आतंक व नक्सलवाद से भी ज्यादा डरावने हैं दुर्घटनाओं के आंकड़े
देश में आतंक और नक्सल से जुड़ी वारदातों का तो हम यथोचित संज्ञान लेते हैं और हमारी सरकारें भी इनकी रोकथाम के प्रति अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित करती रहती हैं परन्तु हमारे देश में हर दिन होने वाली दुर्घटनाएं आतंक और नक्सल घटनाओं से कहीं ज्यादा हर वर्ष करीब दो लाख लोगों को बेमौत मारती हैं। दुर्घटनाओं का यह भीषण रूप देखकर लगता है, विज्ञान सचमुच वरदान नहीं बल्कि अभिशाप है। विगत में लोगों का जीवन भले इतना आसान और सुविधाजनक नहीं था, पर लोग केवल बीमार होकर मरते थे, दुर्घटनाओं में बेमौत नहीं मरा करते थे। आज परिवहन के चारों माध्यमों यानी सड़क, रेल, जलमार्ग और हवाई सभी दुर्घटनाओं के कारण हैं, जिनमें किसी में दुर्घटना का औसत कम है, किसी में ज्यादा। देश में प्राकृतिक आपदा यानी बाढ़, भू-स्खलन, वज्रपात, चक्रवात, तूफान और भूकम्प से लोग शिकार होते तो हैं, पर गैर प्राकृतिक यानी मानव जनित आपदा से देश में 98 प्रतिशत असमय मौतें हुआ करती हैं। आकड़ों के अनुसार देश में हर साल 1.80 लाख लोग सड़क दुर्घटना के शिकार हो रहे हैं। रेल दुर्घटनाओं में यह आंकड़ा करीब 25 हज़ार वार्षिक है, जिसमें अधिकतर दुर्घटनाएं रेल लाइन पार करने की वजह से होती हैं। चिंताजनक तथ्य यह है कि वर्ष 2000 में सड़क दुर्घटनाओं का आंकड़ा जहां 8 व्यक्ति प्रति लाख था, वह साल 2022 में 12 प्रति लाख हो गया है यानी पचास प्रतिशत की वृद्धि।
प्राकृतिक आपदा जिस पर आमतौर पर हमारी सरकार या सिस्टम का ज्यादा वश नहीं होता, उनके आंकड़े में गिरावट आ रही है। कुल असमय मौतों में इनका योगदान सिर्फ दो प्रतिशत रह गया है, जबकि गैर प्राकृतिक आपदा यानी मानवजनित आपदा का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है। इस आंकड़े में अकेले सड़क दुर्घटना की हिस्सेदारी 50 प्रतिशत से ज्यादा है। दुर्घटनाओं के अन्य कारकों में पानी में डूबने का आकड़ा 9.4 प्रतिशत, आगजनी से 6.2 प्रतिशत, खाई में गिरने से 4.9 प्रतिशत और करंट लगने से 3 प्रतिशत लोग असमय मौत का शिकार होते हैं। स्थिति कुल मिलाकर बेहद चिंताजनक है।
भारत में दुर्घटनाओं को लेकर कई नैरेटिव परोसे जाते हैं। सबसे पहले तो यह कहा जाता है की ट्रैफिक नियमों का पालन नहीं होता, इसे और कठोर बनाया जाना चाहिए। कभी यह कहा जाता है ट्रैफिक चालान की संख्या और जुर्माने की राशि बढ़ा देनी चाहिए। कभी शराब पीकर गाड़ी चलाने पर रोक की बात की जाती है। भारत में दुर्घटनाओं का सबसे बड़ा कारण है स्पीड और मोटर चालक की लापरवाही तथा सड़कों की बदहाल व्यवस्था। विदेशों में जहां 200 किलोमीटर की रफ़्तार से गाड़ियां चलती हैं, वे वहां उन सड़क ट्रैकों पर चलती हैं, जहां किसी दुर्घटना की दूर-दूर तक भी संभावना नहीं होती। जहां मोटर वाहन की पूरी संरचना भी उसी स्पीड के अनुकूल निर्मित होती हैं। भारत में 60-100 किलोमीटर की स्पीड पर जो दुर्घटनाएं होती हैं, वह इसलिए होती हैं कि पूरी सड़क ट्रैफिक और मोटर वाहन की संरचना उसके अनुकूल नहीं होती। भारत जैसी इस संरचना पर पश्चिमी देशों में गाड़ियों की रफ़्तार केवल 5-10 किलोमीटर प्रति घंटे की रखी जाती है। विदेशों में सड़क चौराहे पर पैदल यात्री पहले पार करते हैं और मोटर चालक उनके जाने का इंतज़ार करते हैं, जबकि भारत में स्थिति बिल्कुल उलट है। भारत में सड़क पर कोई वाहन अपनी स्पीड 40 किलोमीटर से कम रखना ही नहीं चाहता जबकि विदेश में मोटर वाहनों को कई जगह पर सिर्फ 5 किलोमीटर की स्पीड पर भी चलने की बाध्यता होती है।
इसी तरह भारत में ट्रैफिक पुलिस मौजूदा सड़क व्यवस्था का सबसे दुखद पहलू है जिसे सड़क पर ट्रैफिक व्यवस्था संचालित करने के काम में रुचि कम और मोटर चालकों के चालान काटने या उनसे पैसे ऐंठने में ज्यादा होती है। हमारे देश में सड़क पर कई बार लॉगजाम इसलिए लग जाता है; क्योंकि ट्रैफिक पुलिस या तो बगल में आराम फरमा रही होती है या पैसे बनाने के लिए किसी ट्रक या टेम्पो को रोककर कागज और नियम के नाम पर तंग कर रही होती है। जिस देश की समूची सड़क ट्रैफिक व्यवस्था में इतनी लापरवाही हो, ट्रैफिक पुलिस इतनी अकर्मण्य और भ्रष्ट हो, ट्रैफिक नियमो और कानून इतने लचर और अधूरे हो तो इतने बड़े पैमाने पर दुर्घटनाएं स्वाभाविक रूप से अंजाम लेंगी। दुर्घटना की सबसे वजह असावधानी तो है ही जल्दबाजी भी है। आज ऑनलाइन आर्डर से सामान मंगाने बेचने का व्यवसाय इतना विस्तृत और कंपनियों के लिए इतना प्रतियोगी होता जा रहा की रिटेल कंपनियां अपने राइडर से पांच से दस मिनट में सामान डिलीवर करवाती हैं। इस वजह से दुर्घटना की ना जाने कितनी वारदात होती रहती हैं।
हमारे देश में घोर असंवेदनशीलता और तत्परता के अभाव रहा है जो पुलिस गाड़ियों के चालान और धर-पकड़ में जितनी फुर्ती दिखाती है, उतनी तत्परता सड़क दुर्घटना में घायल व्यक्ति को उठाकर उसे अस्पताल पहुंचाने में नहीं दिखाती है। ऐसे कितने मामले देखे गए जब घायल ने त्वरित उपचार के अभाव में दम तोड़ दिया। हमारा समाज भी इस मामले में बेहद गैर जवाबदेह दिखता है। ऐसी किसी वारदात के वक्त लोग पीड़ित को उठाने की बजाय मोबाइल से उसकी सेल्फी बनाना ज्यादा उचित समझते हैं।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर



