क्या प्रियंका गांधी समानांतर नेतृत्व स्थापित कर रही हैं ?
मेरा आज का सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी के नेतृत्व को कांग्रेस के भीतर से कोई चुनौती दे रहा है? अगर इसका जवाब हां में है, तो मैं यह जानना समझना चाहता हूं कि राहुल को यह भीतरी चुनौती देने वाला शख्स कौन है? ज़ाहिर है कि राहुल के पांव कांग्रेस के भीतर इतने जम चुके हैं कि उन्हें आकस्मिक किसी विस्फोट की तरह कोई चुनौती नहीं मिल सकती। इसलिए अगर कोई चुनौती है भी तो वह धीरे-धीरे पार्टी के भीतर राहुल के समानांतर अपनी शख्सियत खड़ा करने में लगी हुई है। अगर यह शख्सियत ऐसा कर रही है तो वे कौन सी ताकतें हैं तो उसे ऐसे करने के लिए ज़मीन मुहैया करा रही हैं? राहुल की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ और बिहार की ‘वोटर अधिकार यात्रा’ के दौरान मैंने स्पष्ट रूप से कहा-लिखा था कि अब राहुल के लिए पार्टी के भीतर किसी किस्म की चुनौती नहीं रह गई है लेकिन हाल की कुछ घटनाओं के कारण मैं अपनी इस राय पर पुनर्विचार करने के लिए बाध्य हुआ हूं।
कांग्रेस के आलाकमान में कुल जमा चार लोग शामिल हैं। राहुल गांधी, उनकी मां सोनिया गांधी, उनकी बहिन प्रियंका गांधी और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे। इन चार के वर्चस्व के तले ही कांग्रेस चल रही है। इनमें तीन एक ही परिवार के हैं, और समझा जाता है कि तीनों में गहरी आपसी समझदारी है, खड़गे जी की बुजुर्गियत और तजरुबे को अपने साथ जोड़ते हुए ये तीनों सौ लोकसभा सांसदों वाली सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी का संचालन कर रहे हैं। पहली नज़र में यह व्यवस्था बहुत आरामदायक लगती है, लेकिन मेरा मानना है कि ऐसा समझना एक भूल हो सकती है। राजनीतिक परिवारों में आपसी प्रतिद्वंद्विता खूब होती है। लालू यादव परिवार के बीच बिहार का चुनाव हारने के बाद जो आपसी लतियाव हुआ, उसने हमारे सामने एक बदसूरत नज़ारा पेश किया। मुलायम परिवार ने भी 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले इसी तरह का नाखुशगवार दृश्य पेश किया था। हम लोग देख चुके हैं कि तमिलनाडु में करुणानिधि के बेटों के बीच उत्तराधिकार की जंग कैसे लड़ी गई थी। अंत में उसमें एम.के. स्टालिन जीते लेकिन उनकी अंतिम जीत से पहले भाइयों के बीच बड़े दांव-घात खेले गए। मुझे इस बात पर पूरा यकीन है कि ऐसा कोई भद्दा नज़ारा कांग्रेस के भीतर नहीं दिखने वाला है लेकिन जब राजनीतिक प्रतियोगिता साफ तौर पर न दिख रही हो, तो ज़रूरत इस बात की होती है कि उसे और ध्यान और बारीकी से देखा जाए। यह बेआवाज़ प्रतियोगिता बड़ी घातक होती है।
कई राजनीतिक प्रेक्षकों ने नोटिस किया है कि इस समय राहुल की बहन प्रियंका गांधी काफी सक्रिय हैं। सक्रिय होना अच्छी बात है लेकिन प्रियंका उन मुकामों पर सक्रिय हैं जहां उन्हें देख कर सवाल उठने लगे हैं। कम से कम दो घटनाएं इसकी ओर इशारा करती हैं। पहली, प्रियंका गांधी की प्रशांत किशोर से मुलाकात। कौन नहीं जानता कि प्रशांत किशोर ने बिहार चुनाव के दौरान राहुल गांधी की आलोचना के लिए काफी कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया था। इस मामले में वह भाजपावालों से पीछे नहीं रहे। दूसरी, लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला की चाय पार्टी में उनकी मौजूदगी और भाजपा के मोदी समेत शीर्ष नेतृत्व के साथ उनकी सोहबत। यह पूछना ज़रूरी है कि क्या प्रियंका और प्रशांत किशोर के बीच मुलाकात कांग्रेस आलाकमान की किसी सुचिंतित योजना के मुताबिक हुई थी और क्या ओम बिड़ला की चाय-पार्टी में प्रियंका की मौजूदगी को आलाकमान के बाकी तीन सदस्यों की सहमति प्राप्त थी?
