सार्थक नहीं होंगे संविधान की मूल भावना में बदलाव के परिणाम 

13जनवरी, 2018 को सर्वोच्च न्यायालय के चार न्यायाधीशों (जिनकी वरिष्ठता मुख्य न्यायाधीश से तुरंत बाद की थी) ने एक प्रैस कांफ्रैंस करके सर्वोच्च न्यायालय की भीतरी समस्याओं का ज़िक्र किया था। अन्य बातों के साथ-साथ उन्होंने यह भी कहा कि लोकतंत्र खतरे में है। स्वाभाविक था कि इससे लोगों में बड़ी चर्चा छिड़ी थी। न्यायाधीशों की बातों के हक और विरोध में बहुत से लेख आदि भी प्रकाशित हुए और इस बात की चर्चा भी छिड़ी कि न्यायाधीशों द्वारा सर्वोच्च न्याय पालिका की आंतरिक बातों को इस तरह उठाना सही है या नहीं।चार न्यायाधीशों के बयानों से आरोप सबसे उभरते रूप में ज़ाहिर हुए थे। यह आरोप थे- न्याय पालिका के काम में विधान पालिका द्वारा हस्तक्षेप करना, इस तरह न्याय पालिका की स्वतंत्रता छीनना और न्याय पालिका के कुछ सदस्यों में भ्रष्टाचार होना। यह हमारी न्यायपालिका की विश्वसनीयता के लिए स्पष्ट रूप में एक बड़ा झटका था, जो लगा भी इसके उच्च स्तर द्वारा था।संवैधानिक कार्य पालिका के सभी स्तरों की विश्वसनीयता और इनमें लोगों का विश्वास गत कई वर्षों से निचले स्तर पर पहुंच चुका है परन्तु न्याय पालिका के विशेष स्तरों में लोगों का विश्वास चट्टान की तरह था, हालांकि न्याय पालिका के निचले स्तरों में अनियमिता या भ्रष्टाचार के कुछ-कुछ मामले ज़रूर सामने आते रहते थे। न्याय पालिका के विशेष स्तरों में भ्रष्टाचार संबंधी न्यायिक भाईचारे के सदस्यों द्वारा और जस्टिम सी.एस. कर्नन द्वारा भी, कुछ आरोप पहले भी लगे थे। परन्तु ‘बैंच फिकसिंग’ आदि के आरोप, वह भी स्वयं उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों द्वारा, कहां अधिक गम्भीर मामला है।  मीडिया में आई रिपोर्ट के अनुसार न्यायाधीश लोया मौत मामले का तबादला सर्वोच्च न्यायालय को किए जाने संबंधी बात करते हुए मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि बैंच निष्पक्ष दृष्टिकोण अपनाएगा और मीडिया को दबाया नहीं जाएगा। यदि मुख्य न्यायाधीश को निष्पक्षता का ज़िक्र करना पड़ा तो यह तथ्य स्वयं में ही इस बात का सूचक है कि न्यायपालिका की विश्वसनीयता में कमी आई। जहां तक मीडिया को दबाने का संबंध है तो हमें याद आता है कि जस्टिम कर्नन के मामले के समय बैंच ने मीडिया को निर्देश दिए थे कि जस्टिस कर्नन के बयान प्रकाशित न किए जाएं। जस्टिम कर्नन ने उच्च न्याय पालिका के सदस्यों में भ्रष्टाचार होने के आरोप लगाए थे। उनके खिलाफ 7 न्यायाधीशों की संवैधानिक बैंच द्वारा अदालती मानहानि के आरोप में सुनवाई की गई थी और उनको 6 माह की कैद की सज़ा सुनाई गई थी।
हमारा मीडिया इन दिनों ‘फेक न्यूज़’ और ‘पेड न्यूज़’ आदि से जुड़े सरोकारों के बोझ के नीचे विचर रहा है। वैसे भी मुख्यधारा प्रिंट और इलैक्ट्रानिक मीडिया से संबंधित अधिकतर घराने कार्पोरेट के कंट्रोल और मालकी के अन्तर्गत हैं। हमारे पास खबरों और टिप्पणियों के रूप में जो कुछ पहुंचता है, उसमें निष्पक्षता वाली बात कम ही होती है। इस तरह ज़ाहिर है कि हमारे संविधान के स्तम्भ हमारे संविधान निर्माताओं द्वारा क्यासे गये इन रूपों से कहीं निरर्थक और कमज़ोर पड़ चुके हैं।लोकतंत्र, जिसको चार न्यायाधीशों ने खतरे के अन्तर्गत माना है, हमारे गणराज्य को परिभाषित करने वाले चार लक्षणों में एक है। शेष तीन हैं- प्रभुसत्ता, धर्म-निरपेक्षता और समाजवाद। समूचे रूप में बात की जाए तो यह कहना भी गलत नहीं होगा कि स्वयं संविधान भी खतरे में है, क्योंकि धर्म-निरपेक्षता और समाजवाद जैसे इसके लक्षण भी खतरे में से गुज़र रहे हैं।
