ट्यूशन का मतलब स्कूलों का असफ ल होना

स्कूल, कॉलेजों के शिक्षा में पूरी तरह व्यवसायीकरण के सफ ल होने के बाद निजी ट्यूशन का क्षेत्र भी इससे अछूता नही रहा, बल्कि निजी ट्यूशन एक फ लता-फूलता कारोबार की शक्ल ले रहा है। ऐसा नहीं है कि ये क्षेत्र आजकल ही प्रभावी है, प्राचीन काल से ही इसका असर देखने को मिलता था जब घर पर रहकर ही शिक्षा दी और ग्रहण की जाती थी,परंतु वर्तमान में निजी ट्यूशन जरूरत, फैशन तो बन ही गया है बल्कि  दाखिला लिए बगैर यह क्षेत्र  शिक्षा का अनिवार्य हिस्सा बनता जा रहा है, जिससे बच पाना अब मुश्किल लगता है।
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार 7.1 करोड़ विद्यार्थी वर्तमान में ट्यूशन पढ़ रहे हैं जो कुल विद्यार्थियों की संख्या का 26 फीसदी है। ये आंकड़े हैं संख्या इससे कहीं अधिक भी हो सकती है । तो क्या ये मान लिया जाए कि स्कूल अपने पथ से भटक गए हैं या वहां जान-बूझकर पढ़ाई का स्तर कम किया जा रहा है, ताकि विद्यार्थी उन्हीं अध्यापकों के घर जाकर पढ़ सकें। क्या यह एक सोची-समझी रणनीति तो नहीं जिससे स्कूल भी चल सकें और घर बैठकर मोटी कमाई की जा सके। आजकल स्कूलों में एक नया ट्रेंड भी चल चुका है जहां बड़े-बड़े कोचिंग संस्थान बच्चों को अपनी ओर आकर्षित करने और अपना विज्ञापन देने के लिए सब स्कूलों से बच्चे इकट्ठे कर एक छत के नीचे परीक्षा करवा रहे हैं, और उन बच्चों को फ ीस में अतिरिक्त छूट देकर अपने संस्थानों में आमंत्रित कर रहे हैं। तो क्या स्कूल प्रबंधन सीधे-सीधे शब्दों में अपनी असफलता की कहानी अपने ही मुंह से बयान नहीं कर रहा।  
यह विचारणीय प्रश्न है जिसे हमारी सरकारों व सामाजिक संस्थाओं को संज्ञान में लेना चाहिए ताकि स्कूल में ही बच्चे इतने काबिल अध्यापकों से पढ़ें कि उन्हें ट्यूशन की जरूरत ही न पड़े। एक बिंदु यह भी विचारणीय है कि जब सरकारी स्कूलों में उच्च शिक्षा प्राप्त आध्यापक नियुक्त किये जाते हैं तो तब भी उन स्कूलों का परिणाम निराशाजनक क्यों आता है, तो इससे सरकार के ऐसे कार्य जिन्हें बेगार कहा जाता है जैसे मतदाता सूचियां बनाना जैसे कई कार्य जिनसे शिक्षकों का कोई लेना-देना नहीं, भी ज़िम्मेदार है। क्योंकि ऐसे कार्यों के रहते अध्यापक अपने मूल उद्देश्य से भटक जाता है । वर्तमान में सरकारी स्कूलों को सुधारने की सख्त ज़रूरत है क्योंकि इस मौजूदा दौर में सरकारी स्कूल अपना अस्तित्व खोने की कगार पर हैं । यदि सरकारी स्कूल फि र से रफ्तार पकड़ लें तो निजी स्कूल और ट्यूशन के व्यवसाय से मुक्ति कुछ हद तक मिल सकती है। सरकारी स्कूल के अध्यापकों का ट्यूशन पर पाबंदी और परिणाम की सीधे-सीधे उनकी जवाबदेही तय करनी ही होगी ताकि शिक्षा के नाम पर फ लते-फूलते इस कारोबार की रफ्तार कम हो सके और विद्यार्थी अध्ययन करें न कि मशीन बनकर रह जाएं।
इसका आश्य यही है कि शिक्षा का अधिकार तो हमें संविधान ने दिया है परंतु लालच, अनदेखी, जागरूकता की कमी और सरकारी तंत्र के ढुलमुल रवैये के चलते वास्तविक शिक्षा से हम अभी भी बहुत दूर हैं। स्कूलों के रजिस्टर भरने से क्या हासिल होगा, जब बच्चे हुनर,कौशल को ही न पहचान पाएं। ट्यूशन जाने वाले बच्चे जब स्कूलों में नहीं पढ़ पाते तो वो एक घंटे में क्या समझ पाएंगे। इसलिए  चाहे वो सरकारी हो या निजी स्कूल, प्रबंधन को ये देखना होगा कि जो बच्चे फीस देकर स्कूल आ रहे हैं या उनको सही और उचित शिक्षा मिल पा रही है, क्या उनकी समस्याओं और प्रश्नों के उचित जवाब उन्हें मिल भी पा रहे हैं । अगर नहीं तो ये शिक्षा संस्थानों की असफ लता ही है कि विद्यार्थी ट्यूशन जाने पर मजबूर हैं । इस पर संबंधित संस्थान और मंत्रालय को भी सोचने की जरूरत है।