प्रियंका गांधी के राजनीतिक जीवन का जायज़ा ले लेना ज़रूरी है। मैं उनके कुल राजनीतिक जीवन को तीन हिस्सों में बांट कर देखता हूं। पहला हिस्सा वह है जब वह अमेठी और रायबरेली निर्वाचन-क्षेत्रों में अपनी मां और भाई के चुनाव प्रबंधक की भूमिका निभाती थीं। इसमें कोई शक नहीं कि प्रियंका ने यह काम बहुत अच्छे तरीके से किया। कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ताओं और कांग्रेस व गांधी परिवार के प्रशंसकों को उनसे कई उम्मीदें थीं। कोई उनमें इंदिरा गांधी की छवि देखता, कोई कहता कि जिस दिन प्रियंका राजनीति में लांच की जाएंगी, वह दिन कांग्रेस के लिए बड़ा चमकदार दिन होगा।
वह मुट्ठी खुली और लोगों ने देखा कि उस मुट्ठी में से क्या निकला। प्रियंका गांधी को उत्तर प्रदेश की राजनीति में लांच किया गया। पूरे दिन टीवी पर लोगों ने वह नज़ारा देखा। कार्यक्रम सफल रहा। खूब चर्चे हुए। यहां से प्रियंका के राजनीतिक जीवन का दूसरा हिस्सा शुरू होता है। एक पार्टी रणनीतिकार और नियोजक के तौर पर प्रियंका ने पंजाब में कांग्रेस के संकट को किस प्रकार निबटाया, यह इतिहास सभी को पता है। मुख्यमंत्री अमरेन्द्र सिंह को वह नापसंद करती थीं। उनकी जगह उन्होंने नवजोत सिंह सिद्धू को बैठाया। प्रियंका की इस पसंद ने पूरी पार्टी का भट्ठा बैठा दिया। अमरेन्द्र सिंह अपनी पत्नी के साथ भाजपा में चले गए। सिद्धू को जनता ने खारिज कर दिया। बेअदबी वाले मामले में अकाली दल की साख गिरने और कांग्रेस द्वारा स्वयं की गई इस दुर्गति से जो अंतराल पैदा हुआ, उसे आम आदमी पार्टी ने भरा। आप पार्टी ने अपनी जीत के लिए कहीं न कहीं प्रियंका गांधी का शुक्रिया भी अदा किया होगा। उत्तर प्रदेश में प्रियंका ने स्वयं नेतृत्व दिया और लड़की हूँ लड़ सकती हूँ का आकर्षक नारा दिया। लगा कि वह कुछ कर दिखाएंगी। लेकिन कांग्रेस की अभूतपूर्व हार हुई।
अब मैं फिर अपने उसी सवाल पर लौटता हूँ कि क्या प्रशांत किशोर से प्रियंका की मुलाकात कांग्रेस आलाकमान द्वारा निर्णीत रणनीति का हिस्सा थी और क्या ओम बिड़ला के यहां चाय-पार्टी में उनके जाने के पीछे पार्टी आलाकमान की सहमति थी? दरअसल इस गतिविधि पर आपत्ति का बड़ा कारण यह है कि भाजपा अपने खिलाफ खड़े राजनीतिक परिवारों पर घात लगाए बैठे रहती है। वह परिवार के किसी महत्त्वाकांक्षी सदस्य पर खामोशी से अपना हाथ रख देती है। मुलायम परिवार में उसने शिवपाल पर हाथ रखा था। लालू परिवार में उसने तेजप्रताप पर अपना हाथ रखा। पवार परिवार में उसने अजित पवार पर अपना हाथ रखा हुआ है। सवाल यह है कि क्या वह गांधी परिवार में प्रियंका गांधी पर अपना हाथ रखने की जुगाड़ में है, और प्रियंका की असावधानियां उसे यह मौका दे रही हैं? मेरा मानना है कि प्रियंका की ये दोनों पेशबंदियां किसी न किसी रूप में पार्टी के भीतर राहुल गांधी के नेतृत्व को कमज़ोर कर सकती हैं। अगर पार्टी के भीतर प्रियंका स्वतंत्र रूप से ऐसे निर्णय ले सकती हैं तो सवाल पैदा होगा ही कि राहुल के नेतृत्व के समानतर क्या उनकी बहन की शख्सियत तो नहीं उभर रही है, या उभारी जा रही है? अगर ऐसा हुआ तो यह कांग्रेस के भविष्य पर खतरे का साया है। भाजपा देश में एक ही नेता से घबराने लगी है और वह है राहुल गांधी। ऐसे में जो भी हो, स्थिति अभी बिगड़ी नहीं है। इससे पहले कि हालात काबू से बाहर हो जाएं, सोनियाजी और खड़गे जी को परिस्थिति संभालनी होगी।
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।



