कनकौवा

चीन के साथ लड़ाई में बहादुरी दिखाने पर अलाट हुए थे उसे ये मुरब्बे। जैसे-जैसे वह ज़मीन का रकबा बढ़ाता गया, आलमदीन भी साथ लगती ज़मीन को खरीदता चला गया। इस प्रकार दोनों ने अपनी मेहनत के बल पर ज़मीन को काफी उपजाऊ बना लिया था। उधर, शीरीन उसे अपने हाथों से नहलाती, उसके बाल संवारती। छोटा होने के बावजूद वह उसे वीरा कह कर बुलाती। उसके बाल बड़े होने शुरू हो गये थे...बड़े घने भी। वह उसका जूड़ा गूंथती, और सिर पर पटका भी बांधती। सूबेदार इस बार जब छुट्टी पर आया, तो आलमदीन ने बड़ा ज़ोर डाला कि वह दोनों घरों के भले के लिए दूसरी शादी कर ले, लेकिन दूसरी शादी के लिए  सूबेदार परगट सिंह राज़ी नहीं हुआ। तथापि, दोनों घरों का काम बढ़ जाने और वीरे को स्कूल भेजने की बात चलने पर शीरीन ने स्वयं स्कूल जाना छोड़ दिया था। वैसे भी, शीरीन अब दस-ग्यारह की हो चली थी। आलमदीन चाहता था कि शीरीन के साथ कोई अच्छा-सा सिख या हिन्दू लड़का विवाह करा ले, तो वह उसे घर-जमाई बना ले, परन्तु लाख कोशिश के बावजूद ऐसा कोई लड़का नहीं मिला, तो आलमदीन ने दिल्ली में अपनी दूर की रिश्तेदारी के एक लड़के अश़फाक के साथ उसके निकाह का रोका दे दिया। लड़का दिल्ली के कनॉट प्लेस में नाईगिरी की दुकान चलाता था। इस बीच वीरे ने जब पांचवीं कक्षा पास की, तो उसे दो कोस दूर वाले गांव के बड़े स्कूल में दाखिला दिला दिया गया। वीरा हालांकि जिस्म का काफी भरा-पूरा जवान हो के निकला था, परन्तु शीरीन अभी भी उसे स्कूल छोड़ने जाती, और फिर छुट्टी के समय उसे लेने भी जाती। इस कार्य के लिए उसने अपने बापू से कह कर साइकल खरीद लिया था। एक दिन वीरे ने घर आकर शाम को हुड़दंग मचा दिया कि यदि शीरीन उसे स्कूल छोड़ने जायेगी तो वह स्कूल ही नहीं जायेगा...लड़के उसे छेड़ते हैं—तू कोई मर्द थोड़े है...तू तो बच्चा है। आलमदीन ने शीरीन को उसके स्कूल जाने से मना कर दिया था, लेकिन खुद तवज्जो देकर वीरे को भी साइकल चलाना सिखा दिया था। इसके बावजूद, जरा-सी देर हो जाने पर शीरीन झट से उसके स्कूल पहुंच जाती, और दूर नीम के दरख्त के साथ साइकल टिका कर, स्वयं स्कूल के दरवाज़े की ओर टकटकी लगा कर तब तक देखती रहती, जब तक कि वीरा घर वाले पहे पर दूर तक न निकल जाता। वीरा जव दसवीं में दाखिल हुआ, तो स्वाभाविक रूप से अब वह वीर सिंह हो गया था। उधर रिश्ते वालों ने शीरीन का निकाह मांग लिया तो शीरीन के ना-ना करने के बावजूद उसकी डोली को विदा कर दिया गया। सूबेदार ने सारा कारज अपनी हवेली में किया, और बारातियों एवं घरातियों का स्वागत देसी घी के पकवानों से किया। सूबेदार ने अपनी फसल बेच कर पूरे का पूरा एक लाख रुपया शीरीन के लिए घरेलू सामान खरीदने पर खर्च कर दिया। शीरीन की विदाई वाले दिन वीरा बहुत रोया था—शीरीन के गले लग कर भी, और अनाज वाले पिछले कमरे में जा कर भी। फिर जब तांगा स्टेशन की ओर चला, तो वह भी पीछे-पीछे चलता गया। स्टेशन पहुंच कर भी शीरीन उससे लिपट कर बहुत रोई थी। फिरोज़पुर की ओर से गाड़ी आने की आहट पाकर उसने शीरीन और अश़फाक का सामान भी स्वयं गाड़ी में चढ़ाया था। ज़िन्दगी फिर अपने पुराने ढर्रे पर चलने लगी थी...उसी रफ्तार से। वीरे ने दसवीं की पढ़ाई पूरी कर ली थी। उधर सूबेदार परगट सिंह ने फौज से छुट्टी ले ली थी। सूबेदार को पैन्शन भी लग गई थी, और फिरोज़पुर के बड़े बैंक में उसका खाता भी खुल गया था। वह सारा दिन अपनी हवेली के आंगन में चारपाई डाल कर बैठ जाता, और हर आने-जाने वाले को दूसरी जंग के दौरान दिखाई गई अपनी शूरवीरता के किस्से सुनाता रहता। उधर वीर सिंह अपने खेतों के सम्पूर्ण कार्यों को पूरी दिलचस्पी के साथ निपटाता—स्वयं पानी देता, हल चलाता, और बीज भी स्वयं डालता। उसने एक पुराना ट्रैक्टर खरीद लिया था। इस कारण उनकी फसल की उपज काफी बढ़ गई थी, और आय में भी इज़ाफा हुआ था। दोनों बार की फसल बिकने पर उसने काफी रुपया निकाल कर अलग रख लिया था। वह शीरीन के लिए कर खरीदना चाहता था। उसने सुना था, कि दिल्ली बहुत बड़ा शहर है, और वहां हर बड़े आदमी के पास कार है। उसने सोचा, शीरीन के पास अपनी कार होगी, तो वह भी बड़े लोगों में शुमार हो जायेगी। लेकिन वो कहते हैं न, कि अनहोनी तो कुछ भी नहीं होती... सिर्फ होनी ताकतवर हो गुजरती है।