एक मुट्ठी आसमान
ढलते सूरज की तरह हम ढलते जा रहे हैं
पतवारहीन नौका पाकर मंजिल ढूंढ रहे हैं
जीवन के शेष लम्हों के स्वागत के लिए हम
सतत इंतजार की तलाश में भटक रहे हैं
जीवन के अंतिम क्षणों के लिए संभाले लम्हे
रोज़ाना पिघलते ही जा रहे हैं बर्फ की तरह
एक छोटे से पौधे की तरह कभी बढ़े थे हम
अब बुढ़ापे की ओर अग्रसर आगे बढ़कर
मौत के आगोश में जाने को हैं हम तैयार
जीने की चाहत है हमारी और लम्हों की
पर सांसों की डोर टूटती ही जा रही है
क्या यही है ज़िंदगी?
ज़िंदगी के बिखरे लम्हें मेघों की तरह
बिन बरसे कहीं दूर जा रहे हैं खाली
जो भी राह में अपरिचित मिला कभी
बिन पूछे उसे अपना बना रहे हैं हम
विजय-पराजय के रथ पर हो सवार
हम अपने ही अपने से अलग हो रहे हैं
खाली हाथ आकर इस दुनिया में हम
एक मुट्ठी आसमान की चाहत रखते हैं ।
-वीरेन्द्र शर्मा वात्स्यायन
-मो. 9417280333