चाहे ‘धर्म निरपेक्षता’ और ‘समाजवाद’ के शब्दों को संविधान की प्रस्तावना में 1976 में शामिल किया गया था परन्तु संविधान की प्रकृति शुरू से ही धर्म-निरपेक्षता और समाजवाद वाली रही है, क्योंकि इसकी प्रस्तावना में सोचने, मानने, विचार व्यक्त करने और पूजा-पाठ की स्वतंत्रता ‘धर्म-निरपेक्षता’ की पुष्टि करती थी और ‘समाजवाद’ की पुष्टि राज्य के निर्देशक सिद्धांतों की धारा 38 पुष्टि करती है, जिसके अनुसार ‘राज्य का दायित्व है कि वह ऐसी सामाजिक व्यवस्था, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय हो, को सुनिश्चित बना कर और सुरक्षित रख कर लोगों की भलाई के लिए प्रयासरत रहेगा।’ भाजपा के नेतृत्व वाला सत्ताधारी राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन पहले ही ‘धर्म-निरपेक्षता’ और ‘समाजवाद’ को संवैधानिक विशेषताएं मानने के पक्ष में नहीं है (चाहे कि यह स्पष्ट रूप में ऐसा नहीं कहता)। भाजपा के कई पदाधिकारी अपने सार्वजनिक बयानों में कई बार यह बात कह भी चुके हैं कि उनकी पार्टी भारत को हिन्दू राष्ट्र में बदलने के लिए संविधान में परिवर्तन करेगी। जहां तक प्रभुसत्ता का संबंध है, तो इसका आंतरिक तात्पर्य एक व्यक्ति के निजी अहम और उसकी स्वायतता से है। यह निजी प्रभुसत्ता विस्तार हासिल करके पूरी आबादी तक पहुंचती है और इससे क्षेत्रीय प्रभुसत्ता जुड़ कर राष्ट्र की प्रभुसत्ता बनती है, जिसका कि हमारे संविधान की प्रस्तावना में वर्णन है।
भारत का गणराज्य से तात्पर्य है भारतीय राष्ट्र जो कि इसके लोगों, इसके राजनीतिक-क्षेत्रीय विस्तार और इसके संविधान का कुल जोड़ है। यह सवाल कि ‘किस किस्म का गणराज्य?’ के उत्तर में हम हमारे संविधान की प्रस्तावना में ‘प्रभुसत्ता-सम्पन्न’, ‘धर्म-निरपेक्ष’, ‘समाजवादी’ और ‘लोकतांत्रिक’ जैसी विशेषताओं की तरफ संकेत कर सकते हैं। ये सभी विशेषताएं इकट्ठा मिल कर हमें, लोगों को, न्याय (सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक), स्वतंत्रता (सोचने की, आस्था रखने की, विचार व्यक्त करने की) तथा समानता (वर्ग और अवसरों की) गारंटी देती हैं और इसके साथ-साथ हमारे ऊपर भी ज़िम्मेवारी डालती है कि हम निजी सम्मान और राष्ट्रीय एकजुटता के हितों के लिए भाईचारक सांझ को बढ़ाएं।
न्याय, स्वतंत्रता, समानता और भाईचारक सांझ के इन नैतिक-अवमूल्यनो को लोकतांत्रिक अमलों द्वारा ही सुनिश्चित बनाया जा सकता है। लोकतांत्रिक अमल हमारी, लोगों की, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जागरुकता पर और इन अमलों में हमारी भागीदारी पर निर्भर करते हैं। यह भागीदारी प्रतिनिधित्व (वोटिंग) और जागरुक बहस तथा टकराव रहित विचार-विमर्श द्वारा होती है। मतभेद की उपस्थिति इसका आवश्यक अंग होती है। परन्तु मतभेद को संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के दिनों से ही निरुत्साहित किया जाता रहा है और अब तो निशाना भी बनाया जाने लगा है। कांग्रेस के नेतृत्व वाला संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन और भाजपा के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन दोनों ही मतभेद के खिलाफ हैं। यह आधुनिक भारत की आर्थिकता पर आधारित राजनीति पर कार्पोरेट घरानों के प्रभाव संबंधी भी एक जैसी ही विचारधारा रखते हैं। (मंदिरा पब्लिकेशन्ज़)