेनी है। एक अजब बात भी देखने में आ रही है। गरीबों में बांटने के लिए राहत सामग्री को बांटने में उनकी इतनी दिलचस्पी नहीं जितनी इस बदहाली से आतंकित होकर मिली धन-राशि का अनुदान बांटने की घोषणा में है। जितना इस घोषणा में विलम्ब होता जा रहा है, उतना ही उस पर राजनीति के नुकीले दांत तेज़ हो रहे हैं। लगता है, मध्यजनों के द्वारा एक फर्जीवाड़े की तैयारी भी हो जाएगी, ताकि बाद में यह रहस्योदघाटन किया जा सके कि अधिकारी लोगों के स्थान पर इतना धन अनाधिकारी लोगों में बंट गया। ऐसा हर बार होता है। इस बार भी अगर हो गया तो किसी को एक पुरानी कहानी को दुबारा पढ़ने का एहसास भी नहीं होगा।
हां, वोटों की कचहरी में यह अघटनीय भी खड़ा कर दिया जाएगा। जो विपक्ष में हैं और कुर्सी की तलाश कर रहे हैं, उन्होंने तो दोषारोपण का एक कोलाहल पैदा कर दिया कि कुर्सी पर बैठे लोगों ने समय पर मुरम्मत न करवा कर यह दुर्भाग्य पैदा किया है, और कुर्सीधीशों ने कहा प्रकृति के कोप पर किसी का बस नहीं है। हमने तो बहुत से प्रार्थना-पत्र दिये थे, लेकिन नियति के सामने बेबस हो गये। और जो वास्तव में बेबस हो गये, लाचार हो गये, उनकी न किसी ने सुनी और न ही तलाश की। बस, नक्कारखाने का एक नया माहौल पैदा हो गया है, एक भाषण प्रतियोगिता जैसा माहौल कि जिसमें ज़ख्मों पर मरहम रखने की बात हो रही है, लेकिन असल ज़ख्म कहां हैं, यह तो किसी ने देखा ही नहीं। मरहम लगाने के लिए खजाने का द्वार खुलने की अवश्य प्रतीक्षा हो रही है।
मंचों से ‘खुल जा सिम-सिम’ की आवाज़ बार-बार होती है, और अंधेरे में डूबती हुई कराह गुम हो जाती है। हर बार ऐसा ही होता है, हर बार यह कराह गुम हो जाती है, और इसकी जगह एक जयघोष ले लेता है, कि देखो, कितना बड़ा दुर्भाग्य था, किन्तु नेता जी ने कितनी समझदारी, कितने धैर्य से इसका मुकाबिला किया। दुर्भाग्य तो एक दिन गुज़र ही जाएगा। आओ, इसका मुकाबिला करने का विजयोत्सव मनाने की तैयारी फिर से कर लें।