अपनी राजनीति के लिए एमरजेंसी को इस्तेमाल कर रही है भाजपा 

जब भी 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा लगाई गई एमरजेंसी का ज़िक्र होता था, कांग्रेस रक्षात्मक मुद्रा में पहुंच जाती थी और भाजपा आक्रामक रवैया अपनाते हुए दिखने लगती थी। लेकिन, अब इस समीकरण में कुछ तबदीली आई है। कांग्रेस रक्षात्मक होने के बजाय उलट कर भाजपा पर आरोप लगाने लगी है कि उसने देश में अघोषित एमरजेंसी लगा रखी है। इस पर भाजपा का जवाब होता है कि अगर उसने एमरजेंसी लगा रखी होती तो कांग्रेस दिन-रात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस तरह से आलोचना न कर पाती। जैसा कि हर बहस के साथ होता है, कभी यह विवाद दिलचस्प होता है और कभी नीरस। लेकिन इस बार चुनावी साल के कारण जैसे ही 26 जून आया (जिस दिन एमरजेंसी लगी थी) वैसे ही यह विवाद पूरी तरह से मुखर हो कर एक बार फिर से सामने आ गया। यहां भाजपा द्वारा चलाये गए आपात्काल संबंधी विमर्श पर ध्यान देना ज़रूरी है। भाजपा का आपात्काल संबंधी पूरा विमर्श यह है कि केवल आपात्काल और उसकी ज़्यादतियों को याद किया जाना चाहिए। आपात्काल के पहले और बाद में क्या हुआ था- उसे वह याद नहीं करना चाहती। आपात्काल के पहले जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में कम से कम साल भर तक एक ऐसा संघर्ष चला था जिसके दो पहलू थे। एक सरकार विरोधी पहलू और दूसरा व्यवस्था विरोधी पहलू। भाजपा का पूर्व-संस्करण जनसंघ भी इन संघर्षों में शामिल था। लेकिन आज की भाजपा चूंकि सरकार में है, इसलिए उसे उन पहलुओं को उभारने में डर लगता है। पिछले चार साल में उसकी राजनीति रही है कि सरकार के विरोध में कही जाने वाली बातों को राष्ट्र-विरोधी करार दे कर हाशिये में डाल दिया जाए। यह राजनीति वही है जो इंदिरा गांधी की थी- वे अपनी सरकार के विरोध में खड़े तत्वों को राष्ट्रीय एकता-अखंडता का विरोधी करार दे देती थीं। नये प्रचार-साधनों और अकूत आर्थिक संसाधनों का सहारा ले कर भाजपा यह काम इंदिरा गांधी से भी अधिक प्रभावी ढंग से कर पा रही है। जहां तक जयप्रकास आंदोलन के व्यवस्था विरोधी पहलुओं का सवाल है, उन्हें तो भाजपा ही नहीं- कोई भी याद नहीं करना चाहता। इस पहलू का केंद्रीय नारा था- ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’। यह एक अनूठी कोशिश थी जिसके तहत भारतीय लोकतंत्र के प्रातिनिधिक चरित्र में प्रत्यक्ष लोकतंत्र के आयामों का समावेश करने का प्रस्ताव राष्ट्रीय मंच पर पेश किया जा रहा था। जेपी आंदोलन के ज़रिये सवाल पूछा जा रहा था कि ‘हमारा प्रतिनिधि कैसा होना चाहिए’। चूंकि यह आंदोलन विभिन्न कारणों से आगे नहीं चल पाया, इसलिए आज इस सवाल को पूछा जाना बंद हो गया है। नतीजतन, हमारे लोकतंत्र में प्रतिनिधित्व का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। आपात्काल के बाद यानी जनता पार्टी के शासनकाल के ढाई वर्षों में जो हुआ था, उसे भी भाजपा याद नहीं करना चाहती। ़गैर-कांग्रेसी राजनीति के उस महत्वपूर्ण प्रयोग को नष्ट करने की ज़िम्मेदारी केवल मधु लिमये और जार्ज ़फर्नाडीज़ की कारगुज़ारियों की ही नहीं थी- जनता पार्टी, तत्कालीन प्रशासनिक ढांचे और मीडिया पर भीतर से कब्ज़ा करने की संघ और भाजपा की ़ख़ुिफया कोशिशों की भी थी। अडवानी के नेतृत्व में जिस तरह से यह कोशिश चली, जिस तरह से संघ के समर्थक पत्रकार अडवानी की चिट्ठियां लेकर मालिकों के पास गए और उन्हें नौकरियां मिलीं- यह कहानी मीडिया के हल्कों में सभी लोग जानते हैं। एम.जे. अकबर एक वरिष्ठ और योग्य पत्रकार होने के साथ-साथ मोदी सरकार में विदेश राज्य मंत्री भी हैं। उन्होेंने ने एमरजेंसी पर चल रहे सार्वजनिक विवाद में स्वाभाविक रूप से कांग्रेस विरोधी मुद्रा अखित्यार करते हुए अपने लेख में एक ऐसी बात कह दी है जिससे उन्हीं की पार्टी और प्रधानमंत्री द्वारा इंदिरा गांधी को हिटलर बताये जाने का अनजाने में खंडन हो गया है। अकबर ने लिखा है कि ‘अगर 1977 में चुनाव न होते तो शायद उसके बाद फिर चुनाव होते ही नहीं।’ इस छोटे से वाक्य के साथ अगर इस तथ्य को भी जोड़ दिया जाए तो बात पूरी हो जाती है कि इंदिरा गांधी बिना चुनाव जीते कभी सत्ता में नहीं आईं और एक ऐसा चुनाव हार कर ही वे सत्ता से बाहर हुईं जो उन्होंने ़खुद अपनी मज़र्ी से करवाया था, क्योंकि उस समय विपक्ष उन पर किसी तरह का दबाव डालने की स्थिति में ही नहीं था। यह ज़रूर कहा जा सकता है कि इंदिरा गांधी इंटेलिजेंस ब्यूरो द्वारा किये गए इस आकलन में फंस कर अपनी जीत के प्रति आश्वस्त हो गई थीं कि वे चुनाव जीत जाएंगी और इस तरह आपात्काल लगाने के अपने फैसले के औचित्य का प्रतिपादन कर सकेंगी। लेकिन अपनी जीत की कामना तो सभी नेताओं और पार्टियों द्वारा की जाती है। रेखांकित करने योग्य बात तो यह है कि इंदिरा गांधी चाहतीं तो आगे कई साल तक बिना चुनाव कराये सत्ता भोगती रह सकती थीं। दूसरे, वे चाहतीं तो एक ़फज़र्ी किस्म का चुनाव भी करा सकती थीं। यानी वे कुछ तथाकथित और अंदरखाने उनसे मिले हुए विपक्षी नेताओं को खड़ा करके यह दिखावा कर सकती थीं कि उन्होंने विपक्ष को पराजित कर दिया है। लेकिन, ऐसा करने के बजाय उन्होंने आपात्काल हटाया, पूरे विपक्ष को रिहा किया और बाकायदा एक विश्वसनीय चुनाव कराया। पराजित हुईं और फिर चार महीने तक अपने घर से बाहर कदम नहीं रखा। मैं कोई इंदिरा गांधी का प्रशंसक या कांग्रेस का समर्थक नहीं हूं। मेरा और मेरे परिवार का इतिहास इसका उलट रहा है। आपात्काल में मेरी दाढ़ी-मूंछ निकलनी शुरू भी नहीं हुई थी, मुझे मेरे पिता (जो जयप्रकाश नारायण आंदोलन की समन्वय समिति के संयोजक और उस क्षेत्र के प्रमुख पत्रकार और स्वतंत्रता सेनानी थे) के साथ जेल में डाल दिया गया था। लेकिन प्रश्न यहां मेरे व्यक्तिगत कष्टों या मेरी व्यक्तिगत राजनीति का नहीं है। आपात्काल को जिस तरह राजनीतिक मंशाओं के साथ सुविधाजनक लगने वाले रंगों में रंगा जा रहा है- प्रश्न तो उसका है। क्या 1977 में जो चुनाव नतीजा आया था, उसे पूरे देश की राय माना  जा सकता है? यह ठीक है कि कांग्रेस बुरी तरह से हार कर सत्ता से बाहर हो गई थी (और उसे हार ही जाना चाहिए था)- पर क्या वह पराजय एक राष्ट्रीय पराजय थी? चुनाव आयोग के आंकड़े जो कहानी कहते हैं, वह इस प्रचलित विमर्श का खंडन करती है कि इंदिरा गांधी और उनके राजनीतिक ब्रांड की पराजय एक राष्ट्रीय पराजय थी। विपक्ष की एकताबद्ध ताकत के मुकाबले कांग्रेस ने 492 सीटों पर चुनाव लड़ कर 154 निर्वाचन क्षेत्रों में जीत हासिल की थी। उसे सारे देश में 34.5 ़फीसदी वोट मिले थे (नरेंद्र मोदी की भाजपा को 2018 में मिले वोटों से भी ज़्यादा)। 
़खास बात यह थी कि इस चुनाव नतीजे ने देश को दो हिस्सों में ऊपर से नीचे तक बांट दिया था। एक तऱफ उत्तर भारत था जिसमें कांग्रेस का सफाया हो गया था, और दूसरी तऱफ दक्षिण भारत था जहां कांग्रेस ने विपक्ष को बुरी तरह से हरा दिया था। एमरजेंसी और तानाशाही की हार ज़रूर हुई थी, पर केवल उत्तर भारत में। दक्षिण ने तो इंदिरा गांधी को सही ठहरा दिया था। और, जिस उत्तर ने इंदिरा गांधी को सत्ता से बाहर किया था, वह उनके प्रति अपनी नाराज़गी पांच साल तक भी कायम नहीं रख पाया। ढाई साल बाद हुए मध्यावधि चुनावों में उसने इंदिरा गांधी को बहुमत प्रदान करके फिर प्रधानमंत्री बनवा दिया। जिस तरह हर घटना के पीछे कई कारण होते हैं, इस घटनाक्रम के पीछे भी कई कारण थे। लेकिन नतीजों को जिस अंदाज़ में पेश किया जा रहा है, उसका तथ्यों से कोई ताल्लुक नहीं है। आपात्काल भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में काला अध्याय था। लेकिन इसकी कालिख केवल कांग्रेस के ही नहीं बल्कि हम सबके दामन पर लगी हुई है। लोकतंत्र की उन्मुक्त और प्रखर आभा के क्षण अभी आने शेष हैं। अगर आपात्काल के अनुभव का राजनीतिक रूप से बेजा इस्तेमाल किया जाएगा तो ये क्षण हमसे और दूर होते जाएंगे।