पाकिस्तान का चुनाव परिणाम तो पूर्व लिखित पटकथा है

पाकिस्तान में आए चुनाव परिणाम से किसी को हैरत नहीं हुई है। सब कुछ पूर्व आकलनों के अनुरूप ही है। इमरान खान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ  सत्ता का नेतृत्व करेगी इसे लेकर संदेह नहीं था। हां, उसे पूर्ण बहुमत मिलेगा या नहीं इसे लेकर तब संशय हो गया था जब पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ  अपनी बेटी मरियम के साथ लंदन से वापस आ गए। उन दोनों की गिरफ्तारी हुई, लेकिन उनके आगमन ने निराश और भयभीत पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नून या पीएमएल-एन के कार्यकर्ताओं में नए सिरे से आशावाद का संचार किया। कुछ लोग कह रहे हैं कि नवाज़ का यह दांव सही नहीं बैठा। सच यह है कि अगर वो वापस नहीं आते तो सेना के समर्थन से इमरान खान के लिए बिल्कुल एक तरफा खेल हो जाता। ऐसा न हो सका। नवाज़ की पार्टी का सफाया नहीं हो सका। उसके पास नेशनल असेम्बली में इतनी सीटें हैं कि एक प्रभावी विपक्ष की भूमिका निभा सके। साथ ही पंजाब असेम्बली में उसकी स्थिति उतनी बुरी नहीं हुई जितनी कल्पना की जा रही थी। इसमें नवाज़ द्वारा उठाए गए जोखिम की बड़ी भूमिका थी। नवाज़ वापस नहीं आते तो इमरान को नेशनल असेम्बली के साथ सिंध को छोड़कर शेष तीन प्रांतों में भारी बहुमत प्राप्त होता। ऐसा नहीं हो सका है। इमरान विजयी हुए लेकिन उनकी सरकार हमेशा समर्थन करने वाले निर्दलीयों या दलों की कृपा पर टिकी रहेगी। इसमें सेना की अहम् भूमिका होगी। पाकिस्तान की नेशनल असेम्बली में कुल 342 स्थान हैं। इनमें से 272 के लिए मतदान होता है। शेष 70 सीटों में से 60 महिलाओं के लिए तथा 10 अल्प-संख्यकों के लिए आरक्षित हैं। इन्हें पार्टियों को प्राप्त मतों के आधार पर समानुपातिक पद्धति से भरा जाता है। पिछली बार नवाज़ की पीएमएल.एन. को 126 सीटें प्राप्त हुईं थीं। इमरान की पीटीआई केवल 28 सीटों पर सिमट गई थी। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के नेता बिलावल भुट्टो जरदारी तथा नवाज़ के भाई शाहबाज़ शरीफ  के साथ कई नेताओं ने मतदान तथा मतगणना दोनों में धांधली का आरोप लगाया है। शाहबाज ने कहा है कि वो इस परिणाम को नकारते हैं। चुनाव आयोग ने किसी प्रकार की गड़बड़ी से इन्कार किया है। ये सब अभी कुछ दिनों तक चलेगा। वास्तव में किसी भी पार्टी को चुनाव में गड़बड़ी को साबित करना कठिन होगा। इस समय न्यायपालिका की जो स्थिति है उसमें नवाज़ की पार्टी किसी तरह के न्याय की उम्मीद भी नहीं कर सकती। जब पाकिस्तान के उच्चतम न्यायालय ने एक समिति बनाकर उसकी रिपोर्ट के आधार पर नवाज़ शरीफ  को प्रधानमंत्री पद के अयोग्य करार दे दिया, उसके बाद सांसद एवं पार्टी का अध्यक्ष तक न रहने दिया। तो वहां से उनकी पार्टी को राहत मिल जाएगी, ऐसी कल्पना ही बेमानी होगी। कहा जा सकता है कि इस चुनाव का एक सकारात्मक पक्ष कट्टरपंथी तत्वों को मतदाताओं द्वारा नकार दिया जाना है। ऐसे करीब 1500 उम्मीदवार अलग-अलग बैनरों से मैदान में थे। इनमें से दो-चार ही सफल हो पाए हैं। हाफिज़ सईद को तो जनता द्वारा पूरी तरह नकार दिया गया है। सईद ने अपनी पार्टी मिली मुस्लिम लीग का चुनाव आयोग द्वारा निबंधन ठुकराए जाने के बाद अल्लाह-ओ-अकबर तहरीक (एएटी) के बैनर से 265 उम्मीदवारों को चुनाव में उतारा था। इनमेें से एक भी जीत नहीं सका। वह स्वयं भी चुनाव हार गया, उसका दामाद और बेटा दोनों हार गए। एक-दो सीटों पर ही उसका प्रदर्शन अच्छा रहा। मौलाना मोहम्मद अहमद लुधियानवी की बड़ी चर्चा थी। उसका नाम चुनाव से कुछ समय पहले ही प्रतिबंधित सूची से हटा लिया गया था और चुनाव लड़ने की इजाज़त दी गई थी। लुधियानवी को करीब 45,000 वोट मिले लेकिन ये जीत से काफी दूर थी। तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान ने भी अपने 100 उम्मीदवारों को चुनाव में उतारा था लेकिन इनमें से कोई भी जीत के करीब भी नहीं पहुंच पाया। प्रभावशाली माने जाने वाले मौलाना फजलुर्रहमान की पार्टी मुताहिदा मजलिस-ए-अमल को भी हार का मुंह देखना पड़ा। किंतु इसका दूसरा पहलू भी है। इनमें से ज्यादातर पार्टियों और नेताओं को चुनाव लड़ने की इजाजत मिलनी ही नहीं चाहिए थी।  