बस से बाहर

बातें बस से बाहर हो गई हैं। तब भी जब उन्हें एक दो दिन के शोर-शराबे के बाद उन्हें मन्द पड़ते देख लेते हैं। यहां हर दम यह लगता है, अरे यहां तो यह भी सहा जा सकता है। फिर असहनीय शब्द का इस्तेमाल क्यों करते हैं?
जी हां, आज देश में सब कुछ सहने योग्य हो गया है। कभी जिन बातों को समाज सुधार की महा क्रांति कह दिया जाता था, आज लगता है कि उनके बारे में इतने बरस तक भला हाय तौबा क्यों होती रही।
कल तक जिन्हें पतित, दलित कह कर वंचित वर्ग के प्रति अश्रुधारा टकपायी जाती थी, आज उनको ही प्रश्रय पाने वाली श्रेणी बनते देख कर अपने खौलते हुए तूफान के अन्तस तक घुस आता हो जाने पर शर्म आने लगती है। देख लो, इन वर्गों में घुस सकने की स्पर्धा पर तो देश के एक प्रदेश की मार-काट ही थमने पर नहीं आती। और आप कहते हो कभी इस वर्ग में गिना जाना दुर्भाग्य, उपेक्षणीय और हीन भावना का सृजक माना जाता था।
आज तो समय की बिसात यूं उलट गई है कि दस की जगह अब पन्द्रह बरस बाद जनगणना करने बैठे तो सबसे प्रमुख सवाल यह था कि भाई ज़रा पता तो करो कि इन वर्गों में घुसने का सौभाग्य और किसे प्राप्त हो सकता है। सदियों से शोषित रहे हैं इनके बाप दादा, अब इनका प्रतिकार तो होना चाहिए। न केवल प्रतिकार हो बल्कि होता रहे बल्कि होता  ही रहे अर्थात एक बार सिर पर आरक्षण की जो छतरी आई उसे कभी भी नहीं हटने देना है। चाहे इस पर न्यायालय के मुखिया जाते-जाते कह भी जाएं, कि जिन्हें अब छतरी की ज़रूरत नहीं, उनके सिर से छतरी हटा कर दूसरे ज़रूरतमंद लोगों को इसकी छाया दे दें।
लेकिन जिसके हाथ एक बार छतरी आई, वह भला उसे अपने हाथ से जाने देता है। भई यह छतरी का सिद्धांत भी खूब है। कोई हाथ आई छतरी गंवाना नहीं चाहता, और दूसरे को अपने घेरे में प्रवेश करने देना नहीं चाहता। धुआंधार बहस करो, क्रीमी लेयर के खत्म होने पर, परन्तु जो दस्तरखान एक बार सज गया, उसे उखड़ने नहीं देंगे चाहे सैद्धांतिक रूप से उसे उखाड़ देने की कितनी ही बातें कर लो। लेकिन आजकल सजे सजाये दस्तरखान कौन छोड़ना चाहता है। लाख समाज परिवर्तन और राष्ट्र-निर्माण के नाम देश के बदन से कैंसर की तरह इन आदमखोर बस्तियों को बढ़ते जाने की बात कर लो। हम स्वयं शिकार हो गये, देश का परिचय बन गई इन कुरीतियों को स्वीकार कर लिया। कितने दिन पहले कहा था, कि इस देश में दहेज के लेन-देन को जाति बाहर कर देंगे। दहेज देने वाला अपराधी और लेने वाला भी, लेकिन यह बात तो किताबी हो गई। अब तो लेन-देन को स्नेह उपहार मान कर उससे समाज में अपना रुतबा माना जाता है। शादी का धंधा तो बाकायदा परिष्कृत हो गया। लोग सिर्फ दहेज ही नहीं, शादी ब्याह का उत्सव भी निर्दिष्ट स्थान पर राजसी शादी करके मनाते हैं। दहेज रूपी उपहारों के साथ अपनी प्रतिष्ठा का बाज़ार सजाते हैं। पहले लाखों रुपये में शादियां हो जाती थीं, और अब लाख दो लाख की बात करना अपमानजनक हो गया। करोड़ दो करोड़ की बात करें, और निर्दिष्ट स्थान पर पाणिग्रहण उत्सव कुछ ऐसा मनाओ, कि गिनीज़ बुक में नाम दर्ज हो जाये। तामझाम बड़ा करोगे तो समाज में और भी आसानी हो जाएगी। उल्टे-सीधे काम करवाने के लिए बालाई आमदन के रेट स्वत: तर्क संगत हो जाएंगे। आखिर जो करोड़ों की शादी कर सकता है, वह अपने जूते पर उसकी उगाही की पालिश भी उतनी ही अधिक लगाएगा। सुना नहीं है क्या? जितना बड़ा जूता होता है, उतनी ही पालिश भी अधिक लगती है। हां, इस पालिश का लगना एक अनिवार्य सत्य है, जैसा कि तुम्हारे यह भ्रष्टाचार को हम शून्य स्तर पर भी सहन नहीं करने का कथन। हां-हां शून्य स्तर तक। कोई पकड़ा जाएगा, तो स्तरों का पैमाना बदल जाएगा। यहां तो सच्चाई यह है कि यहां हर भ्रष्टाचारी पर एफ.आई.आर. दर्ज हो जाना पूर्वाग्रह की राजनीति है। भ्रष्टाचारी का ज़मानत पर रिहा होना, एक उपलब्धि है। जैसे इस देश में आरोपित अपराधी नहीं होता, इसी तरह किसी भ्रष्ट का ज़मानत पर रिहा हो जाना, आपकी घरेलू या मिनी क्रांति को नया तेवर दे जाता है। अब फिर बदलाव का मौसम आ गया, और आप सावन रूप में बादलों की आमद के अलर्ट की एक पूर्व चेतावनी दे रहे हैं। अब गद्दियों से विस्थापित लोग कैसे अपनी ज़मानती क्रांति की नई बागडोर सम्भालें।
बाहर बादल है फटता हुआ। अन्दर सूखा है। शिक्षा से जागरण प्राप्त करने की तो हमने कभी चेष्टा ही नहीं की। विश्वविद्यालयों की कतार लगा दी, लेकिन छात्र परीक्षा की तैयारी की बजाय धरने पर बैठे हैं। विश्वविद्यालयों के मुख्य द्वारा राजनीति के अखाड़े बन गये और परीक्षाओं का स्थगित हो जाना छात्रों की जीत बन गया।
पुस्तक संस्कृति क्या करे? युवा पीढ़ी का अध्यवसाय और शोध इच्छा तो कर गई। वह तो उसी निन्यानवे के फेर में पड़े हैं। पुस्तक संस्कृति के जनाज़े में भी कोई शामिल होने नहीं आया। उन्हें तो वीज़ा दिलवाने वाले जादूगरों को साधना है, जो खुल जा सिम-सिम की तरह डॉलरों के खजाने तेरे लिए खुल जाएं। इस भगौड़ी सोच ने देश पंगु कर दिया। पूरा देश सस्ते राशन और खातों में फ्री पैसा आने के इंतज़ार में खड़ा है, और जंगल-जंगल डंकी बन कर  विदेश पहुंचे हथकड़ियों, बेड़ियों में वापिस लौटाये जा रहे हैं। क्या आपको नहीं लगता कि अब बस बहुत हो गया। शेख चिल्लियों को भीख को अपना विकास कहते हुए इसी देश में देखा जा सकता है।

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