साफ  है कि इनमें से कई पार्टियों को आईएसआई की पीछे से शह थी। अभी यह देखना बाकी है कि इननी जितने मत काटे उनसे जीत-हार पर कितना अंतर पड़ा। किंतु कई जगहों पर इन्होंने इमरान के पक्ष में परिणाम को प्रभावित किया। तो इनकी इतनी ही भूमिका थी। दूसरे, कई क ट्टरपंथी संगठनों और नेताओं ने इमरान खान का समर्थन किया था। इनमें एक नाम अल कायदा से जुड़े आतंकी संगठन हरकत-उल-मुजाहिदीन का है। इमरान की तालिबानी विचारधारा वाले कट्टरपंथी समी-उल-हक से अच्छे रिश्ते हैं। उन्हें एक नाम तालिबान खान भी दिया गया है।  2013 में अमरीकी ड्रोन हमले में तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) का कमांडर वली-उर-रहमान मारा गया था। उस समय इमरान ने उसे शांति समर्थक कहा था। उत्तर पश्चिम प्रांत खैबर पख्तूनख्वा में उनकी प्रांतीय गठबंधन सरकार ने 2017 में हक्कानी मदरसे को 30 लाख डॉलर की मदद दी। हक्कानी मदरसे को एक तरह से तालिबान का बैक बोन कहा जाता है। पूर्व तालिबान चीफ  मुल्ला उमर समेत अन्य नेताओं ने यहीं से शिक्षा हासिल की थी। इन सबका उनको समर्थन था। इमरान खान ने अपने चुनावी भाषणों में ईशनिंदा के विवाद को तूल दिया था। इमरान ने कई जगह कहा कि आप मुस्लिम नहीं हो सकते हैं अगर आप यह नहीं मानते कि पैगंबर, हमारे पैगंबर, आखिरी पैगंबर थे। इसलिए इसका समर्थन करना अपने मजहब का समर्थन करना है।
यह ऐसा पहलू है जिसे चुनाव परिणाम का विश्लेषण करते हुए नकारा नहीं जा सकता। विजय के बाद अपने संबोधन में इमरान ने कहा कि भारतीय मीडिया ने उनकी बॉलीवुड फिल्म के खलनायक की छवि बनाई। सच तो यही है कि उनके पीछे सेना हर तरह की मदद के साथ खड़ी थी। नवाज़ को योजनाबद्ध तरीके से सेना ने न्यायपालिका के साथ मिलकर राजनीति से पूरी तरह बाहर करने की कोशिश की। उसमें वे काफी हद तक अभी सफल भी हैं। चुनाव परिणाम में मुत्ताहिदा कौमी मूवमेंट (एमक्यूएम) के कराची का किला ढहने की बात की जा रही है। हम न भूलें कि सेना ने सिंध में एमक्यूएम को तोड़ कर पाकिस्तान सरजमीन पार्टी और बलूचिस्तान में मुस्लिम लीग (नवाज़) में दरार डाल कर बलूच अवाम पार्टी गठित करवा दी। पाकिस्तान का चुनाव आयोग जो भी तर्क दे सच यही है कि सेना की इसमें खुली भूमिका थी। न्यायपालिका से उसे पूरी मदद मिली। माहौल ऐसा बनाया गया जिसमें नवाज़ एवं उनका पूरा परिवार पाकिस्तान का लूटेरा और खलनायक साबित हो जाए। उसके समर्थकों में डर पैदा हो जिससे वे पार्टी के लिए काम न कर सकें। पीएमएल.एन. के करीब 1700 प्रमुख नेताओं-कार्यकर्ताओं को किसी न किसी मामले में जेल में डाल दिया गया। इनमें कई उम्मीदवार भी थे। पीपीपी के खिलाफ  सेना ने इसलिए कुछ नहीं किया क्योंकि वह इस चुनाव में बड़ी खिलाड़ी दिख नहीं रही थी। कहने का तात्पर्य यह कि इस चुनाव परिणाम की आधारभूमि सेना ने बनाई और आगे भी इमरान के सरकार गठन से लेकर नीति निर्धारण में उसकी पूरी भूमिका होगी। यहीं पर जनरल परवेज मुशर्रफ  याद आते हैं। उन्होंने सत्ता पर कब्जा ज़रूर किया था, लेकिन चुनाव निष्पक्ष कराए। चुनाव से सेना को दूर रखा। उसी का नतीजा था कि 2008 एवं 2013 का चुनाव सबसे साफ.-सुथरा चुनाव माना गया। हालांकि आज अगर स्थिति इतनी बदतर हुई है तो इसमें नवाज़ भी अपनी जिम्मेवारियों से बच नहीं सकते। जिस तरह उन्होंने मुशर्रफ  से अपनी दुश्मनी निकालने के लिए 2008 के बाद पीपीपी सरकार से मुशर्रफ  काल के कई फैसले पलटवाए, बर्खास्त न्यायाधीशों को बहाल करवाया। उन सबसे एक अलग स्थिति पाकिस्तान में पैदा हुई। न्यायपालिका में कट्टरपंथी तत्वों का प्रवेश हुआ और आज इनको बाहर करना मुश्किल है। सबने मिलकर इमरान को पाकिस्तान के हीरो की छवि बना दी।